हम एकता और एकात्मता की दिशा में बढ़ चलें

November 1983

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समर्थता कितनी है बढ़ी - चढ़ी क्यों न हो पर यदि वह भटकाव एवं बिखराव के कारण अस्त-व्यस्त होती रहेगी तब उससे कोई कहने लायक प्रयोजन पूरा न हो सकेगा। प्रकृतिगत शक्तियों के बिखरी रहने पर वे ऐसे ही अस्त-व्यस्त स्थिति में बनी रहती हैं, पर यदि उन्हें केन्द्रित कर दिया जायगा तो आतिशी शीशे द्वारा एकत्रित की गई किरणों की तरह अपनी प्रखरता की परिचय देने लगती हैं। भाप को केन्द्रित करके चलने वाले कई जन और नली में केन्द्रीभूत तनिक-सी बारूद से निशाना बेधने वाले अग्नेयास्त्र यह बताते हैं कि एकत्रीकरण और सुनियोजन के कैसे चमत्कारी परिणाम हो सकते हैं ?

उदाहरण के लिए हर मनुष्य में रहने वाली श्रम शक्ति को लिया जा सकता है वह मात्र निर्वाह उपार्जन भर के काम आती है, किन्तु आदि उसे संगठित और दिशाबद्ध किया जा सके तो इतने बड़े काम सम्पन्न हो सकते हैं जिनकी सम्भावना पर साधारणतः विश्वास भी न किया जा सके।

अब से कोई ढाई हजार वर्ष पूर्व चीन असंगठित और अस्त-व्यस्त स्थिति में था। प्रजाजनों को हूण नामक एक बर्बर जाति के आक्रमणों का शिकार होना पड़ता था। प्रतिरोध योजनाबद्ध न होने से प्रायः असफल रहता और जनसाधारण को धन, जन की भारी क्षति आये दिन उठानी पड़ती।

इस बीच एक विचार उस देश में उभरा कि उत्तरी क्षेत्र में एक मजबूत सुरक्षा दीवार खड़ी की जाय। यह कार्य पीले समुद्र से आरम्भ होकर पेडपिंग होता हुआ मध्य एशिया की गोवी मरुभूमि तक सम्पन्न होना था। शासन के कोष में न इतना धन था और न कर्मचारी कौशल जो इतने विशाल काय निर्माण का साहस कर सके। जन नेताओं ने यह उत्तरदायित्व अपने कन्धों पर उठाया। प्रस्तावित योजना कार्यान्वित हुई और पत्थरों चट्टानों से बनी 1500 मील लम्बी दीवार के लिए विपुल जन-शक्ति तथा धनशक्ति उपलब्ध होना आरम्भ हो गया। दीवार की ऊँचाई जमीन से 30 फुट ऊँची है। उसके ऊपर बने रास्ते की चौड़ाई 15 फुट है ताकि युद्ध के समय सैन्य दल का आवागमन भली प्रकार होता रहे। उस मार्ग में 100 गज के फासले पर सैनिक बचाव के लिये किले बन्दी जैसी मीनारों का भी निर्माण हुआ है।

पुरातत्व वेत्ताओं का मत है कि इजिप्ट में बना गीजा का विशाल पिरामिड ईसा के 2500 वर्षों पूर्व विनिर्मित हुआ था। उस समय लोगों को चक्का घिरनी आदि तक की जानकारी न थी। पिरामिड के निर्माण में मन्त्रशक्ति का नहीं जनशक्ति का अधिक योगदान है। पिरामिड क्षेत्र लगभग 15 एकड़ में फैला हुआ है। इसमें चूना, पत्थर व ग्रेनाइट के 23 लाख विशाल खण्ड लगे हैं। दुर्लभ पाषाण खण्डों को ढूंढ़कर लाने में कष्टसाध्य श्रम करना पड़ा क्योंकि भारी प्रस्तर खण्डों को लाने के लिए आज जैसे साधन उन दिनों उपलब्ध नहीं थे। वह कार्य मात्र जन शक्ति के सहयोग से ही सम्भव हो सका।

ग्रीक के राजा खूफू के शासन काल में उसी प्रकार का एक विशाल मकबरा जनसहयोग से बनवाया गया। कहा जाता है कि उस पिरामिड जैसे मकबरे का निर्माण 20 वर्षों में सम्पन्न हुआ तथा निरन्तर एक लाख व्यक्ति उस निर्माण कार्य में संलग्न रहे। पिरामिड की ऊँची गगन-चुम्बी प्रासाद जैसी दूर से ही दृष्टिगोचर होती है। इस निर्माण का कला-कौशल व अन्दर विनिर्मित गुह्य गृह उनमें पहुँचने का मार्ग तथा वायु प्रवेश की सुव्यवस्था बताते हैं कि इन्हें बनाने में मात्र श्रम ही नहीं, कलात्मक बुद्धि का भी भरपूर उपयोग हुआ है।

