युग समस्याओं के समाधान में नियन्ता की परोक्ष भूमिका

November 1983

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जिस दिव्य प्रवाह के कन्धों पर युग विभीषिकाओं को निरस्त करने एवं सतयुगी वातावरण वाले उज्ज्वल भविष्य का पथ-प्रशस्त करने की जिम्मेदारी है, उसकी समर्थता और व्यापकता द्रुतगति से बढ़नी ही चाहिए। इस संदर्भ में मत्स्यावतार की पौराणिक गाथा अनायास ही स्मरण हो आती है, जिसने ब्रह्मा के कमण्डलु में अवस्थित छोटे से कीड़े के रूप में जन्म लिया था, किन्तु विस्तार इतनी द्रुतगति से किया कि उसका घड़े में तालाब सरोवर में निर्वाह न हुआ और अन्ततः पूरे समुद्र को अपने कलेवर से भर दिया। इसी संदर्भ में ऋषिवर अगस्त्य द्वारा तीन चुल्लू में समुद्र सोखने की गाथा सामने आ खड़ी होती है। युग विभीषिकाएँ क्या समुद्र जितनी गहरी है और क्या उन्हें कोई अगस्त्य अभी भी सोख सकेगा ? इस प्रश्न का उत्तर समय देगा। क्या समाधान के लिए अवतरित हुए प्रयास आरम्भ अत्यन्त तुच्छ और असहाय दीखने पर भी मत्स्यावतार की तरह द्रुतगति से विश्वव्यापी बन सकेंगे ? इसका उत्तर भी भविष्य के गर्भ में ही सन्निहित है, फिर भी वैसी आशा करने की पूरी सम्भावना प्रज्ञा अभियान की प्रस्तुत प्रगति को देखकर प्रतीत होती है।

बाल्यकाल में भी कृष्ण ने बन्दी ग्रह के प्रहरियों को तन्द्राग्रस्त करके वसुदेव के लिए भादों की उफनती यमुना को सहज तैरने योग्य बनाकर अपनी अलौकिकता का परिचय दिया था। छोटा बालक पूतना, अघासुर, बकासुर कालिया जैसे दैत्यों को खेल-खेल में ही धराशायी बना सके, यह कठिन प्रतीत होता है। फिर भी हुआ। दो बालकों का चाणूर, मुष्टिकासुर, कुवलिया से ही नहीं कंस, जरासिंध जैसों से भिड़ जाना और परास्त करके रहना समझ से बाहर की बात है। वैसे तो यह बात भी सामान्य समझ से बाहर की है कि सामयिक विकृतियों में परिवर्तन सम्भव हो सकेगा। युग प्रवाहों में अवतारों की यही विशेषता रही है कि वे असम्भव को सम्भव बनाते रहे हैं। समुद्र पर पुल बाँधना और उँगली पर गोवर्धन उठाना भी बुद्धि और तर्क का गणित सही सिद्ध नहीं कर सकता।

जान बचाकर ऋष्यमूक पर छिपे हुए सुग्रीव के चरण सेवक हनुमान यदि सचमुच बजरंगबली रहे होते तो अपने स्वामी की वैसी दुर्दशा ने देखते रहते। उनका निजी व्यक्तित्व इस योग्य न था कि लंबा जलाते और पर्वत उठाते। पाण्डव भी निजी रूप में सामान्य थे, अन्यथा क्यों जुआ खेलते, क्यों पत्नी हारते, क्यों उसका लज्जा हरण भरी सभा में देखते और क्यों वनवास की अवधि में जिस-तिस की चाकरी करते छिपते फिरते। किसी तूफान सहचर बनकर ही वे तनिक पत्तों की तरह आकाश में छाये और महाभारत के विजेता कहलाये। ऐसे असम्भवों को सम्भव करना ही अवतार काल की विशेषता रही। बुद्ध की आँधी आई तो उसने देखते-देखते समूचे एशिया का आँगन बुहार दिया। अदालत में बहस करते समय काँपने वाले गाँधी का वही परिवर्तन पराक्रम देखते ही बनता है, जिसमें उन्होंने कोटि-कोटि मानवों में प्राण फूँके और जिनके राज्य में कभी सूर्य अस्त न होता था, ऐसे महाबली अँग्रेजी के पैर उखाड़ दिये। भगवान के चमत्कार इसी रूप में देखे जाते हैं। निराकार को साकार बनने की आवश्यकता नहीं पड़ती। बाजीगर की पर्दे के पीछे उँगलियाँ काम करती रहती हैं और कठपुतलियों का ऐसा नाच बन पड़ता है कि देखने वालों को आश्चर्यचकित होना पड़े।

