ब्रह्मविद्या और आत्मबल बढ़ा सकने वाली शक्ति– महाप्रज्ञा

November 1983

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गायत्री उपासना के दो पक्ष हैं एक ज्ञान पक्ष और दूसरा विज्ञान पक्ष। इन्हें ब्रह्मविद्या और ब्रह्मशक्ति भी कह सकते हैं। आत्मिक प्रगति के लिए इन दोनों पक्षों पर समान रूप से ध्यान देना पड़ता है। सामान्य जीवन क्रम में भी शक्ति और ज्ञान का समन्वय हुए बिना अभीष्ट दिशा में कोई प्रगति नहीं होती। केवल ज्ञान हो और शक्ति न हो तो भी अभीष्ट दिशा में कदम नहीं बढ़ाये जा सकते और केवल साधन शक्ति हो किन्तु उनके उपयोग की कला न आती हो तो भी कोई परिणाम प्राप्त नहीं किये जा सकते।

आत्मिक जीवन में भी यही नियम लागू होता है। आत्मा को परमात्मा से जोड़ने के लिए, जीव और ब्रह्म के मिलन के लिए जिस विद्या की जानकारी आवश्यक है उसे ब्रह्मविद्या कहते हैं। तथा अन्तःकरण को शुद्धि, चेतना के परिष्कार के लिए जो क्रिया कृत्य किये जाते हैं उन्हें तम कहते हैं। दोनों का समवेत प्रयोजन ब्रह्मज्ञान और आत्मबल अर्जित करना है। इन दोनों का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। इनकी आवश्यकता बताते हुए कहा गया है-

यत्र ब्रह्म च क्षत्रं च सम्यंचौ चरतौ सह। तं लोकं पुण्यं प्रज्ञेषंयत्र देवाः सहाग्निना। -यजुर्वेद 20/25

“जहाँ ब्रह्म शक्ति और क्षत्र-शक्ति साथ-साथ रहती हैं, वही लोक पुण्यशाली होता है।” इस मन्त्र में आये हुए ‘ब्रह्म’ और ‘क्षत्र’ पद क्रमशः ज्ञान और कर्म के वाचक हैं। ये दोनों शक्तियाँ जहाँ होंगी वहीं प्रगति के आधार बनेंगे।

ब्रह्मणि खलुवै क्षत्रं प्रतिष्ठितम् क्षत्रे ब्रह्म। -अथर्व08/12

ब्रह्म में क्षत्र की स्थिति होती है और क्षत्र में ब्रह्म की।

ब्रह्म च क्षत्रं च संश्रितें -अथर्व ॰ 3/11

ब्रह्म और क्षत्र परस्पराश्रित होते हैं।

द्रोणाचार्य के शास्त्र और शस्त्र धारण की आवश्यकता ब्रह्म और क्षत्र-ज्ञान और कर्म दोनों की समान उपयोगिता के रूप में इस प्रकार बताई गयी है।

अग्रतः चतुरो वेदा पृष्ठतः शस धुन। इदं ब्राह्म इदं क्षात्र शास्त्रादपि शरादपि॥ -महाभारत

हम वेदों को आगे रखकर लोगों को समझाने, सन्मार्ग पर लाने का प्रयत्न करते हैं। साथ ही पीठ पर धनुष बाण भी रखते हैं। यह धर्म शिक्षा ‘ब्राह्म’ है और यह शस्त्र धारण ‘क्षात्र’ है। दोनों शक्तियों के समन्वय से ही समस्याएँ सुलझती हैं।

नाब्रह्म क्षत्रमृध्नोति नाक्षत्र ब्रह्म वर्धते। ब्रह्म क्षत्रं च संपृक्तमिह चामुत्र वर्धते॥

ब्रह्म-शक्ति के बिना क्षत्र-शक्ति नहीं बढ़ती और क्षत्र-शक्ति के बिना ब्रह्म-शक्ति और क्षत्र-शक्ति नहीं बढ़ती। परस्पर मिली हुई ब्रह्म-शक्ति और क्षत्र-शक्ति ही इस लोक और परलोक में वृद्धि को प्राप्त होती है।

ब्रह्म शक्ति और क्षत्र शक्ति से तात्पर्य ज्ञान और कर्म से है ब्रह्मविद्या और आत्म बल से है गायत्री के ज्ञानपक्ष को उद्घाटित करते हुए शास्त्रों में कहा गया है-

सर्व वेदोद्धतः सारो मन्त्रोऽयं समुदोहृतः। ब्रह्मादेवादि गायत्री परमात्मा समीरितः॥

“ यह गायत्री मन्त्र समस्त वेदों का सार कहा गया है। गायत्री ही ब्रह्मा आदि देवता है। गायत्री ही परमात्मा कही गई।” -गायत्री तन्त्र