अमेरिका में न्यूयार्क से सनफ्राँसिस्को केप हार्च का रास्ता उन दिनों 13 हजार मील लम्बा पड़ता था। दो समुद्रों का मिलाने के लिए एक नहर खोदने की योजना बनी और वह संकल्प पनामा नहर के रूप में सन् 1714 में पूर्ण हुआ। अब वह दूरी 13 हजार मील से घटकर मात्र 5 हजार मील रह गई है। स्वेज नगर के निर्माण का इतिहास भी ऐसा ही है जिसने पूर्व और पच्छिम की एक शृंखला में जोड़ने का बहुत बड़ा काम कर दिखाया।

इस कार्य में 16 वर्ष लगे। इसमें सरकारी प्रयासों की तरह प्रचुर जन सहयोग भी नियोजित रहा है। हजारों स्वयं-सेवकों ने नाम मात्र के निर्वाह पर कठोर तम श्रम किया है। 110 डिग्री फारेनहाइट तापमान रहने पर भी उत्साही स्वयं सेवक औसतन 10 घंटा श्रम करने में बिना मुंह मलीन किये निरन्तर जुटे रहे। 1711 के एक दिन का कीर्तिमान 1,66,000 टन मिट्टी तथा पत्थर हटाने का है। जनवरी 1713 में भयंकर भूस्खलन के बावजूद श्रमिकों का इस उत्साह के कचरा साफ करने का परिश्रम भी ऐसा ही है जिसकी तुलना नहीं हो सकती।

श्रम शक्ति की तरह ही भाषाओं और धर्मों की दो सामर्थ्य ऐसी हैं जो मानवी ज्ञान और चरित्र को प्रभावित करने की असाधारण क्षमताओं से सुसम्पन्न है। भाषाओं के आधार पर विचारों का आदान-प्रदान बन पड़ता है और धर्मों का भावनात्मक एकीकरण के साथ सीधा सम्बन्ध है। यदि उनके बीच बिखराव न हो केन्द्रीकरण बन पड़े तो मानवी मस्तिष्क एवं अन्तःकरण को इसका असाधारण लाभ मिल सकता है। भाषाओं की अनेकता यदि दूर हो सके, लोग एक भाषा बोलें व वार्त्तालाप, पत्र-व्यवहार का नया द्वारा खुले और प्रकाशित होने वाला साहित्य देखते-देखते संसार भर से सर्वसुलभ बन पड़े। इतना ही नहीं अधिक संख्या में छपने के कारण सस्ता भी बिके।

एक भाषा में कोई महत्वपूर्ण तथ्य प्रकाशित हो तो उसका लाभ अन्य भाषा भाषी तभी उठा सकेंगे जब वह अनुदित होकर उस भाषा में भी छप सके। इतना न बन पड़े तो उस ज्ञान का लाभ मात्र उसी भाषा वालों को मिलेगा जिसमें वह प्रकाशित हुआ था। अनेक भाषाओं के अक्षर बनाने-जोड़ने में जो असाधारण व्यय होता तथा झंझट पड़ता है वह एक लिपि का प्रचलन होने पर सहज ही समाप्त हो सकता है। इसके साथ ही संसार के किसी भी क्षेत्र का व्यक्ति कहीं भी जाकर वार्त्तालाप कर सकता है, आदान-प्रदान का क्षर खेल सकता है जब कि अन्य भाषा भाषी क्षेत्रों में जाकर उसे गूँगे बहरे की तरह अपने आपको अपंग असहाय अनुभव करना पड़ता है।

विश्व भर में 2796 भाषाएँ प्रचलित हैं तथा अनेकों प्रकार की बोलियाँ बोली जाती हैं। पाँच अब से भी अधिक विश्व के लोग औसतन 15-15 लाख व्यक्ति एक भाषा के उपयोग कर्त्ता है।

चीनी भाषा के बोलने वाले विश्व में सर्वाधिक हैं, इनकी संख्या 80 करोड़ है। दूसरा स्थान अँग्रेजी भाषा का है। अनुमानतः 35 करोड़ व्यक्ति अंग्रेजी बोलते हैं। 20 करोड़ व्यक्तियों की बोलचाल की भाषा हिन्दी है। लगभग इतनी ही संख्या रूसी भाषा के प्रयोक्ताओं की है। 15 करोड़ व्यक्ति जर्मन और फ्रेंच भाषा में बातचीत करते हैं। स्पेनी भाषा के संपर्क में 20 करोड़ व्यक्ति हैं। लगभग 12 करोड़ व्यक्तियों की भाषा जापानी है। 10 करोड़ व्यक्ति अरबी भाषा-भाषी हैं। इतनी ही संख्या पुर्तगाली भाषाइयों की है। 8 करोड़ के लगभग लोग इटालियन भाषा का प्रयोग करते हैं।

