पदार्थ का गुण है-क्रिया। शरीर प्रकृत पदार्थों से बना है अस्तु उसमें निर्वाह के निमित्त चलने वाली पाचन रक्ताभिषरण, आकुँचन जैसी आन्तरिक गतिविधियों का चलना स्वाभाविक है। निर्वाह के अतिरिक्त शरीर का दूसरा दायित्व है-सुविधाओं का उपार्जन अवरोधों का निराकरण। यह भी बहिरंग क्रियाशीलता है। शरीर की गतिविधियों का समापन इसी छोटे क्षेत्र में हो जाता है। समस्त प्राणी इसी गतिचक्र में भ्रमण करते हुए शरीर यात्रा पूरी करते हैं। जिनकी क्षमता एवं चेष्टा इसी परिधि में सीमाबद्ध है उन्हें स्थूल शरीर में आबद्ध कहा जाता है।
मनुष्य का दूसरा कलेवर है-सूक्ष्म शरीर। वह इच्छा, विचारणा की दृष्टि से स्थूल शरीर जैसी आदतों का अभ्यस्त हो सकता है, पर उसे निर्वाह के लिए साधन नहीं जुटाने पड़ते। ऋतु प्रभावों से प्रताड़ित नहीं होना पड़ता। मात्र इच्छा और आदत ही भली बुरी क्रिया-प्रतिक्रिया उत्पन्न करती रहती हैं यही उसका स्वनिर्मित परलोक है। स्वर्ग और नरक की भाव सम्वेदनाओं से सूक्ष्म शरीर धारी इसी स्थिति में आँख मिचौनी खेलता रहता है। दृश्य की दृष्टि से स्थूल शरीर और अदृश्य में प्रखर होने की दृष्टि से सूक्ष्म शरीर वरिष्ठ बैठता है।
आमतौर से मरने के उपरान्त ही प्रेत पितर के रूप में सूक्ष्म शरीर का अनुभव होता है। कभी-कभी दिव्य स्वप्नों में भी उसके पृथक् अस्तित्व का परिचय मिलता है। किन्तु बात बहुत आगे तक चली जाती है। मानवी सत्ता ने तीन कलेवर ओढ़े हैं। ‘स्थूल’ अर्थात् दृश्यमान। ‘सूक्ष्म’ अर्थात् अदृश्य दिव्य लोक से सम्बन्ध ब्राह्मी चेतना के साथ तालमेल बिठाने आदान-प्रदान करने में समर्थ ये तीनों ही स्तर क्रमशः अधिकाधिक उच्च स्तर की विशेषताओं विभूतियों से सम्पन्न पाये जाते हैं।
देवात्मा, ऋषि-सिद्ध पुरुष, अवतार, कारण शरीर की योग साधना एवं तपश्चर्या द्वारा समुन्नत बनते हैं और स्वर्ग वासियों की तरह जीवन मुक्तों की स्थिति में रहते हैं। सूक्ष्म शरीर का अस्तित्व दृश्यमान काया में रहते हुए मनोबल के रूप में प्रकट होता रहता है। गुण कर्म, स्वभाव की विशेषताएं सूक्ष्म शरीर में ही केन्द्रीभूत रहती हैं। साहस, संकल्प, पराक्रम एवं दृष्टिकोण की जाँच पड़ताल करके सूक्ष्म शरीर के उत्थान, पतन का अनुमान लगाया है। प्रतिभावान ओजस्वी, तेजस्वी, मनस्वी, देखने में सामान्य होते हुए भी सूक्ष्म शरीर की दृष्टि से प्रखर पहलवान होते हैं। इन्द्रिय शक्ति से आगे बढ़कर अतीन्द्रिय क्षमताओं में सुसम्पन्न होना ऋषि-सिद्धियों की दृष्टि से अपने विभूति भण्डार भरे रहना सूक्ष्म शरीर के लिए ही सम्भव है।
स्थूल शरीर को स्वस्थ, सुडौल समर्थ, दीर्घजीवी बनाना-बनाये रखना आहार-बिहार पर प्रकृति अनुसरण पर निर्भर है। व्यायाम, टॉनिक आदि के आधार पर उसकी स्वाभाविक पुष्टाई कुछ अधिक भी हो सकती है। किन्तु सूक्ष्म शरीर को समर्थ बनाने के लिए दृष्टिकोण एवं स्वभाव संस्कार का परिमार्जित करना आवश्यक है। उसके लिए पड़ती है। साथ ही स्वार्थ को घटाने-परमार्थ को बढ़ाने के लिए लोक-मंगल की सेवा साधना को भी चिन्तन तथा व्यवहार के साथ जोड़ना पड़ता है। आदर्शों की कसौटी पर खरा उतरने के लिए शौर्य, पराक्रम एवं त्याग बलिदान की वरिष्ठता का भी परिचय देना पड़ता है। सूक्ष्म शरीर ऐसे ही आधार अपनाने से बलिष्ठ होता है। उसका सहयोग पाकर स्थूल शरीर की क्षमता अनेक गुनी बढ़ जाती है। व्यक्तित्व की प्रखरता प्रतिभा के रूप में प्रकट होती है। असामान्य क्षमताओं के धनी प्रायः इसी स्तर के होते हैं।
