युग परिवर्तन परिकल्पना नहीं - सुनिश्चित सम्भावना

November 1983

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प्रज्ञा पुत्रों ने युग अवतरण के रूप में प्रज्ञा अभियान को युगान्तरीय चेतना को समझा और अपनाया है। ऐसे लोगों की मान्यता को क्रमशः बल ही मिलता आया है। प्रमाण परिणामों ने उनके विश्वास की पुष्टि की है। इन थोड़े से दिनों में सीमित साधनों से जितना कुछ कर सकना सम्भव हुआ हे उसका पर्यवेक्षण करने पर सभी गणितीय आधार गलत सिद्ध हो जाते हैं। सभी जानते हैं कि ऊँचे अनुभव, निष्णातों का सहयोग और समुचित साधनों का त्रिविधि सुयोग मिलने पर ही कोई बड़ी योजना चलती और सफल होती हे, पर जहाँ इन तीनों का अभाव हो वहाँ भी चमत्कारी परिणतियाँ सामने हो तो फिर उसी दैवी संयोजन का स्मरण करना पड़ेगा जिसके रहते “मूक होंहि वाचाल, पंगु चढ़हि गिरवर गहन” की उक्ति चरितार्थ होती है। इतने स्वल्प समय में, इतने स्वल्प साधनों में प्रज्ञा अभियान की हर क्षेत्र में हर घड़ी प्रकट होने वाली उपलब्धियों का सम्भव हो सकना सामान्य कार्य कारण सिद्धान्त के अनुसार सही नहीं बैठेगा। छोटे-मोटे प्रयासों की बिखरी हुई परिणतियों का लेखा जोखा ले सकता तो सम्भव नहीं पर बड़े प्रयासों से मिली बड़ी सफलता जो सर्वविदित है, उनका स्मरण तो सहज ही किया जा सकता है।

बीस लाख प्रज्ञा परिजनों के समुदाय में एक लाख वरिष्ठ प्रज्ञा पुत्रों की सृजन शृंखला किन प्रयत्नों के आधार पर बन सकी, इसका एक ही उदाहरण है-वर्ष होते ही सूखी धरती पर एकाध सप्ताह के भीतर ही हरीतिमा की मखमली चादर बिछ जाती है। और उद्भिजों का समुदाय इतनी तेजी से प्रकट होता है मानों वे आकाश से बूँदों के साथ ही बरस पड़े हो।

प्रज्ञा अवतरण के लिए प्रथम सृजन और बड़ा प्रकटीकरण तन्त्र चाहिए। यह कहाँ से जुटा इसका उत्तर सामान्य बुद्धि के पास नहीं है। व्यास और गणेश से मिलकर अठारह पुराण रचे थे। पर उससे अनेक गुण समूचा आर्ष साहित्य जन-जन के सम्मुख प्रस्तुत कर देने में एक की लेखनी समर्थ हो गयी। इससे मानवी क्षमता की संगति कैसे बैठे? ईसाई मिशनों में अरबों-खरबों की पूँजी और लाखों करोड़ों की जनशक्ति मिलकर जितनी उपलब्धियाँ अर्जित कर सकीं, उसकी चुनौती मिट्टी के तेल वाली लैम्प के बीच बैठकर रात-रात भर लिखने वाली नगण्य सी समझी जाने वाली लेखनी कैसे कर सकी इसे कौर किसको समझाये और किस तरह इस अनबूझ पहेली को सुलझाये ?

धर्म तन्त्र को पुनः जीवित करने के लिए 2400 प्रज्ञा पीठों का निर्णय दो वर्ष के अंतर्गत हो जाना कितना कठिन रहा होगा। उसका उत्तर इस दिशा में योजना बनाने वाले विहारों संघारामों का ढाँचा खड़ा करने वाले बुद्ध अशोकों से चारों धाम खड़े करने वाले मान्धाता शंकराचार्य और निर्माण जीर्णोद्धार का ताना बाना बुनने वाली अहिल्याबाई जैसों से ही उतर प्राप्त किया जा सकता है।