युग परिवर्तन सामान्य बुद्धि के लिए अति कठिन है। 500 करोड़ मनुष्यों के शिर पर चढ़े हुए अनास्था रूपी असुर द्वारा जिस महाप्रलय का साज सँजोया गया है। उसे देखते हुए हर किसी को आतंकित पाया जाता है। अनौचित्य का आवेश महामारी की तरह समूचे वातावरण को विक्षुब्ध कर रहा है। आस्था संकट ने सुख-शान्ति और प्रगति की बुरी तरह कमर तोड़ दी है। छेड़खानी से क्रुद्ध प्रवृत्ति मदोन्मत्त हाथी की तरह आकाश से कहर बरसाने और सब कुछ कुचल मसलकर रख देने वाला रौद्र रूप धारण किया है। ऐसे अवसर पर महादैत्य की दुरभिसन्धियों को निरस्त करने में किन्हीं महा वाराह या महानृसिंह से ही आशा की जा सकती है।

विकृत मस्तिष्कों को उलट देने ओर देव चिन्तन को स्थानापन्न करने की सामर्थ्य सामान्य साधनों में कहाँ हो सकती है ? ऐसे महान प्रयोजन में परशुराम का फरसा ही अभीष्ट की पूर्ति कर सकता है। जलते धरातल और प्राणि समुदाय की प्यास कुछ बूँदों में बुझती न थी। उसकी परितृप्ति तभी हो सकती थी जब स्वर्ग से उतर कर गंगा धरती पर विचरे। इतने बड़े प्रयोजनों की पूर्ति में बादलों में बाँस से छेद करने की कपोल कल्पना बाल योजना काम नहीं दे सकती। इतना बड़ा कार्य भागीरथ की तप साधना ने ही सम्भव कर दिखाया। प्रस्तुत नरक जैसी विपन्नताओं को स्वर्गोपम सतयुगी सुसम्पन्नता में बदलने के लिए व्यक्ति तो अपनी विवशता भी व्यक्त कर सकते हैं। पर उस सृष्टा को असन्तुलन को सन्तुलन में बदलने के वचन से मुकरना नहीं है। जो बात मनुष्य के वश से बाहर की होती है, उसकी अनिवार्यता देखकर भगवान स्वयं आते और चमत्कारी परिवर्तन कर दिखाते हैं।

विपन्न परिस्थितियां सृष्टि के इतिहास में पहले भी अनेकों बार प्रस्तुत होती रहती हैं। जब मनुष्य द्वारा प्रस्तुत किये बिगाड़ विभीषिका के रूप में प्रकट हुए हैं और सुधार ने अपने को असमर्थ पाया है तो फिर कोई दैवी शक्ति ही उलटे को उलट कर सीधा करने के लिए अन्धकार को चीर कर ऊषा काल की तरह उभरी है। एक बच्चा भी आग का खेल करके खेत खलिहानों को जला देने वाला दावानल प्रकट कर सकता है पर जब उस अग्नि काण्ड को बुझाने के लिए साधारण प्रयत्न काम नहीं करते, तब शक्तिशाली अग्नि शामक दल सशक्त फायर ब्रिगेड सहित अथक परिश्रम से उसे काबू में लाते हैं। जब प्रान्तीय सरकारें ठीक तरह काम नहीं करतीं, तब राष्ट्रपति शासन लागू होता है और केन्द्रीय सत्ता के आधीन नये सिरे से नये निर्धारण होते?, नये कार्यक्रम चलते हैं। प्रस्तुत परिस्थितियों में दैवी उपाय उपचार ही यह आश्वासन प्रदान करते हैं कि निराश न हुआ जाय। आशा बँधाने वाले आधार अभी भी विद्यमान हैं। अन्धकार कितना ही सघन क्यों न हो, प्रभात उससे बड़ा है। जब दिनमान उगता है तो तमिस्रा के पलायन में देर नहीं लगती है भले ही वह कितनी ही काली, डरावनी व्यापक क्यों न हो ?

