छोटे से बीज में एक विशालकाय वृक्ष का समूचा ढाँचा अदृश्य रूप से विद्यमान रहता है। अवसर मिले तो अदृश्य से दृश्य बनते देखा जा सकता है। शुक्राणु में एक समूचा मनुष्य अपनी वंश परम्पराओं को समेटे बैठा रहता है। समय आने पर उस तुच्छ को महान बनते देर नहीं लगती। संसार के सबसे छोटे घटक परमाणु में अदृश्य रूप से सौर मण्डलीय गतिविधियाँ उसी रूप में काम करती रहती है। विखण्डन होने पर पता चलता है कि अणु विस्फोट से कितनी प्रचण्ड ऊर्जा का प्रकटीकरण होता है। यही बात मनुष्य के सम्बन्ध में भी है वह आमतौर से पेट प्रजनन भर के दो कृत्यों में अपनी सामर्थ्य एवं आयुष्य खपा पाता है। पर यदि इस सामान्य से थोड़ा और आगे बढ़कर देखा जा सके तो प्रतीत होगा कि उसके भीतर ऐसा भी बहुत कुछ है जिसे असाधारण कहा जा सके।
अविज्ञात के प्रकटीकरण को ही चमत्कार कहते हैं। वस्तुतः इस संसार में चमत्कार जैसी कोई वस्तु है नहीं। प्रकृति के अन्तराल में उसकी सनातन सत्ता इस प्रकार भरी पूरी है कि उसमें कमी पड़ने या बढ़ोत्तरी होने जैसी कोई बात होती नहीं। जो व्यवहार में आता है, जो विदित या प्रकट है, वही सामान्यतया दृष्टिगोचर होता है, पर इस छोटे क्षेत्र से आगे बढ़कर कोई विशेष उपलब्धियाँ यदि सामने आती हैं तो उन्हें देवी अनुग्रह या सिद्धि चमत्कार कहा जाने लगता है। अतीन्द्रिय क्षमताओं के सम्बन्ध में भी यही बात है। उस आधार पर कितने ही कौतुक कौतूहलों के विवरण सामने आते रहते हैं। इन्हें कौतुक कौतूहलों के विवरण सामने आते रहते हैं। इन्हें आकस्मिक नहीं समझा जाना चाहिए वरन् इतना ही कहा जाना चाहिए कि अविज्ञात से विज्ञात बनकर आने का सुयोग बन गया। अवसर मिले तो मनुष्य उतना ही चमत्कारी एवं समर्थ बन सकता है जितना कि उसके उद्गम एवं सृजेता सर्वशक्तिमान को भगवान हैं।
आध्यात्म की भौतिक अभिव्यक्ति का सर्वप्रथम वैज्ञानिक परीक्षण फ्राँस के काउँट अगेनर डी गेस्परिन ने किया। उन्होंने अपने कुछ वैज्ञानिक मित्रों के साथ कुछ प्रयोग किये। उन्होंने देखा कि कुछ व्यक्ति वस्तुओं को बिना स्पर्श किये एक स्थान से दूसरे स्थान पर हटाने की पात्रता रखते हैं। उन्होंने वस्तु को बिना स्पर्श किये हटाने वाली शक्ति को उसी प्रकार नापा जैसे भौतिकी विज्ञानी गुरुत्वाकर्षण शक्ति को उसी प्रकार नापा जैसे भौतिकी विज्ञानी गुरुत्वाकर्षण शक्ति को नापते हैं। अभी तक किसी भी वस्तु का अथवा व्यक्ति हवा में उड़ने की घटना को जो कि गुरुत्वाकर्षण शक्ति के सिद्धान्त के प्रतिकूल है, एक पारलौकिक और दैवी शक्ति के हस्तक्षेप द्वारा ही सम्भव माना जाता था। किन्तु ही गेस्परिन इस कार्य में कोई अन्य बुद्धि संगत मर्म होने की सम्भावना को मानते थे। उनका तर्क यह था कि यह कार्य मानव अपनी आत्म शक्ति के द्वारा भी असम्भव को सम्भव बनाते हुए कर सकता है।
डी गेस्परिन की रिपोर्ट सन् 1854 में प्रकाशित हुई और इसके एक वर्ष बाद ही जिनेवा के प्रोफेसर ड्यूरी ने भी अपने शोध का विवरण प्रकाशित किया। उनके परिणाम भी गेस्परिन से मिलते-जुलते थे। उन्होंने बताया कि कोई अज्ञात शक्ति इसमें कार्य करती है इसे अतीन्द्रिय अथवा आत्मिक शक्ति कहा जा सकता है तदनन्तर प्रोफेसर सर विलियम क्रुक्स ने इस पर अनुसन्धान किया। उनकी विद्वता की साख थी और वे रायल सोसायटी के फेलो गरिमामय पद पर भी थे अतः उन्हें अपने अनुसन्धान से सम्बन्धित प्रयोगों को 1971 तिमाही पत्रिका “जनरल ऑफ साइन्स’ में प्रकाशित करवाना सम्भव हो गया। उन्होंने डेनियल डुँगाहोम जो कि इन अज्ञात शक्तियों का माध्यम था के प्रयोगों का कई बार सफल परीक्षण किया और देखा कि वह कितनी सरलता से बिना स्पर्श किए किसी वस्तु को एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानान्तरित कर देता है।