जन-जागृति के लिए जन-संपर्क, जन संपर्क के लिए जन समर्थन, जन समर्थन से जन सहयोग उपलब्ध करने से ही यह सम्भव है कि जन-मानस का परिष्कार और सत्प्रवृत्ति संवर्धन करते हुए मनुष्य में देवत्व का उदय एवं धरती पर स्वर्ग अवतरण का समग्र विश्व कल्याण प्रयोजन पूरा किया जा सके। इस निमित्त कभी धर्म प्रचार की पदयात्रायें निरन्तर चलती थी। सुयोग्य युग पुरोहितों के नेतृत्व में धर्म प्रेमियों की मण्डलियाँ गाँव-गाँव पहुँचती और कथा कीर्तन के आधार पर जन-जन को धर्म धारणा जीवन्त रखती थीं। घर-घर अलख जगाने का उपक्रम भी इसी आधार पर गतिशील रहता था। उस जराजीर्ण मृत परम्परा को अब नये सिरे से पुनर्जीवित किया गया है। पदयात्राएँ भी जब तब किन्हीं राजनैतिक संस्थाओं द्वारा आत्म-ख्याति और जन आकर्षण के लिए की जाती है पर धर्म प्रचार की तीर्थ यात्राओं का जहाँ तहाँ क्षेत्र विशेष की पर्व परिक्रमाओं के रूप में जब तब जहाँ तहाँ छोटा सा स्वरूप दीख पड़ता है। वह प्रवाह एक प्रकार से अवरुद्ध ही हो गया जिसके द्वारा भारतीय जन-मानस में देव संस्कृति ने जड़ जमाई थी और जिसका लाभ समस्त में देव संसार ने उठाया। सन्तकाल तक यह परंपरा जीवित रही। भगवान बुद्ध ने इस प्रक्रिया को धर्म चक्र प्रवर्तन के हेतु अपने ढंग से कार्यान्वित किया और प्रायः एक लाख धर्म भिक्षु दीक्षित करके देश देशान्तरों में भेजे।

इसी हेतु उनके संकेतों पर नालन्दा और तक्षशिला में दो विश्व विद्यालय विनिर्मित किये गये। नालन्दा में भारत के भाषाई क्षेत्रों के लिए और तक्षशिला में संसार भर के भाषा भाषी क्षेत्रों के आधार पर युग प्रवक्ता तैयार किये जाते थे। उस महा क्रान्ति ने अपने यौवन काल में संसार की काया पलट दी थी जो समय की आवश्यकता देखते हुए उन दिनों अनिवार्य भी थी।

उसी बुद्ध परम्परा का उत्तरार्ध इन दिनों प्रज्ञा अभियान द्वारा सम्पन्न किया गया है। सहस्रों पदयात्रा टोलियाँ जीपों, मोटर साइकिलों, साइकिलों पर आवश्यक साधन उपकरण लादकर गाँव-गाँव पहुँचने लगी। युग कीर्तन और प्रज्ञा पुराण प्रवचनों द्वारा जन-मानस को झकझोरती और समय के अनुरूप बदलने के लिए संपर्क क्षेत्र को वह अवगत अनुप्राणित कर रही हैं। हर दिन लाखों व्यक्ति इस आधार पर अभिनव आलोक से दिशा प्राप्त करते और युग परिवर्तन के परिवर्तन प्रवाह में सम्मिलित होते हैं।

युग शिल्पियों का उत्पादन बौद्ध भिक्षुओं और ईसाई प्रचारकों की तरह संख्या और स्तर की दृष्टि से इतना हो रहा है, जिस पर गर्व नहीं तो सन्तोष अवश्य ही किया जा सकता है। भाषाई क्षेत्रों में काम करने वाले विभिन्न धर्म-संस्कृतियों के अनुरूप प्रचार प्रतिपादन करने वाले युग पुरोहितों का निरन्तर उत्पादन प्रशिक्षण शान्ति कुँज गायत्री तीर्थ में होता रहता है कभी इस प्रयोजन के लिए तीर्थ आरण्यकों द्वारा महती भूमिका सम्पन्न की जाती थी अब सीमित किन्तु तीखे रूप से उसी पुण्य प्रक्रिया की गायत्री तीर्थ हरिद्वार में अभिनव प्राण प्रतिष्ठा की गई है। यहाँ जन साधारण के लिए आत्म शोधन और आत्म परिष्कार की सामयिक साधना व्यवस्था भी वैसी ही उपलब्ध है, जैसी कि थके माँदों को सेनिटोरियमों में राहत मिलती है।

