प्रवाह में बहकर मनुष्य प्रेत-पिशाच भी हो सकता है।

November 1983

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मनुष्य के भीतर असीम क्षमताओं का भण्डार भरा पड़ा है। उसकी संरचना ऐसे तत्वों से हुई है कि असम्भव को सम्भव कर दिखाने वाले पराक्रम कर सकता है। प्रश्न एक ही है कि उस विशिष्टता का उपयोग किस प्रयोजन के लिए किया जाय।

साधारण व्यक्ति इस शक्ति भण्डार को वासना तृष्णा की पूर्ति के लिए नियोजित करता रहता है। प्रश्न निर्वाह का नहीं, महत्वाकाँक्षाओं की ललक का है। निर्वाह तो सभी प्राणी अपने अनगढ़ शरीर और नगण्य से साधनों द्वारा भी समय एवं परिश्रम से चला लेते हैं। फिर मनुष्य की शारीरिक, मानसिक संरचना तो ऐसी है, जिसके द्वारा किया गया कुछ घण्टे का परिश्रम ही जीवन यात्रा के आवश्यक साधन जुटाने के लिए पर्याप्त होना चाहिए। जिसकी पूर्ति नहीं हो जाती वह ललक लिप्सा की गहरी खाई ही है जिसे उचित अनुचित सभी उपायों से पाटने में अहिर्निशि निरत रहने पर भी काम नहीं चलता। अभाव निरन्तर खटकता ही रहता है।

श्रेष्ठ व्यक्ति अपनी क्षमताओं के आदर्शवादी प्रयोजनों के लिए नियोजित करते हैं और लोक-कल्याण के साथ-साथ आत्म-कल्याण में भी आशातीत सफलता प्राप्त करते हैं। ऋषि-मनीषियों की - सन्त सुधारक शहीदों की - महामानवों की दिशाधारा ऐसी ही होती है। हाथ पैर सभी के एक से हैं। मस्तिष्कीय विस्तार भी प्रायः एक जैसा ही है, पर यह दृष्टिकोण का ही चमत्कार है कि जहाँ सामान्य जन पेट प्रजनन मात्र के क्षेत्र में भी अभावग्रस्त और अतृप्त बने रहते हैं वहाँ उत्कृष्टता अपनाने वाले उतने ही समय साधनों में ऐसा कुछ कर गुजरते हैं जिनका अनन्त काल तक स्मरण किया जाता रहे। पेट तो उनका भी भरता है परिवार तो उनका भी पलता है।

दृष्टिकोण में निकृष्टता भर जाने पर मनुष्य कितना क्रूर और पतित हो सकता है इसका भी एक रोमाँचकारी अध्याय है। अकेला यदि आतंक में रस लेने लगे, सताने में विनोद खोजने लगे विनाश को ही पराक्रम मानने लगे तो व्यक्तित्व के इसी काया में रहते हुए भी पिशाच बनते देर नहीं लगती है। वह ऐसे कुकृत्य भी करता रह सकता है जिस पर निर्लज्जता को भी लज्जा आने लगे। इतिहास में ऐसे क्रूर कर्माओं के अनाचार भी उपलब्ध होते हैं जिनके स्मरण से रोमाँच हो उठते हैं।

पन्द्रहवीं सदी के ट्रासिलवानिया पहाड़ी क्षेत्र का शासक ड्राक्युला अपनी हृदय विदारक नादिरशाही के लिए इतिहास प्रसिद्ध था। इतिहासकारों ने उसे विश्व का सर्वाधिक क्रूर शासक माना तथा नर-पिशाच की संज्ञा दी। अपने मनोरंजन के लिए ड्राक्युला नवजात शिशुओं को मारकर उनकी माताओं के सीने में जुड़वा देता था। अनेकों बार तो माता-पिता को अपने ही बच्चे का माँस खाने को मजदूर कर देता। गाँवों में बाल-वृद्ध, नर-नारियों सहित आग लगवा देना, अपराधियों को पेड़ों पर फाँसी चढ़वा देना, ड्राक्युला के दरबार में चारों ओर लाशें टंगी रहती थीं। एक बार उसके मन्त्री ने निवेदन किया कि लाशों को कहीं अन्यत्र टंगवाया जाय, क्योंकि उनसे असह्य बदबू आती है। इस पर ड्राक्युला ने अपने सैनिकों को आदेश दिया कि इसे भी एक खूँटे पर थोड़ी ऊँचाई पर जिन्दा ठोस दिया जाय। गलती के लिए क्षमा याचना करने के बावजूद भी उस कठोर का पाषाण-हृदय पिघला नहीं। उसने अपने जीवन में कितने व्यक्ति इसी क्रूर तरीके से मारे, इसकी कोई गिनती नहीं। उसका स्वयं का अन्त भी ऐसे ही वीभत्स ढंग से हुआ।