एक बार अन्य वैज्ञानिकों के सामने क्रूक्स के घर पर एक प्रयोग किया गया इसमें तार के एक पिंजड़े में एक आकार्डियन रखा गया। पिंजड़े में केवल आकार्डियन को छुआ भर जा सकता है। और उसकी चाबियों तक हाथ पहुँचा नहीं जा सकता था । होम के हाथ की गतिविधियों को सब दर्शक देख सकते थे। इन दर्शकों में कई मूर्धन्य भौतिक शास्त्री और वकील भी थे । थोड़ी देर में वह आकार्डियन अपने आप हिलने लगा और थोड़ी देर बाद ध्वनि निकलने लगी। फिर लय और स्वरबद्धता के साथ एक के बाद दूसरे क्रम से कई ध्वनियाँ निकलने लगी। सामान्यतया कोई भी धुन बिना उसकी चाबी को चलाये निकालना सम्भव ही नहीं होती है किन्तु सबने आश्चर्य से देखा कि वाद्य बड़ी मधुर ध्वनि निकाल रहा है। इसके बाद सबके आश्चर्य में और भी वृद्धि तब हुई जब सबने देखा कि आकार्डियन को छूने वाले हाथ को भी पिंजरे में से होम ने निकालकर पास में बैठे एक अन्य व्यक्ति के हाथ में दे दिया और आकार्डियन उसी प्रकार ध्वनित होता रहा । इस प्रयोग में किसी अन्य कृत्रिम दूर सम्प्रेषण माध्यम को तो प्रयुक्त नहीं किया गया है, यह भी परख लिया गया था।
एक अन्य महत्वपूर्ण प्रयोग के बारे में क्रूक्स ने लिखा है कि एक भारी भार तौलने की मशीन के बोर्ड के एक सिरे को छू भर देने से से होम उसके वजन को अधिक अथवा कम करके दिखा देने की पात्रता रखता था जबकि उस मशीन पर स्वयं क्रुक्स के चढ़ने पर उस पर बहुत थोड़ी प्रतिक्रिया हुई। केवल छूने भर से वह भारी मशीन कैसे कम ज्यादा वजन बना सकी यह एक रहस्य ही था। आत्म शक्ति का जड़ पदार्थ को प्रभावित करने वाला वैज्ञानिकों को स्तम्भित कर करने वाला यह एक सफल प्रयोग था।
श्री जे0बी0 रिने उत्तरी अमेरिका के उतरी केरोलिना में ड्यूक विश्व विद्यालय में मनोवैज्ञानिक विभाग में प्रोफेसर के पद पर कार्यरत थे। उनकी पत्नी लुईसा रिने ने अपनी पुस्तक जड़ पदार्थ पर आत्मशक्ति -मनः सम्प्रेषण (माइण्ड ओवर मैटर=सायकोकाइनेनिस) में एक घटना का विवरण दिया है। एक दिन उसके पति के कार्यालय में एक व्यक्ति आया और उसने उनको बताया कि अचानक जुए के खेल में उसे संकल्प शक्ति की क्षमता का आभास हुआ है। वह जुए के खेल में जिस तरह के पासे के अंक वह चाहता है, वैसे ही वह आते हैं। अपनी इच्छानुसार वह पासे को डलवा सकता है। डा. रिने ने उसके कथन को सत्यता की कसौटी पर कसना चाहा और वे उसी कार्यालय के एक कौने में पहुँच गये और उन्होंने पाया कि उसका कथन एकदम सत्य था । संयोग मात्र भी यह नहीं था।
अभी तक लोगों को दिव्य दृष्टि के बारे में ही मालूम था और उसके प्रयोग ताश के खेल में देखे भी गये थे। जिसमें किसके पास कौन से पते हैं यह मालूम हो जाता था अथवा भूमि के गर्भ में कहाँ क्या छुपा है यह भी मालूम हो जाता था। किन्तु भविष्य में क्या होने वाला है । कौन सा पत्ता किसके दाँव में किसके पास पहुँचेगा-इसका एक नया प्रयोग लोगों ने देखा। इस युग के लिये यह एक अजूबा था।