बुद्ध शरणं गच्छामि धम्मं शरणं गच्छामि संघ शरण गच्छामि के पुरातन उद्घोष अब बौद्धिक क्रान्ति नैतिक क्रान्ति और सामाजिक क्रान्ति के रूप में नये सिरे से नई समस्याओं के संदर्भ में कार्यान्वित होते देखे जा रहे हैं। यह बस कैसे हो रहा है, इसकी पृष्ठभूमि में तो हर्षवर्धन, बिम्बिसार, अशोक जैसे श्रीमन्त और आनन्द मौदगल्यायन, कुमार जीव जैसे महाप्राज्ञ भी नहीं है, फिर भी उपहासास्पद गणेश वाहन मूषक किस प्रकार विश्व परिक्रमा की चुनौती जीतने निकल पड़ा इसे टिटहरी के समुद्र पाटने जैसे दुस्साहस की संज्ञा दी जाय तो तनिक भी अत्युक्ति न होगी।

भौतिक विज्ञान झाग की तरह उफना तो सही, पर बबूले की तरह बैठने में उसे देन भी नहीं लग रही है। लकड़ी, कोयला तेल जैसे ईंधन समाप्त होने के गिने चुनो रह गये। अब वह दिन निकट है, जब बैल गाड़ियों द्वारा मोटरें खींची जाया करेगी, और रेलवे इंजन रेल के टीलों की तरह जहाँ तहाँ खड़े दिखाई देंगे। मनुष्य को अतिशय विलासी अहंकारी, और उद्दण्ड बनाने के उपरान्त अब वह अणु आयुधों, विकिरणों द्वारा हिरण्याक्ष की तरह धरती को रसातल में पहुँचा देने की योजना बना रहा है। चरम सीमा तक पहुंची हुई कृत्रिमता तथार्थता को निगल जाने के प्रयास में साँप छछून्दर जैसे असमंजसों में फँस गई है। विज्ञान का भस्मासुर न जाने कब क्या कर बैठे, इस आशंका से सर्वत्र आतंक छाया दीखता है।

इस असमंजस की बेला में ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान ने शक्ति भण्डार के उच्चस्तरीय तीन शक्ति स्रोत खोज निकालने का निश्चय किया है। एक मानवी अन्तराल की उत्कृष्टता योगाभ्यास द्वारा मन्त्र शक्ति के माध्यम से अतीन्द्रिय क्षमता के रूप में एक ऐसी प्राण ऊर्जा सिद्ध हो सकती है, जिससे अन्तरिक्ष पर आधिपत्य स्थापित किया जा सके। दूसरा मानवी काय कलेवर में काम करने वाली विद्युत शक्ति को कुण्डलिनी शक्ति के रूप में इस प्रकार सर्व सुलभ बनाने का प्रयास जिससे भूलोक में कहीं भी सामर्थ्य की कमी न रहे। मानव शरीर ही बहुमूल्य यन्त्रों की भूमिका निभाने लगे और सामर्थ्य के अभाव में कहीं किसी का काम रुके नहीं। तीसरा पदार्थ की अदृश्य शक्ति को अग्निहोत्र के सहारे इस योग्य बनाया जा रहा है कि वह इस धरातल को सरसता प्रदान करने वाले समुद्र की तरह विभूतियों की अक्षय भण्डार सिद्ध हो सके, शारीरिक और मानसिक रोगों पर विजय पायी जा सके। आकाश से सम्पदा का भण्डार प्राणपर्जन्य के रूप में बरसाया जा सके, और प्रस्तुत प्रदूषण को नील कण्ठ की तरह पचाकर विनाश के महासंकट से त्राण दिलाया जा सके। ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान के उपरोक्त तीन संकल्प यदि पूरे होते हैं, तो यह भी कहा जा सकता है, कि भौतिक विज्ञान के अद्यावधि बन पड़े प्रयासों की तुलना में यह अकेला ही कहीं अधिक भारी बैठेगा।

इतनी बड़ी भूमिकाएँ पिछले दिनों किसी प्रकार सम्पन्न हुई ? उनका उत्तर श्रम, कौशल, और साधनों की मात्रा के आधार पर लगाने से किसी भी प्रकार नहीं मिल सकता। सन् 1965 में सम्पन्न हुआ मथुरा का सहस्र कुण्डी गायत्री महायज्ञ अभी भी लोगों की स्मृति में है, जिसमें देश के चुने हुए 4 लाख प्रगतिशील धर्म परायण व्यक्ति एकत्र हुए थे और मिशन का ढाँचा खड़ा किया गया था। इतने लोगों के लिए निवास भोजन, सफाई आदि की बहुमुखी व्यवस्था में कितना श्रम और कितना धन लगा था। इसे देखकर दर्शकों की आंखें फटी रह गयी थीं। कर्ता की योग्यता और क्षमता के साथ इतने बड़े सरंजाम की कोई संगति न बैठते देखकर हर किसी ने उसे दैवी चमत्कार कहा था। वह दृश्य घटना थी अदृश्य योजनाओं, उनकी गतिविधियों, प्रतिक्रियाओं और सफलताओं की जिन्हें निकटवर्ती जानकारी है वे अभी भी यह अनुभव करते हैं कि इसके पीछे कोई अदृश्य सत्ता का नियमन होना चाहिए।