कुछ लोगों के सूक्ष्म शरीर पूर्व संचित संस्कार सम्पदा के कारण अनायास भी अपनी विशिष्टता का परिचय देने लगते हैं। किन्तु साधारणतया प्रयत्नपूर्वक ही उसे बलिष्ठ बनाना पड़ता है। जिस कारण भी वह समुन्नत हुआ हो अपनी विशेषताओं का ऋद्धि-सिद्धियों के रूप में परिचय देने लगता है। इनकी साधारण झाँकी प्रतिभा के रूप में परिलक्षित होती है। अग्रगामी, दुस्साहसी प्रायः सूक्ष्म शरीर के क्षेत्र में ही अपनी विशिष्टता का भण्डार भरे रहते हैं।
इस अदृश्य विशिष्टता का कभी-कभी किसी-किसी में परिचय मिलता है तो लोग आश्चर्यचकित रह जाते हैं और उसे किसी देवता का अनुग्रह मानने लगते हैं वस्तुतः वैसा कुछ है नहीं। सूक्ष्म शरीर ही निकटतम देवता है। उसे छाया पुरुष से लेकर पीर बैताल जैसे अनेकों चमत्कारी परिचय देते देखा जाता है। आत्म देव सबसे बड़ा देवता है। उसकी उपासना का हाथोंहाथ प्रतिफल मिलता है। वर्तमान या भूतकाल में जो उसकी जितनी साधना कर चुके कर रहे हैं वे उसी अनुपात से चमत्कारी और सिद्ध पुरुष कहलाते हैं। इन विशेषताओं का परिचय जहाँ-तहाँ अनायास भी मिलता रहता है। प्रयत्नपूर्वक तो उन्हें कोई भी कभी भी उपार्जित कर सकता है।
शरीर में काम करने वाली गर्मी तथा गतिशीलता से सभी परिचित हैं। अध्यात्म विज्ञानी जानते हैं कि सूक्ष्म शरीर से दिव्य ऊर्जा के भण्डार भरे पड़े हैं। उसकी बिजली न केवल व्यक्ति की पुरुषार्थ क्षमता को अनेकों गुना बढ़ा देती है। वरन् ऐसे काम भी कर दिखाती है जिन्हें सामान्य जनों के लिए असम्भव ही कहा जाता है। पर इसमें अलौकिक जैसी कोई बात है नहीं। सूक्ष्म शरीर की दिव्य ऊर्जा के ये साधारण और स्वाभाविक चमत्कार हैं। यान्त्रिक बिजली जब इतने बड़े काम कर सकती है तो सूक्ष्म शरीर की दिव्य ऊर्जा अपनी विशिष्टता क्यों सिद्ध न करेगी ? दिव्य ऊर्जा का प्रवाह कभी-कभी सूक्ष्म शरीर से फूटकर स्थूल शरीर में प्रवेश करने लगता है तो मनुष्य एक चलता फिरता बिजली घर जैसा दीखने लगता है।
नवम्बर 1967 की एक घटना है। पश्चिम जर्मनी के बेवेरिया क्षेत्र के अंतर्गत राशेन हेम के एके पदाधिकारी की छत से लटक प्रकाश देने वाला ट्यूब अपने आप ढीला पड़ने लगा। बिजली के बटनें स्वतः गिर गयीं। इतना ही नहीं कार्यालय के सबसे सब टेलीफोन एक बारगी घनघनाने लगे और उनके रिकार्ड में हजारों बातचीत करने का लेख बिल पर अंकित होने लगा। कारणों की बहुत छानबीन की गयी। अन्त में प्रो. हंस वेन्डर जैसे मनोवैज्ञानिक ने पता लगाया कि यह वातावरण सम्बन्धी परिवर्तन 19 वर्षीया नौकरानी एनीमैरी की उपस्थिति में घटित होता है।