सर्वशास्त्रमयी गीता गायत्री सैव निश्चिता। गयातीर्थ च गोलोकं गायत्री रुपमद्भुतम्॥

‘गीता में सब शास्त्र भरे हुए हैं। वह गीता निश्चय ही गायत्री रूप है। गया तीर्थ और गोलोक यह भी गायत्री के ही रूप हैं।”

इस स्थिति को प्राप्त करने के साथ ही साधक में वह तेजस् धारण करने की पात्रता भी विकसित होती है। जिसे आत्मबल, ब्रह्मवर्चस् आदि नामों से पुकारा जाता है। शास्त्रों में इस तत्व की चर्चा ब्रह्माग्नि के नाम से स्थान-स्थान पर हुई है।

ब्रह्माग्नि चर्चा शास्त्रों में स्थान-स्थान पर हुई है-

द्वयं वा इदं न तृतीयमस्ति। आर्द्रचैव शुष्कं च यदाद्रं तंत सौम्यं यछुष्कं तदाग्नेयम्। -शतपथ

यह संसार दो पदार्थों से मिलकर बना है-(1) अग्नि, (2) सोम। इनके अतिरिक्त तीसरा कुछ नहीं है।

अग्नि र्वा अहः सोमारात्रिरथ यदन्तरेण तद् विष्णु। श॰ प॰ 3/4/4/25

अग्नि और सोम के मिलन को विष्णु कहते हैं।

इमौ तै पक्षावजरौ पतत्रिणौ याश्याँ रक्षाँस्यप-हस्यग्ने। ताश्याँ पतेम सुकृतामु लोकं यत्र ऋषयो जग्मुः प्रथमजाः पुराणाः। यजु0 18/52

हे अग्नि ! तेरे दोनों पंख फड़फड़ाते हैं। उनसे पाप और तम का हनन होता है। इन्हीं पंखों के सहारे हम उस पुण्य-लोक तक पहुँचते हैं जहाँ पूर्ववर्ती ऋषि पहुँचे थे।

अग्नेऽभ्यावर्तिन्नभि मा निवर्तस्वायुषा वर्चसा प्रजया धनेन सन्या मेधया रय्या पोषेण। यजु0 12/7

अर्थात्- हे अग्नि तू आयु, वर्चस् प्रजा, धन, दान, मेधा, रयि और पुष्ट बनकर अपना अनुग्रह हमें प्रदान करें।

गायत्री के 24 अक्षरों में सन्निहित 24 शक्तियों की व्याख्या करते हुए शास्त्र कहता है।

आजश्शक्ति बल प्रभाव सुषमाँ तेजस्सु वीर्यप्रभा। ज्ञानैर्श्वय महस्सहो जय यशस्स्थैर्य प्रतिष्ठाश्रियः॥

विज्ञान प्रतिभा मतिस्मृ तिधृति प्रज्ञाप्रथस्सु ज्वलाः वणैस्त्वन्मानुगै स्त्रिरषभि रहो बर्ध्यन्त एवात्रमे॥

(1) “ओज, (2) शक्ति, (3) बल, (4) महिमा (5) कान्ति, (6) तेज, (7) पराक्रम (8) प्रकाश, (9) ज्ञान, (10) ऐश्वर्य, (11) विकास, (12) सहनशक्ति, (13) जय, (14) कीर्ति, (15) स्थिरता, (16) प्रतिष्ठा, (17) लक्ष्मी, (18) विज्ञान, (19) प्रतिभा, (20) मति, (21) स्मृति, (22) धृति, (23) प्रज्ञा, (24) ख्याति- यह चौबीस गुण हे माता ! तुम्हारे मन्त्र में रहने वाले चौबीसों वर्णों द्वारा मुझमें अभिवृद्धि पा रहे हैं।”

बड़प्पन बड़ा हो गया। घोंसले से बाहर शिर निकालने लगा। तब तक उसका एक पंख उगा था कि उड़ने के लिए मचल पड़ा। कुछ ही दूर बढ़ा होगा कि आँधी आयी और जमीन पर गिर पड़ा। चिड़िया ने उसे वापस बुलाया और कहा-“दूसरा पर उगने तक ठहरो।” सामर्थ्य एक पर है और समझदारी दूसरा, दोनों के सहारे ही लम्बी उड़ान उड़ी जाती है।

इस सावित्री शक्ति की गरिमा को भगवान् मनु सशक्तता के क्षेत्र में सर्वोपरि मानते हैं।

सावित्र्यास्तु परान्नास्ति। -मनु0 2/89

कहा जा चुका है कि ज्ञान को ब्रह्म और विज्ञान को क्षेत्र माना गया है। भारतीय धर्म में दोनों का समान महत्व है और भारतीय संस्कृति की जननी है तो उसमें यह दोनों पक्ष की आवश्यकता परी करती है। अतः आत्मिक प्रगति की समग्र आवश्यकता गायत्री साधना से पूरी हो जाती है।


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