मिशन की अगणित गतिविधियों के निमित्त पग-पग पर अर्थ साधनों की आवश्यकता पड़ती थी। इसका स्रोत दस-दस पैसे जमा करने वाले ज्ञान घट और एक-एक मुट्ठी अनाज संग्रह करने वाले धर्मघट हो सकते हैं इस बार पर कौन विश्वास करेगा ? जन-सहयोग की व्यवस्था और गम्भीरता रहने पर बूँद बूँद सहयोग से घड़ा भर सकता है यह बात लोकोक्ति के रूप में ही सुनी गयी है। किसी ने अब तक इसका प्रयोग नहीं किया। ऐसे संग्रह की कल्पना तो कई करते रहे हैं पर किसी ने उसे व्यवहार में उतारा हो और इस स्तर तक सफल बनाया हो, यह अब तक कहीं भी देखने में नहीं आया लोगों श्रीमन्तों के सम्मुख पल्ला पसारते रहे। सरकारी सहायता के लिए ताने बाने बुनते रहते हैं, पर जन शक्ति के सहारे इतना सुदृढ़ ढाँचा खड़ा कर दिखना यह सिद्ध करता है कि जन सहयोग की शक्ति ही प्रत्यक्ष दुर्गा है। उस सिंहवाहिनी की अनुकम्पा अर्जित कर लेने पर महिषासुरों, मधुकैटभों, सुन्द-उपसुन्दों के द्वारा प्रस्तुत किये जाने वाले संकटों का निराकरण होने में देर नहीं लगती। वह जिस पर अनुग्रह करती उसे निहाल कर देती है। जन सहयोग एवं शक्ति की गरिमा पौराणिक काल में समुद्र सेतु बाँधने और गोवर्धन उठाने वालों ने देखी थी। पिछले दिनों उसे बुद्ध गाँधी ने प्रत्यक्ष कर दिखाया था। वर्तमान में उसका अभिनव प्रयोग प्रज्ञा अभियान के रूप में किया गया है। वह पूर्व परीक्षाओं की तुलना में किसी प्रकार पीछे नहीं रहा है। यही है वह दैवी चमत्कार जिसे युगान्तरीय चेतना भी कहा जा सकता है। इसी को प्रतीक चिन्ह बनाकर “लाल मशाल’ की कल्पना और निर्धारण की गयी है।

युग समस्याओं के समाधान में मूर्धन्यों को आगे आना चाहिए। क्योंकि यह विनाश उत्पादन उन्हीं के द्वारा हुआ है। अस्तु प्रायश्चित भी उन्हीं को करना चाहिए था और खोदी हुई खाई को पाटने में अपनी भलमनसाहत का परिचय देना चाहिए था। किन्तु वैसा कुछ बनते दीखता नहीं समर्थ यदि चाहते तो जिस शक्ति को विनाश के लिए नियोजित करते रहे हैं उसे पलटकर सृजन के लिए भी लगा सकते थे और प्रस्तुत कठिनाइयों का हल करने में बहुत हद तक सफल हो सकते थे। पर लगता है उनने अपने द्वार ही नहीं कान भी बन्द कर लिये हैं और अपनी उपेक्षा एवं असमर्थता को एक प्रकार से स्पष्ट ही कर दिया है।