पन्द्रहवीं शताब्दी में तुर्की के सुल्तान मोहम्मद द्वितीय ने अरब और मिस्र के नगरों में ऐसा कत्लेआम मचाया, कि नगरों की गलियाँ लाशों से पट गईं। ट्यूनीशिया और अल्जीरिया में भी इनकी उसमानी जातियाँ फैली हुई थीं और अपनी निर्दयता के लिए प्रसिद्ध थीं। फैली हुई थीं और अपनी निर्दयता के लिए प्रसिद्ध थीं। मान्यता है कि गुलामी प्रथा का आरम्भ इन्हीं के द्वारा किया गया। मुहम्मद तुगलक के विषय में कहा जाता है, कि उनके अत्याचार से पीड़ित होकर लोग अपने घर-द्वारा त्यागकर जंगलों में छिपने लगे। सल्तनत काल में नृशंसता निर्दयता चरम सीमा पर थी। दूसरी ओर आतंकवादियों ने अपना कुचक्र अलग फैला रखा था। अपने भोग-विलास के लिए बड़े से बड़ा कुकृत्य करने में कुछ भी उठा नहीं रखा था। मुगलकाल के कई शासकों एवं मंचूरियन शासक चंगेज खाँ से सम्बन्धित ऐसे अनेकों प्रसंगों का विवरण मिलता है जिसमें क्रूरतम अत्याचार किये गए।

मेसेच्युसेट्स निवासी कुर्टेन बचपन से ही अपराधी प्रवृत्ति का था, अपराध कर्म करते-करते उसका सम्बन्ध अपराधियों के संगठन से हो गया। अपराधी दल के सरदार ने उसके जघन्य अपराध करने की चरम सीमा की परीक्षण लेनी चाही, जो उसने एक अबोध जीवित बालक को नदी की वेगवती धार में फेंक कर दिया। दूसरा बालक बहते बालक को बचाने दौड़ा तो उसे भी झपटकर कुर्टेन ने डुबो दिया। उसका आतंक बढ़ने लगा। हत्या उसका व्यसन बन गया। अब वह रक्त पिपासु की भूमिका निबाहने लगा। तड़पते बच्चों को देखकर खुशी से नाच उठता। बालक न मिलने पर भेड़, कुत्ते, बकरी के बच्चों पर यही प्रयोग करता। बीस बरस तक वह क्रूर कर्म करते-करते थका नहीं अन्त में पकड़े जाने पर फाँसी पर लटकना पड़ा।

हंगरी के ‘सील्वेस्टर मटुस्का’ को नर पिशाच के रूप में जाना जाता है। वह एक प्रख्यात कम्पनी का मालिक था, अपार धन और वैभव के रहते भी उसकी पिशाच वृत्ति इसी में आनन्द पाती कि लोगों को तड़पाकर मारा जाय, उजाड़ा जाय घायल और अपंग बना दिया जाय। उसे रेल दुर्घटनाएँ कराने, लोगों को आहत होते देखकर बहुत हर्ष होता था। उसने अपने जीवनकाल में अनेकों दुर्घटनाएँ कराई। हजारों मौत के मुँह में धकेले, बेसहारे और अनाथ बनाए। अन्त में एक दुर्घटना कराते समय पकड़ा गया और फाँसी पर लटका दिया गया।

रोम सम्राट नीरो को भी नर पिशाचों की श्रेणी में रक्खा जाता है यह नृशंसता उसे अपनी माँ से मिली। रोम की गद्दी हाथ लगते ही नीरो के कुसंस्कारों को जैसे खाद पानी मिला गया हो। निरपराधों तक को तड़पाकर मार डालने में उसे आनन्द आता। नीरो की गणना अधपगले, सनकी शासकों में की जाती है। उसकी आज्ञा की अवहेलना सीधे मृत्यु का ग्रास बनने को मजबूर करती। अजीब सनक सवार हुई उसके सर पर, मेरे बाद रोम का कोई शासक ही बन पावे। अतः आदेश दिया कि रोम नगर को जलाकर नष्ट कर दिया जाय। नो दिन तक अनवरत अग्निकाण्ड होता रहा। अबला, बाल-वृद्ध, सम्पत्ति सहित जलाकर खाक कर दिये गये। कहा जाता है रोम सम्राट् शहर की ऊंची मीनार पर बैठकर नृशंस अग्निकाण्ड हत्याकाण्ड देखता रहा।