एनीमैरी के असाधारण व्यक्तित्व के कारण दीवाल पर लटकती तस्वीरें औंधकर उलट जाती थीं। बल्ब फ्यूज होने लगते थे। मेजों की दराजें स्वयमेव खुल जाती थीं। लगभग पौने दो क्विन्टल भार की फाइलों से युक्त आलमारी दीवाल को 12 इंच छोड़ देती थी। समय मापक घड़ियों ने 20 मिनट में ही घण्टा पूरा करने की रफ्तार पकड़ ली तथा 10 बाट की विधुत माइक्रोफोन के द्वारा नोट की गयी। करेंट की रिकार्ड 50 एम्पीयर पर देखा गया जबकि विद्युत सप्लाई काट दी गयी थी। टेलीविजन में प्रयुक्त होने वाले ऐमपेक्स वीडीओ रिकार्डर ने तात्कालीन वातावरण का जो चित्राँकन किया उससे अस्पष्ट भुतहा दृश्य दिखायी पड़ा। इंग्लैण्ड में भुतहा मकान के प्रेतों को टेलीविजन कैमरा नहीं पकड़ सका था। राशेन हेम में फोटो प्रयुक्त यह बैटरी बिना पावर हाउस कनेक्शन से चला करती थी। इतनी ही नहीं एनीमैरी के चलने पर बिजली के बल्ब झूलने से लगते थे।
प्राचीन भारतीय लोग चाँगदेव के बारे में उल्लेख मिलता है कि उन्होंने अपनी मौत को 14 बार वापस लौटाया था ईसा मसीह के समय से लेकर बारहवीं शताब्दी तक सन्त ज्ञानेश्वर के समय तक उनकी योग गाथाओं के उल्लेख मिलते हैं। 1400 वर्ष की आयु में शेर के ऊपर सवार होकर हाथ में वे नाग का चाबुक लेकर सन्त ज्ञानेश्वर के पास पहुँचे थे।
लोगों के द्वारा चुनौती दिये जाने पर एक बार हवा में स्थिर रहकर उन्होंने प्रवचन दिया था एक के ऊपर एक क्रमश चौबीस चौकियाँ रखकर मंच बनाया गया, प्रवचन देते समय उनके संकेत के अनुसार सारी चौकियाँ हटा दी गयीं। वे हवा में अवस्थित हुए ही प्रवचन करते रहे। लोगों ने उनका जय-जयकार किया तो उन्होंने इतना ही कहा कि इसमें उनका अपना कुछ भी बड़प्पन नहीं, वरन् योग क्रियाओं के अभ्यास का ही यह चमत्कार है। वस्तुतः सूक्ष्म शरीर की साधना से अर्जित उपलब्धियाँ ऐसी असाधारण हैं जिन्हें असंभाव्य ही कहा जा सकता है।
अमेरिका के प्रसिद्ध मनोविज्ञान शास्त्री डा. राल्फ एलेक्जेण्डर ने सन् 1951 में मेक्सिको सिटी में कई विद्वानों एवं वैज्ञानिकों के समक्ष अपनी इच्छाशक्ति के प्रयोग द्वारा मेघ रहित आकाश में 12 मिनट के अन्दर बादलों को पैदा करके कुछ बूँदा-बाँदी भी करादी थी। उस समय तो उपस्थित लोगों ने डा. राल्फ ने सन् 1954 में फिर 12 सितम्बर को ओण्टैरियो ओरीलियो नामक स्थान पर खुलेआम प्रदर्शन करने का निश्चय किया। पचासों वैज्ञानिकों पत्रकार नगर के वरिष्ठ अधिकारी एवं मेयर भी उपस्थित थे। प्रामाणिकता की कसौटी के लिए तेज फोटो खींचने वाले कैमरे भी लगा दिये थे।
दर्शकों ने आसमान में छाये बादलों में से जिस बादल पट्टी के हटाने के लिए कहा डा. एलेक्जेण्डर ने आठ मिनट के भीतर उसको अपनी दृष्टि जमाकर गायब करके दिखा दिया। कैमरों ने भी बादल हटने के ही चित्र दिये। लोग इसे संयोग मात्र न समझें इसलिए उन्होंने यह प्रयोग तीन बार दुहराकर दिखाया, तब वहाँ के सभी प्रमुख समाचार पत्रों ने इस समाचार को “क्लाउड डेस्ट्रायड बाई डाक्टर” (बादल डाक्टर द्वारा नष्ट किये गये) का बहुत बड़ा हेडिंग देकर प्रकाशित किया “स्ट्रेंज हैपिनिंग्स” पुस्तक से इसी प्रकार की कई घटनाओं का उल्लेख मिलता है। जिनमें इच्छाशक्ति के बल पर चमत्कारी प्रदर्शनों का वर्णन है।
हालैण्ड निवासी क्रोसेट का जन्म 1909 एक साधारण गरीब माँ बाप के यहाँ हुआ था, ये दोनों थियेटर में काम करते थे। बचपन से ही क्रोसेट भविष्यवाणियाँ किया करते थे। बचपन में ही उसने नाजी आक्रमण तथा जापानियों द्वारा डचों के ईस्ट इन्डीज अधिग्रहण के बारे में सही सही पूर्व सूचना दे दी थी।
