आदर्श निर्धारित है, पर उन्हें उपयुक्त परिस्थितियों के अनुरूप ढाला जाना है। इस तथ्य को सत्संग समागम में एक महर्षि उपस्थित जिज्ञासुओं को समझा रहे थे। उनने एक कथा कही -‘देवता, मनुष्य और असुर प्रजापति के पास अपने काम का कोई सदुपदेश प्राप्त करने के लिये गये ।
ब्रह्माजी ने उनका मनोरथ समझा और एक ही संकेत शब्द कह दिया ‘द’ - साथ ही यह भी कहा - इसका तात्पर्य समझो और स्वयं ही यह बताओ कि इस निर्देश का पालन कैसे करोगे। देवता ने कहा ‘द’ इसका अर्थ है -दमन, हम संयम बरतेंगे और अपने को अधिक प्रखर करेंगे । मनुष्यों ने कहा - ‘द’ का अर्थ है दान, जो कमाएँगे मिल-बाँटकर खायेंगे। असुरों ने कहा- ‘द’ का अर्थ है दया, हम अहंता और क्रूरता छोड़ेंगे-हम अपनी सामर्थ्य को पीड़ितों की सहायता में नियोजित करेंगे।
आदर्श एक पर उसे व्यक्ति विशेष की परिस्थिति के अनुरूप प्रयुक्त किया जाता है। यह तथ्य सभी ने भली प्रकार समझ लिया। इसे अणुव्रत के रूप में ग्रहण कर तीनों पुण्य प्रयोजन में जुट गये ।