इस सृष्टि का नियन्ता इस भूमण्डल और मनुष्य समुदाय से कहीं बड़ा और कहीं सशक्त है। इस धरती का निर्माण उसने अपनी सर्वोत्तम कलाकृति के रूप में किया है। मनुष्य को अपनी दृश्यमान प्रतिमा के रूप में गढ़ा है। उसे अपना युवराज और सृष्टि का मुकुट मणि भी बनाया है। यह कैसे हो सकता है कि वह धरती और मानवी सत्ता को इस प्रकार नष्ट हो जाने दे, जिस प्रकार कि वह इन दिनों होती दिखाई पड़ती है। नियन्ता को ऐसी विभिन्नताओं को समय-समय पर आते रहने की जानकारी थी इसलिए उसने सर्वसाधारण को आश्वस्त किया कि विभीषिकाओं का घटाटोप कितना ही सघन क्यों न हो उसे प्रलयंकर न बनने दिया जायेगा। सर्वनाश की घड़ी आने से पहले ही उसे रोक दिया जायेगा, यह सुनिश्चित है।

“यदा-यदाहि धर्मस्य ...................” वाले वचनों में सृष्टा का आश्वासन अभी भी यथावत् विद्यमान है कि अधर्म की बढ़ोत्तरी जब चरम सीमा पर जा पहुँचेगी और सुधार नियन्त्रण मनुष्य के काबू से बाहर प्रतीत होगा तो वे अवतार धारण करेंगे और उलटी परिस्थितियों को उलटकर सीधा करेंगे। यह मात्र वचन ही नहीं तथ्य भी है और प्रमाण भी। ऐसा समय-समय पर होता भी रहा है। भगवान के गत 9 अवतारों एवं भावी अवतार से सम्बन्धित कथाओं में इसी आश्वासन के चरितार्थ होने का सुविस्तृत वर्णन विद्यमान है। भगवान के समयानुकूल अवतरण की आशा पर ही मानवी गरिमा युग-युगान्तरों से जीवित है। अन्यथा राहु केतु का प्रकोप अब तक सूर्य चन्द्र को कब का उदरस्थ कर चुका होता।

स्पष्ट है कि निराकार परब्रह्म स्वयं साकार नहीं हो सकता। सर्वदेशी, सर्वव्यापी, एक देशी, सीमित कैसे बनकर रहे? पवन का घरौंदा किसी घोंसले पर कैसे बने ? सत्य व्यापक एवं निराकार है तो भी उसका सामयिक प्रमाण परिचय हरिश्चन्द्र जैसों के माध्यम से मिलता है। परमात्मा की इच्छा, योजना और प्रेरणा का परिवहन करने के लिए सदा जागृत आत्माओं को अग्रिम भूमिका निभानी पड़ती हे, तो भी वे मात्र निमित्त कारण ही रहते हैं और अपने पराक्रम के अनुरूप श्रेय पाते हैं। इतने पर भी यह स्मरण रखा जा सकता है कि महान कार्यों के लिए महान स्तर का महान पुरुषार्थ करने वालों की उत्पत्ति किसी महान के सूत्र संचालन पर होती है। इन दिनों प्रज्ञा पुत्रों के रूप में वरिष्ठ और विशिष्ट आत्माएँ युग चेतना के अवतरण को धारण करती और उसकी इच्छा योजना को कार्यान्वित करती देखी जा सकती हैं। फिर भी जिन्हें तथ्य तक पहुँचना हो उन्हें यही मानकर चलना चाहिए कि सामान्य बुद्धि तो पेट प्रजनन के चक्र में ही कोल्हू के बैल की तरह जीवन खपा देने को अभ्यस्त है। चौरासी लाख योनियों में रहते रहते जो उसने सीखा है, उसे वह अचानक भुला भी तो नहीं सकता। पानी को ऊँचे से नीचे की ओर बहने की आदत है। ऊपर की ओर उछालने के लिए कोई विशेष शक्ति चाहिए। प्रचलन संकीर्ण स्वार्थपरता का होने की दशा में कोई अनुकरणीय आदर्शों का स्वरूप प्रस्तुत करने में किससे प्रेरणा प्राप्त करे। एकाकी चलने वालों का जिस आस्था पर अडिग विश्वास होता है वस्तुतः उसी को युगावतार का अनुग्रह अनुदान कहना चाहिए। ऐसा सुयोग सौभाग्य इन दिनों प्रज्ञा पुत्र अर्जित करते दीखते हैं।