मिस्र के पिरामिडों के साथ भी ऐसा ही रक्तरंजित इतिहास जुड़ा हुआ है। मिस्र के शासक फराहो की मृत्यु के पश्चात् उसकी कब्र में बहुमूल्य वस्तुएँ, हाथी, घोड़े, असंख्यों नौकर, दासियाँ, दफनाए गये। जीवित दास-दासियों को इसलिए गाड़ दिया जाता, क्योंकि तत्कालीन लोगों की मान्यता थी कि मरणोपरान्त भी ये नौकर-नौकरानियाँ राजा की सेवा कर सकेंगे। बर्बरतापूर्ण यह अमानवीय घटना मात्र करोड़ों तक ही सीमित नहीं रही, वरन् यह प्रक्रिया लम्बे काल तक तत्कालीन मिस्र में चलती रही, और हजारों निरीह निष्ठुरता के कोप भाजन बने।

मुहम्मद बिन तुगलक ने अपने राज्यकाल में लगान दस गुना- बीस गुना कर दिया था। लगान के अलावा भी अतिरिक्त कर लगाये थे। परेशान होकर लोगों ने अनाज के खलिहानों को जला डाला और मवेशियों को घर से निकाल दिया। दस-दस बीस के मण्डल बनाकर उन्होंने गाँव छोड़कर जंगलों व तालाब के किनारे शरण ली। इस पर सुल्तान लश्कर लेकर दोआव पर चढ़ आया। मृतकों के खलिहान लग गये। खून की नदियाँ बह गयीं। जानवरों की तरह लोगों की चुन-चुनकर मारा गया। सल्तनत काल में जहाँ एक ओर नृशंसता निर्दयता दृष्टिगोचर होती है, वहीं दूसरी ओर अय्याशी का आभास भी मिलता है। अमीर खुसरो ने लिखा है कि उस काल में जब कोई नई इमारत बनायी जाती थी तो उसे खून से धोया जाता। अलाउद्दीन ने अपनी इमारतों के उद्घाटन पर हजारों बकरे जैसी दाढ़ी वाले मुगलों का वध कराया। मुहम्मद-बिन-तुगलक के द्वार पर हत्यारे लोग मारते-मारते तंग हो जाते और तीन-तीन दिन तक लाशों के ढेर सड़ते रहते थे। मात्र अन्य जाति के काफिर कहे जाने वाले ही नहीं, मुसलमान भी उसकी नृशंसता के शिकार हुए।

यह कुछ उदाहरण हैं जिनसे इस तथ्य पर प्रकाश पड़ता है कि मनुष्य का मन कोरे कागज की तरह है जिस पर कुछ भी भला-बुरा लिखा जा सकता है। वह गीली मिट्टी की तरह भी है जिसे किसी भी ढाँचे में ढाला और उसको कोई भी खिलौना बनाया जा सकता है।

सन्त सज्जनों को बाह्य वातावरण और आन्तरिक सुसंस्कार संवर्धन के सहारे जहाँ अपने को ऊँचा उठाते हुए असंख्यों का कल्याणकारी मार्गदर्शन कर सकना सम्भव हुआ है वहाँ दुर्जनों की प्रवृत्ति दृष्टता के ढाँचे में इन्हीं कारणों के आधार पर ढलने में भी देर नहीं लगी है। मनुष्य की प्रवृत्ति है कि वह जैसे संपर्क में रहता है जैसा कुछ सोचता है वैसा ही स्वभाव बनाता और कृत्य करने लगता है। इसलिए जहाँ मनुष्य की निजी संरचना को महत्व दिया जाता रहा है वहाँ वह भी कहा गया है कि वातावरण, संपर्क एवं दिशा निर्धारण करने वाले अन्यान्य कारणों की महत्ता भी कम नहीं है।

मनुष्य जीवन जिस प्रकार ईश्वर प्रदत्त सर्वोपरि है, वहाँ संसार क्षेत्र का सबसे बड़ा सौभाग्य यह है कि उसे उत्कृष्टता के प्रगति पथ पर बढ़ते चलने वाला सुयोग भी मिले। इसके लिए हर व्यक्ति के निजी जीवन में तथा संपर्क समुदाय में यह प्रयत्न करना चाहिए कि अन्न वस्त्र की तरह शालीनता के वातावरण में साँस लेने का भी अवसर मिले। अन्यथा विषैली साँस लेने पर जिस तरह दम घुट जाता है उसी प्रकार अवाँछनीय मार्ग सामने रहने पर मनुष्य आत्म-हनन और पैशाचिक कृत्यों पर उतारू होने जैसे अनर्थ करने में भी प्रेत पिशाचों से पीछे नहीं रहता।


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