शासनाध्यक्ष कहते हैं- हमें युद्ध की तैयारी, पद की सुरक्षा और तन्त्र को खड़ा रखने से ही फुरसत नहीं धर्माध्यक्ष कहते हैं- चेली चेले मूँड़ने के लिए हमें न जाने कितने पाखण्ड करने पड़ते और जाल बुनने पड़ते हैं उसे सम्भालकर अपना धन्धा जारी रखें कि सृजन की बात सोचें ? श्रीमन्तों का कथन है कि हमें शुद्ध वनस्पति, नशा उत्पादन, सिनेमा होटल जैसे लाभदायक धन्धों में ही रुचि है। समाज सेवा की बात किसी बैरागी से कहिए। साहित्यकार और कलाकारों ने सरस्वती की आराधना करने की अपेक्षा उसे श्रीमन्तों की रखैल बनना स्वीकार का कर लिया है और लेखनी, गायन, अभिनव जैसे कला कौशलों को श्रीमन्तों की कृपा पात्र बनने निमित्त गिरवी रख दिया है। पराक्रमी, दुस्साहसी संघर्षशील योद्धाओं ने अनीति से लड़ने की परम्परा त्याग दी है और वे तस्करों दस्युओं के दलों में सम्मिलित होकर आतंक अपराधों में निरत रहकर अपनी शूर वीरता का परिचय देने लगे हैं। सूर्य-चन्द्र जैसे मूर्धन्यों का सहयोग न मिलने पर इन दिनों कार्तिकी अमावस्या जैसा घनघोर अन्धकार संव्याप्त है। इससे निपटे कौन ? इसमें आशा की किरण एक ही रह गयी है। छोटे दीपकों को जलाने के लिए कटिबद्ध किया जाय उनकी संयुक्त शक्ति से पावन दीप पर्व मनाया जाय।

नव-जागरण का द्वार-द्वार पर अलख जगाते हुए जन-जन से कहा जाता है मानवी गरिमा को मानवी निर्धारणों को छोटी सभी अदालतों ने हरा दिया है उसे न्याय और आश्वासन दिला सकने में अपनी असमर्थता व्यक्त कर दी है। अब जनता की अदालत ही सुप्रीम कोर्ट की तरह शेष बच रही है। वही चाहे तो मानवी अस्तित्व और भविष्य के संरक्षण में अपनी भूमिका निभा सकती है। माना कि जन शक्ति इन दिनों हर दृष्टि से जर्जर है उसकी क्षमता का दोहन अनेक वर्गों द्वारा हो रहा है, ऐसी दशा में दीन दुर्बल रहते हुए भी वह क्या करे कैसे करें ? देखने में यह दयनीयता भी वास्तविकता जैसी लगती है, पर वस्तुतः है वह कृपणता ही चिन्तन की विकृति ही है।

सिंहनी के छः थनों से छः बच्चे एक साथ दूध पीते देखे गये हैं। ऐसी दशा में लगता है कि वह बेचारी निचुड़ गई। अब किसी पराक्रम के योग्य नहीं रही, फिर भी देखा जाता है, कि वह छेड़खानी करने वालों पर टूट पड़ने की स्थिति में भी बची रहती है। बच्चों को दूध पिलाने से वह इतनी असमर्थ नहीं हो जाती कि आखेट न कर सके। जन शक्ति को सिंहनी कहा जा सकता है, कि वह शासन को, धर्मतन्त्र को श्रीमन्तों को साहित्य मनीषियों को, कलाकारों को ही नहीं, दस्यु तस्करों तक की उदरपूर्ति करती है। कुरीतियाँ अवाँछनीयताएँ, दुर्व्यसनों, कुप्रचलनों के जोंक कन-खजूरे उसे अलग से चूसते रहते हैं। इस पर भी यह नहीं समझा जाना चाहिए, कि उसकी सामर्थ्य चुक गई, जो बचा है वह ही इतना है कि इतने भर से भी दुष्प्रवृत्तियों का निराकरण और सत्प्रवृत्तियों का परिपोषण सम्भव हो सके। विभीषिकाओं के उन्मूलन और उज्ज्वल भविष्य के निर्धारण में अब उसी का दरवाजा खटखटाने का, उसी देहरी पर धरना देने का प्रज्ञा अभियान ने निश्चय किया है और घोषित किया है, कि युग परिवर्तन की महान योजना को पूरी करने के लिए जो कुछ आवश्यक है उसे इसी कल्पवृक्ष की आराधना करके उपलब्ध किया जायेगा।

जिन्हें विभीषिकाओं का उन्मूलन और उज्ज्वल भविष्य का नव सृजन अभी भी कठिन लगता है, वे प्रभातकाल का अरुणोदय का दृश्य देखें और समझे कि नियन्ता की एक स्फुरणा किस प्रकार संव्याप्त अन्धकार को निगल जाने, सर्वत्र आलोक का उल्लास और पराक्रम का वातावरण बना देने का चमत्कार प्रस्तुत कर सकती है। युग परिवर्तन को परिकल्पना नहीं, सुनिश्चित सम्भावना समझा जाना चाहिए।


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