प्रभात की पूर्व सूचना सर्व साधारण को देने के लिए अग्रिम भूमिका निभाने का काम मुर्गी सम्पन्न करता है, तो भी वह प्रभात नहीं है। सूर्य की प्रथम किरण पर्वत शिखरों पर चमकती है तो भी इन शिखरों को किरण नहीं कहा जाता। अवतार तो प्रेरणा प्रवाह का नाम है। जागृत आत्माएँ समय को पहचानती और विजेता के साथ लगकर सहज श्रेय पाने का सौभाग्य दिलाने वाली दिव्य मेधा का- महाप्रज्ञा का अवलम्बन बिना आना कानी किये ग्रहण करती है। अवतारों की क्रिया परम्परा इसी रूप में सम्पन्न होती रही है। दिव्य प्रेरणाओं का परिवहन ऋषि कल्पों एवं महामानवों द्वारा सम्पन्न होता रहा है। उसी की पुनरावृत्ति इन दिनों भी होती देखी जा सकती है। युग परिवर्तन में निरत युग शिल्पियों की साहसिकता, तत्परता और सफलता को देखते हुए यह समझने में भी किसी को कठिनाई नहीं होनी चाहिए। कि ऐसी आदर्शवादिता का परिचय दे सकना किसी महान सत्ता का ही कार्य है। इतना अवश्य कहा जा सकता है कि इस महानता का प्रत्यक्ष स्वरूप उच्चस्तरीय व्यक्तित्वों द्वारा ही प्रस्तुत किया जाता है।

बिजली एक व्यापक प्राकृतिक शक्ति है, तो भी उसका प्रत्यक्षीकरण बल्ब, पँखे, हीटर, कूलर आदि की गतिविधियों को देखकर ही किया जाता है। ये उपकरण स्वयं में बिजली नहीं है तो भी उस शक्ति के परिवहन की विशिष्टता का परिचय देकर उपयोगी सिद्ध होते और श्रेयाधिकारी बनते हैं। वरिष्ठ प्रज्ञा पुत्रों को तनिक सा श्रेय साहस अपनाने पर जो आत्म सन्तोष लोक सम्मान और दैवी अनुग्रह का त्रिविध लाभ मिल रहा है उसका अनुसरण न बन पड़े तो भी विवेक साहस एवं कौशल की सराहना तो करनी ही चाहिए। समय निकल जाने पर सुयोग खो देने का पश्चाताप तो कितने ही करते रहते हैं, पर प्रशंसा उनकी है जो ऐसे सुयोगों को सौभाग्य मानते। युग धर्म कहते और उसे किसी भी मूल्य पर हाथ से नहीं जाने देते।

