सफलताएँ संकल्प भरे प्रयासों के चरण चूमती हैं।

November 1983

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मनुष्य की लगन, सूझ बूझ प्रतिभा ओर तत्परता को जिस भी केन्द्र पर नियोजित कर दिया जाय उसी में चमत्कारी उपलब्धियाँ हस्तगत होने लगती हैं। संसार की महती सफलताओं का इतिहास इसी आधार पर लिखा गया है। उदासी, उपेक्षा, ढील-पोल रहने पर आधे शरीर आधे मन से काम होता है। ध्यान बिखरा रहने और बेगार भुगतने की तरह काम करने पर ही थोड़े समय में अधिक मात्रा में हो सकने वाला कार्य ढेरों समय लगता और आधे अधूरे, काने कुरूप स्तर का बन पड़ता है। सफलताएँ प्राप्त करते रहे हैं। भविष्य में भी यदि कभी कठिन, असम्भव लगने वाले कार्य सम्पन्न होने लगें तो समझना चाहिए कि यह किसी जादू चमत्कार के वरदान अनुदान के आधार पर नहीं लगन तत्परता के मूल्य पर सम्भव हो सका है।

नव सृजन युग परिवर्तन के सम्बन्ध में भी इसी आधार का अवलम्बन लेना होगा। अग्रगामी प्राणवानों की भावभरी तत्परता यदि जुट सकी तो कोई कारण नहीं कि उज्ज्वल भविष्य के लिए जो सोचना करना और जुटाना है उसका सुयोग न बन सके। मानवी संकल्प का चुम्बकत्व इतना बलिष्ठ है कि वह किसी को भी घसीट कर खिंचते चले आने के लिए विवश कर सकता है। भले ही वह उज्ज्वल भविष्य का प्रत्यक्षी काम ही क्यों न हो। असीम क्षमताओं का भाण्डागार मनुष्य सृष्टा का युवराज और प्रकृति को कोषाध्यक्ष है। उसके संकल्पों और प्रयासों ने अतीत में वह सब सम्भव कर दिखाया है जिसे आज मानवी पुरुषार्थ को करते नहीं बन पड़ता है। लगता है ऐसे असंभव को संभव कर दिखाना किसी देव दानव का कृत्य ही हो सकता है। रहस्यों की परत उठाने पर यह यथार्थता सामने आ खड़ी होती है। कि मानवी प्रतिभा ही अपने विकसित रूप में देव दानव की भूमिका सम्पन्न करती है। अनगढ़ मनुष्य ही पिछड़ा पतित, दरिद्र और विपन्न दीखता है।

इस तथ्य का प्रमाण उदाहरण चाहिए तो मानवी उमंगों के वैज्ञानिक आविष्कारों की दिशा में जुट पड़ने के प्रवाह पर दृष्टिपात किया जा सकता है। सन् 1850 से आरम्भ हुआ यह उत्साह सुविधा साधन बढ़ाने वाले शक्ति की आवश्यकता पूरी करने वाले आधार एवं यन्त्र उपकरण ढूंढ़ निकालने की दिशा में द्रुतगामी हुआ और उसने एक शताब्दी जैसे स्वल्प काल में ऐसी उपलब्धियों के ढेर लगा दिये जिनके सामने पौराणिक उपाख्यानों में वर्णित ऋद्धि सिद्धियां फीकी पड़ गई। सन् 1850 में 1924 के मध्यवर्ती स्वल्प समय में अगणित आविष्कार हुए हैं उनमें सर्वविदित और बहु प्रचलित ही गिन जायं तो उनका समुच्चय पर्वत जितना विशालकाय बन जाता है। कहना न होगा कि इन सौ वर्षों में मनुष्य ने इतनी सामर्थ्य सुविधा अर्जित करली, जितनी कि उसे आदिमकाल से लेकर अब तक के समय में भी हस्तगत नहीं हुई थी।

अग्नि प्रज्ज्वलन, पहिया, धातुओं का उपयोग, कृषि उद्यान, अक्षर ज्ञान, भाषा-विज्ञान चिकित्सा, धर्म दर्शन समाज शास्त्र जैसी उपलब्धियों के क्रमिक विकास में हजारों लाखों वर्ष लगे हैं। उन आधारों को अपनाकर मनुष्य अधिक समर्थ सम्पन्न होता गया है। पर उनकी गति से उठता रहा है। एक पीढ़ी के अनुभवों का लाभ दूसरी पीढ़ी ने उठाया है। किन्तु वैज्ञानिक प्रगति के उपरान्त सौ वर्षों में तो पिछली सफलताओं की तुलना ने एक प्रकार से जादू ही कर दिखाया। इन सफलताओं के पीछे मानवी उत्साह, मनोयोग, और प्रयत्न में तूफान उभर पड़ने के अतिरिक्त और कोई रहस्य नहीं है। यह सुयोग जहाँ कहीं भी, जब कभी भी कार्यान्वित हुआ है वहीं उसका चमत्कारी प्रतिफल प्रस्तुत होकर रहा है।