36 वर्ष की आयु आते ही वह इस विद्या में इतना निष्णात हो गया था कि किसी भी वस्तु को देने पर बनता देता था कि वस्तु का मालिक कौन है ? उसका सामान्य परिचय तथा वर्तमान परिस्थिति ही नहीं वह बताया करता था कि मालिक के मित्र, नौकर-चाकर तथा पारिवारिक सदस्यगण कैसे हैं ? उनकी स्थिति कैसी है अर्थात् घर, आस-पड़ौस स्थिति एवं मनोदशा कैसी है ? उसकी इन प्रतिभाओं का प्रयोग पुलिस ने चोरों, अपराधियों तथा कत्ल करने वालों को ढूँढ़ने पकड़ने में किया। उसे स्थान विशेष पर जाने की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। वह फोटो, नक्शा, साक्ष्य वस्तुएँ जैसे कपड़े अथवा हथियार आदि की सहायता से चोरों, हत्यारों एवं खोयी वस्तुओं का पता बता दिया करता था।
“इनवेस्टीगेशन एण्ड सीक्योरिटी’ नामक कम्पनी को ‘रेग मैकहंग नामक एक व्यक्ति ने सभी को सुरक्षा की सुविधा मिले, इस उद्देश्य से खोला था। वे चोर का पता अपनी अतीन्द्रिय शक्ति से लगा लेते थे। पहले तो वे इस कार्य को कनाडा में पुलिस अफसर के रूप में करते रहे, बाद में वे स्वयं करने लगे। अनेकानेक कम्पनियों को उनकी चोरी का पता बताकर लाभान्वित करा देने से उन्हें भी काफी सम्पत्ति हाथ लगी और कुछ ही दिनों में वे धनवान् हो गये। सन् 1973 में टोरोंटो नगर में इस विलक्षण शक्ति के प्रदर्शन में एक फिल्म भी बनी। इस क्षमता के विषय में श्री रेग का कहना था कि हर मनुष्य में ऐसी विलक्षण सामर्थ्य पाई जाती है। जिस को पुरुषार्थ द्वारा जगाना बढ़ाना पड़ता है।
दक्षिण जापान के बौद्ध मन्दिरों में किये जाने वाले एक विशिष्ट धर्मानुष्ठान का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए मनःशास्त्री डा. विक्टर ने लिखा है कि इस धर्म के अनुयायी ध्यान योग पर बहुत आस्था रखते हैं और उनकी आस्था इस हर तक दृढ़ रहती है कि उन्हें कठिन तितीक्षाओं से होने वाले कष्टों का अनुभव नहीं होता। उनके शरीर पर इन कष्टों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। उन मन्दिरों में जब साधक छः फुट लम्बी दहकते कोयले से सजायी गयी वेदी पर नंगे पैरों नाचते हैं और उसे पर करते हैं तो आग से जलने का अनुभव तो दूर रहा उनके पैर झुलसते तक नहीं। उन साधकों के लिए धधकती आग ठण्डी राख के समान हो जाती है। ऐसे प्रसंग तो भारत में कई स्थानों पर आज भी देखे जा सकते हैं। सिंगापुर के एक भारतीय योगी ने, जिसका उल्लेख “वन्डर बुक आफ स्ट्रैन्ज फैक्ट्स” में भी है, अपने शरीर में नुकीले 50 भाले आर-पार घुसेड़ लिये और इस अवस्था में भी वह सबसे हँस-हँसकर बातचीत करता रहा। लोगों ने कहा यदि आपको कष्ट नहीं हो रहा हो तो थोड़ा चलकर दिखाइये। उस पर योगी ने 3 मील चलकर भी दिखा दिया। उन्होंने बताया कि कष्ट शरीर को होता है। पर यदि आत्मसत्ता का बोध हो तो उसे भुलाया भी जा सकता है।
स्थूल शरीर की तुलना में सूक्ष्म और सूक्ष्म से कारण शरीर की सामर्थ्य कहीं अधिक है। सूक्ष्म शरीर की शक्तियाँ प्रसुप्त स्थिति में पड़ी रहती हैं। उन्हें साधना के माध्यम से जगाया उभारा जा सके तो मनुष्य अतीन्द्रिय शक्ति सम्पन्न बन सकता है। कारण शरीर जीवात्मा की क्रीडा स्थली है परमात्मा की दिव्य अनुभूतियाँ इसी क्षेत्र में रमण करती हैं। उनका जागरण सम्भव हो सके तो प्राप्य उपलब्धियों से अपना ही नहीं दूसरों का भी हित साधना सम्भव है।