रिने ने फिर इसका एक प्रयोग अपने विश्वविद्यालय के 25 विद्यार्थियों के बीच करवाया, और उनमें से प्रत्येक विद्यार्थी की आकाँक्षा के अनुसार पासों के अंक पाये गये। इनमें से कोई भी अंक गलत नहीं पड़ा। इसमें उनके कथन के अनुसार एक करोड़ प्रयोगों में एक गलत होने की सम्भावना भी नहीं है। यह एक विचित्र किन्तु सत्य तथ्य था।
एक भौतिकी शास्त्री हेलमट श्मिट जो कि ड्यूक विश्वविद्यालय में रिने के स्थान पर आये थे, ने भी प्रेरणा पाकर एक प्रयोग किया। उन्होंने देखा कि रेडियो धर्मी तत्वों की समाप्ति होती रहती है यह एक प्रकृति के नियमों अनुसार सहज रूप में घटित होता ही रहता है। किन्तु उन चार तत्वों के समाप्त होने का क्रम कभी भी नियमित नहीं होता, वह बेतरतीब होता है। कौन सा तत्व समाप्त हुआ यह जानने कौन सा तत्व समाप्त हुआ यह जानने के लिये इसे बिजली के बल्ब द्वारा प्रदर्शित किया जाता है। जो तत्व समाप्त होता है। उसी स्थान पर वह बल्ब जल जाता है। कौन सा बल्ब पहले अथवा बाद में जलेगा इसके बारे में कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती किन्तु यहाँ प्रयोग में प्रो0 श्मिट ने पाया कि उस व्यक्ति ने जैसा क्रम बताया उसी के अनुसार वे बल्ब जलते चले गये ।
सोवियत रूस जो कि ‘आयरन करटेन’ माना जाता है में भी मन सम्प्रेषण पर लेनिन ग्राड की एक महिला नेल्या कुलंगिना पर प्रयोग किये गये है। नेल्या कुलंगिना जर्मनी के आक्रमण के समय उन्नीस वर्ष की आयु से पूर्व ही एक टेक रेजिमेन्ट में सार्जेट के पद पर थी। युद्धं में घायल होने पर सेना से सेवा निवृत्त किये जाने पर उसने विवाह कर लिया और पुत्रवती होकर दादी भी बनी रूसी वैज्ञानिकों ने उसके ऊपर कई वैज्ञानिक परीक्षण किये विलियम ए. मेकगेरे के नेतृत्व में कुछ डाक्टर व अन्य लोगों का एक दल उसकी अतीन्द्रिय क्षमता की जाँच करने पर 1970 गया था। उसने एक होटल में भोजन के टेबल पर रखी हुई वस्तुओं को इस पार से उस पार तक बिना स्पर्श किये केवल ऊपर हाथ घुमाकर ही दिखाया। उसने सिर को गोल-गोल घुमाकर एक अंगूठी को भी बिना किसी धुरी के गोल-गोल घुमाकर प्रदर्शित किया। उसकी एक फिल्म में उसको पिंग पांग की गेंद को ऊपर हवा में उड़ाकर वापस नीचे बुलाते हुए दिखाया है।
इसी प्रकार एक 17 वर्षीय अंग्रेज बालिका जूम कार्लटोन ने भी पिछले दिनों भोजन करने के चम्मच और काँटों को बड़ी सरलता से केवल छूकर उन्हें टेढ़ा करके दिखाया है। इसके प्रयोग सुप्रसिद्ध यूरी गैलर से मिलते जुलते पाये गये पर उनमें कोई ‘फ्राड’ नहीं पाया गया। वस्तुतः यह सब आत्म शक्ति द्वारा जड़ वस्तु को प्रभावित करने की ही घटनाएँ है जो विज्ञान सम्मत ढंग से परिलक्षित किये जाने पर भी खरी उतरी है। मनुष्य की सामर्थ्य का प्रमाण देने वाले उन प्रयोगों की तो अब अनवरत शृंखलाएं चल पड़ी हैं। चाहे ये पाश्चात्य जगत के वैज्ञानिकों के लिये अपने मन समझाने के ख्याल मजबूत करने हेतु किये जा रहे हों, इनकी प्रामाणिकता भारतीय आध्यात्म की मान्यताओं के अनुसार असंदिग्ध है।
यही नहीं समझा जाना चाहिये कि मनुष्य की बौद्धिक क्षमता दूसरों को ज्ञान कराने, प्रभावित करने एवं गति देने में ही समर्थ है। वरन् इस कड़ी में एक नया अध्यात्म और जुड़ना चाहिये कि मानवी चेतना प्रकृति पदार्थों को-सी गति या दिशा दे सकती है। यह कार्य यों श्रम या उपकरणों की सहायता से भी सम्पन्न होता रहता है पर अब यह तथ्य भी प्रकट हो रहा है कि मनुष्य की अविकसित क्षमता को विकसित करके उसके द्वारा पदार्थों को भी प्रभावित एवं परिवर्तित किया जा सकता है।