सन् 1850 से 1900 तक की अवधि में कई उपयोगी आविष्कार सर्वसाधारण के सामने आये। दो पहियों का साइकिल का आविष्कारक जर्मनी के बैडेन राज्य का एक सामन्त जिसका नाम था “ड्रैस वान सोयेरेब्रान।” सन् 1851 में ड्रैस तो इस लोक से चल बसा लेकिन आगे चलकर मैकमिलन नामक व्यक्ति ने इसी साइकिल का परिशोधित स्वरूप प्रस्तुत किया।

‘कार’ के मूल स्वरूप की विचारणा का व्यवहारिक स्वरूप 1886 में जर्मनी की मैनहीम नगरी के कार्ल बैज ने प्रस्तुत किया। देखने में बदसूरत तथा चाल में धीमी गति के कारण उसे उपेक्षा उपहास ही सहना पड़ा। परन्तु कुछ ही वर्षों बाद अमेरिका के हेनरी फोर्ड ने जन-जन की उपयोगिता की वस्तु बनाकर रख दिया।

पेडल व्हील का भाप से चलाकर एक लम्बा मार्ग आसानी से किस प्रकार तय किया जा सकता है, राबर्ट फाल्कम नामक अमरीकी ने सर्वप्रथम इसकी खोज की लेकिन इस सिद्धान्त के प्रतिपादन का श्रेय आर्किमिडीज को ही दिया गया है, कि पानी द्वारा भाप को सहन कर वस्तुओं को तैराया जा सकता है। भाप के इंजन इसी आधार पर बने और रेलगाड़ियाँ तथा वायलरों वाले कारखाने चल पड़े।

आविष्कारों में जब मानवी मस्तिष्क जुट पड़ा तो एक से एक बढ़कर चमत्कार सामने आते गये। 1900 से लेकर 1910 के बीच मात्र दस वर्षों में इतने अद्भुत उपकरण बन गये जिनने मानवी सुविधाओं को अनेक गुना बढ़ा दिया और आर्थिक क्षेत्र में एक प्रकार से क्रान्ति करके रख दी।

टेलीफोन, रेडियो, विद्युत टाइप राइटर, मल्टीफोन, लाउडस्पीकर, मूवी और टाकी फिल्में, टेलीविजन, इन्हीं दश वर्षों के भीतर आविष्कृत हुए और बाजार में आये। कृषि क्षेत्र में क्रान्ति करने वाले ट्रैक्टर पम्प, और कृत्रिम खाद का आविष्कार इसी अवधि में हुआ। हैलिकाप्टर एवं वायुयानों की उड़ाने संसार को प्रथम बार इन्हीं दिनों देखने को मिलीं।

इन्हीं दिनों अनेकों चमत्कारी औषधियाँ सामने आई। संज्ञा शून्य करके आपरेशन की पद्धति में आश्चर्यजनक सुधार हुए। डायनामाइट बारूद ने विध्वंसकों में कीर्तिमान स्थापित किया और स्वचालित राकेट लम्बी उड़ाने भरने लगे। कम्प्यूटरों और यन्त्र मानवों के सिद्धान्त का अब भी सन् 30 से पूर्व ही हो गया था। माइक्रोस्कोप, रेडार और दूरदर्शी टेलिस्कोप भी इसी अवधि में बनने लगे और टेप रिकार्डर बाजार में आ गये। रबड़ का स्थान प्लास्टिक लेने लगा।

नाइलोन के कपड़े फोटो स्टेट, अणु विस्फोट जैसे एक से एक अद्भुत आविष्कार सामने आये। लेसर किरणों की खोज हुई इसके बाद अन्तरिक्षीय उपग्रहों का सिलसिला चला और मनुष्य का पैर चन्द्रमा की धरती पर पड़ा। हजारों श्रमिकों का काम अकेले निपटा देने वाली मशीनें बनी और छपाई के उद्देश्य से द्रुतगामी एवं रंगीन छपाई करने वाले यन्त्र बाजार में आ गये।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद आविष्कारों का क्षेत्र युद्ध उपकरणों को विकसित करने की दिशा में मुड़ गया है। एटम बम, न्यूट्रान बम, जहरीली गैस, मृत्यु किरणें और न जाने ऐसा क्या-क्या बन रहा है जिसके सहारे ही बटन दबाते इस धरती को फुलझड़ी की तरह जलाकर देखते देखते समाप्त किया जा सके। सौर मण्डल की सीमा पार करके अनन्त ब्रह्माण्ड पर कब्जा करने की महत्वाकाँक्षी योजनाएँ बन रही हैं।

संकल्प और प्रयास का भावभरा समन्वय कितने स्वल्पकाल में कितनी उपलब्धियाँ प्रस्तुत कर सकता है। इस तथ्य की एक हलकी सी झाँकी सौ वर्षों की सफलताओं को देखते हुए हर किसी को होती है। यदि यही प्रयास प्रस्तुत विपन्नताओं को निरस्त करने और उज्ज्वल भविष्य को खींच बुलाने के लिए जुट सकें तो कोई कारण नहीं कि युग परिवर्तन का लक्ष्य स्वल्प समय में ही सम्पन्न न हो सके। वैज्ञानिक प्रगति में सीमित लोगों का ही पुरुषार्थ नियोजित हुआ था किन्तु युग परिवर्तन की सामयिक आवश्यकता को पूर्ण करने में जो आज की असंख्यों प्राणवान आत्मायें कुछ कर गुजरने के लिए लालायित हैं। बात सुनियोजन भर की हैं।


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