दैवी प्रयोजनों में छोटी छोटी भागीदारी लेकर भी अनेकों ने असाधारण लाभ अर्जित किये हैं। सुग्रीव विभीषण ही नहीं केवट, शबरी और गिलहरी भी छोटे बड़े सहयोग देकर कृतकृत्य हो गये। स्वतन्त्रता सैनिकों में से अनेकों को सत्त, पेन्शन एवं जन प्रशस्ति का लाभ मिला है। नरसी मेहता, सुदामा क्या घाटे में रहे ? बुद्ध अशोक, शंकराचार्य, मान्धता, समर्थ रामदास-शिवाजी, रामकृष्ण विवेकानन्द, प्रताप भामाशाह, विरजानन्द-दयानन्द, चाणक्य-चन्द्रगुप्त, गाँधी, बिनोवा आदि के ऐसे अनेकों युग्म भी हैं जिन्होंने मिल जुलकर युग चेतना का परिवहन किया और घाटे के सौदे में हाथ डालकर भी प्रचुर वैभव उपार्जित करने में सफल रहे। यह बीज सा गलने और वृक्ष सा फलने जैसी दूरदर्शिता जिन्हें भी उपलब्ध हुई है वे अनन्तकाल तक अपनी आत्म प्रेरणा को ईश्वर की प्रत्यक्ष अनुकम्पा मानते और सदा सर्वदा असीम उल्लास के साथ उसका स्मरण करते रहे हैं।

प्रज्ञा पुत्रों का समुदाय ही इन दिनों प्रज्ञा अभियान का युक्तिपूर्ण सूत्र संचालन कर रहा है। विजयी तो सेना की देशभक्ति और साहसिकता ही होती है। चर्चा पड़े। प्रज्ञा अभियान की युगान्तरीय चेतना एक प्रकार की आँधी है जिसमें सहभागी बनकर तिनके पत्ते और धूलिकण भी गगनचुम्बी भूमिका निभाते देखे जा सकते हैं। युग चेतना एक बाढ़ है जिसके साथ चल पड़ने वाला कूड़ा करकट भी लहरों पर सवारी गाँठकर महासागर तक बिना प्रयास ही जा पहुँचने का आनन्द लाभ प्राप्त कर लेता है। आत्म पूँजी में इतना बड़ा श्रेय लाभ लेने वाले युग शिल्पियों की तुलना लाटरी जीतने वालों से ही की जा सकती है। लागत कम और मुनाफा अधिक मिलने के कारण व्यवसाय अवसर तलाशने में तो कोई कोई सफल होते हैं, पर प्रज्ञा पुत्रों के समुदाय को यह लाभ सर्वत्र मिल रहा है या मिलने के आसार बन रहे हैं।

युग सृजन में संलग्न होने और असीम श्रेय पाने के व्यवसाय में तनिक सी पूँजी लगती है। औसत भारतीय स्तर का निर्वाह स्वीकार करने मात्र से हर घड़ी जी को जीने वाली तृष्णा, महत्वाकांक्षा की आग पर ही पानी डालना पड़ता है। इसके उपरान्त समाधान हो जाता है। अन्न, वस्त्र की निर्वाह आवश्यकता जुटाने में जब केंचुए जैसे बिना हाथ, पैर, आँख, कान वाले प्राणी सफल हो जाते हैं तो मनुष्य ही क्यों भूख रहेगा ? परिवार को स्वावलंबी और सुसंस्कारी भर बनाने और उसका विस्तार सीमित रखने की सूझबूझ काम कर सके तो फिर किसी को भी यह न कहना पड़ेगा कि वह परिवार पोषण की व्यवस्था से पिसा जा रहा है और युग धर्म के निर्वाह हेतु कुछ भी कर सकने में असमर्थ है।

इस समय का सुयोग, परिवर्तन का सौभाग्य, मानव गरिमा का नव जागरण, दैवी चमत्कार आदि कुछ भी कहा जा सकता है कि इस विषम बेला में प्रज्ञा पुत्रों की भागीरथी आराधना चल पड़ी है। वे बसन्ती फूलों की तरह खिलते ओर लदते चले जा रहे हैं। आशंका थी कि इस घोर स्वार्थपरता के माहौल में वे उगेंगे नहीं बढ़ेंगे पनपेंगे नहीं, पर वह असमंजस अब दूर होता जा रहा है। प्रज्ञा परिजनों के रूप में युग शिल्पियों का एक नया समुदाय न केवल संख्या की वरन् स्तर की दृष्टि से भी युग चुनौती स्वीकारने के लिए अदृश्य आमन्त्रण के सहारे कार्य क्षेत्र में आ खड़ा हुआ है और कुछ कर गुजरने जैसा पराक्रम प्रकट कर रहा है।


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