भारत में 600 प्रकार की भाषाएँ प्रचलित हैं। प्रमुख भाषाओं के प्रयोक्ता इस प्रकार हैं-हिन्दी-20 करोड़, तेलगू-5 करोड़, मराठी-3 करोड़, बंगला-3 करोड़, तामिल-3 करोड़ 20 लाख, गुजराती-2 करोड़, मलयालम-डेढ़ करोड़, पंजाबी-गुरुमुखी-1 करोड़ मारवाड़ी-50 लाख कश्मीरी-150 हजार, राजस्थानी 30 लाख, कन्नड़ 25 लाख, उड़िया-20 लाख मेवाड़ी-20 लाख उर्दू -1 करोड़ अन्य भाषाओं के आंकड़े भी अप्राप्य किये गये हैं। इनके अतिरिक्त अन्य अनेक भाषाएं भी विभिन्न क्षेत्रों में बोली जानी हैं, इन 600 भाषाओं में से 58 भाषाओं का उपयोग विभिन्न प्रान्तों में शैक्षणिक कार्यों में किया जाता है।

संसार भर में प्रचलित धर्म सम्प्रदायों की गणना प्रायः 600 है। इसमें कबायली सम्प्रदाय सम्मिलित नहीं है क्योंकि वे छोटे-छोटे वर्गों और थोड़े-थोड़े क्षेत्रों में है प्रचलित हैं। प्रख्यात धर्मों में ईसाई, मुसलिम, हिंदू, बौद्ध, पारसी आदि हैं। इनकी शाखा-प्रशाखाओं के रूप में ही अन्य सम्प्रदायों ने अपना पृथक् ढाँचा खड़ा किया है। अकेले हिन्दू धर्म के अंतर्गत विज्ञात जानकारी के अनुसार प्रायः 3800 सम्प्रदाय हैं। अन्य धर्मों में यह बिखराव इतना अधिक नहीं है।

भारत के प्रमुख धर्मों की जन गणना की संक्षिप्त जानकारी इस प्रकार है। सन् 1781 की जन गणना में अनुमानतः कुछ 68 करोड़ जनसंख्या में हिन्दू 82 प्रतिशत, मुसलमान 12 प्रतिशत और ईसाई 6 प्रतिशत थे।

सन् 1881-2941 की मध्यावधि में मुस्लिम जनसंख्या में 86 प्रतिशत की तथा ईसाई जनसंख्या में 318 प्रतिशत की वृद्धि हुई, जबकि हिन्दू मात्र 44 प्रतिशत ही बढ़े। तुलनात्मक औसत वृद्धि दृष्टि से इस 60 वर्षों में पूरे भारत में 56 हिन्दू प्रति हजार घटे और 43 मुस्लिम प्रति हजार बढ़े।

विभाजन के पश्चात् 1951 में हिन्दू-85 प्रतिशत, मुस्लिम-9.91 प्रतिशत तथा ईसाई-2.35 प्रतिशत थे। 1961 की जनगणना के अनुसार हिन्दू 83.50 प्रतिशत, मुस्लिम-10.70 प्रतिशत तथा ईसाइयों की 2.44 प्रतिशत हो गई।

धर्म सम्प्रदायों के इस बिखराव से बौद्धिक और भावनात्मक खाई ही उत्पन्न होती है। कई बार तो कट्टरता के आवेश में इनके अनुयायी अपने धर्मात्मा और अन्यान्यों को अधर्मी ठहराते देखे गये हैं। इतना ही नहीं बलपूर्वक वशवर्ती या पक्षधर बनाने के लिए अत्याचार रक्तपात तक करने में सान्निद्ध तक देखे गये हैं। इन बिखरावों में पृथक-पृथक धर्म संस्थानों की, ग्रन्थों एवं कर्मकाण्ड की विविधता सामने आती है जिसमें असीम धन, श्रम, समय ऐसे ही निरर्थक अस्त-व्यस्त होता रहता है।

एकता अपने समय की सबसे बड़ी माँग है। इसमें हर दृष्टि से दूरदर्शिता है। शक्तियों को एक दिशा में नियोजित करने का प्रतिफल संयुक्त श्रम के रूप में चमत्कारी प्रतिफल प्रस्तुत कर रहा है। आवश्यकता इस बात की भी है कि भाषाओं और धर्मों को भी एक केन्द्र पर केन्द्रित होने-एक लक्ष्य अपनाने और मिल-जुलकर काम करने के लिए सहमत किया जाय। भाषायी सम्प्रदायी बिखराव को समेटने की और अब विज्ञजनों का ध्यान जाना चाहिए। इस आधार पर उत्पन्न होने वाली एकात्मता के आधार पर नव सृजन का प्रयोजन पूरा करने में असाधारण योगदान को सकता है। तथ्य को समझते हुए इस दिशा में सोचा ही नहीं कुछ किया भी जाना चाहिए। धर्माध्यक्ष इसे नहीं करते तो जनशक्ति को इस पुण्य प्रयोजन हेतु आगे आना चाहिए।


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