मनुष्य और धरातल का तेजोवलय

November 1983

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मनुष्य को दृश्यमान समर्थता उसके कायकलेवर के अंतर्गत उसी परिधि में काम करती हुई दीखती है। पर वस्तुतः उसका क्षेत्र इतना सीमित है नहीं, वह समीपवर्ती क्षेत्र में बाहर भी विद्यमान रहती है और संपर्क में आने वाले वातावरण को भी प्रभावित करती है। सान्निध्य में आने वाले व्यक्तियों को भी प्रभावित करती है।

शरीरगत क्षमता का क्रिया कलाप किसी भी रूप में दृष्टिगोचर क्यों न होता हो, वस्तुतः वह विद्युत प्रवाह के रूप में होता है। नस नाड़ियाँ उसी के आधार पर अपना रक्त संचार क्रम जारी रखती हैं। ज्ञानतन्तु उसी के सहारे मस्तिष्क के साथ विभिन्न अंग अवयवों का सम्बन्ध जोड़े रहते हैं। माँस पेशियों का आकुँचन प्रकुंचन उसी के सहारे गतिशील रहता है। निद्रा और जागृति में भी उसी की भूमिका रहती है।

इसी जीवन्त विद्युत को अध्यात्म भाषा में प्राणशक्ति कहा जाता है। शरीरधारियों की शारीरिक मानसिक हलचलों में इसी की प्रधानता रहने से उन्हें प्राणी कहा जाता है। जिससे इसकी अधिकता होती है उन्हें प्राणवान और न्यूनता वालों के अल्प प्राण कहते हैं। कई बार बातचीत में इस न्यूनता का अत्युक्तिपूर्ण दोषारोपण किसी को निष्प्राण कहकर भी किया जाता है। वस्तुतः जीवधारियों की वास्तविक एवं आन्तरिक समर्थता इसी क्षमता के आधार पर दृष्टिगोचर होती है। कइयों के कायकलेवर भैंसे जैसे सुदृढ़ और विशाल भी होते हैं पर अल्प प्राण होने के कारण उनका पुरुषार्थ नगण्य रहता है जबकि उससे कहीं छोटे आकार का चीता दौड़ने उछलने और वजन ढोने में असाधारण सामर्थ्य का परिचय देता है।

यो प्राण अदृश्य है। उसे आमतौर से खुली आँखों नहीं देखा जा सकता। तो भी अब सूक्ष्मदर्शी उपकरणों से यह सम्भव हो गया है कि उसका अस्तित्व शरीर के बाहर भी देखा जा सके। उसे आभा मण्डल या तेजोवलय कहते हैं। यही है वह विद्युत अंश जो संपर्क में आने वाले अन्यान्य प्राणियों तथा पदार्थों को आकर्षित प्रभावित करता रहता है। शरीर के भीतर काम करने वाली इस बिजली को भी अवयवों की हलचलों में तीव्रता न्यूनता देखकर जाना जा सकता है। यों इससे रहित तो कोई भी प्राणी नहीं रहता, पर उसकी न्यूनाधिकता के आधार पर स्फूर्ति, तत्परता क्रियाशीलता एवं क्षमता में अन्तर तो बना ही रहता है।

अब इस आभा मण्डल को भी प्राणी की समर्थता का मूल्याँकन करते समय जाना जाने लगा है और यह भी विचार होता है कि इसे किस प्रकार बढ़ा या घटा कर सन्तुलित स्तर पर लाया जाय। सामान्य स्वस्थता और समर्थता के लिए आवश्यक है कि यह विद्युत संतुलन हर किसी में सही स्तर का बना रहे। विशिष्ट प्रयोजनों के लिए इसे बढ़ाने या घटाने की बात भी सोची जाती है। समाधि, तन्द्रा एवं शान्ति, विश्रांति के लिए उसकी न्यूनता अपेक्षित होती है। जबकि दुस्साहसी पराक्रमों के लिए उसे कहीं अधिक मात्रा में बढ़ाने की आवश्यकता पड़ती है। अब इस संदर्भ में अपेक्षाकृत अधिक ध्यान दिया जा रहा है और वैज्ञानिक क्षेत्रों में भौतिक स्तर का अनुसंधान क्रम भी चल रहा है। अध्यात्मवादी तो आरम्भ से इसे खोजने और आवश्यकतानुसार घटाने बटाने की कुशलता प्राप्त करने के लिए साधना स्तर के विभिन्न प्रयोग करते रहे हैं।

मानवीय प्रभा मण्डल की जानकारी अति प्राचीन काल से चली आ रही है। यह एक प्रकाश पुँज के रूप में मनुष्य के शरीर को ढके रहता है। इजीप्ट, भारत, ग्रीस और रोम में इसे धार्मिक मान्यताएँ प्राप्त हैं और प्रत्येक धार्मिक मूर्तियों में इसका प्रदर्शन भी किया जात है।

प्रभा मण्डल का स्वरूप प्रत्येक मनुष्य में भिन्न-भिन्न रंगों व विशेषताओं का पाया जाता है। यह भिन्नता उनके स्वास्थ्य, भावना व धार्मिक मान्यताओं के ऊपर आधारित होती है। एक महान दार्शनिक स्वीडेनबोर्ग ने अपनी “स्प्रिचुअल डायरी” में लिखा है कि “प्रत्येक मनुष्य को चारों और एक अध्यात्मिक प्राकृतिक व शारीरिक प्रभा मण्डल का घेरा विद्यमान होता है।”

इंग्लैण्ड के डा. वाल्टर जॉन किल्नर ने अपने अथक प्रयास से इस मानवीय प्रभा मण्डल की वास्तविकता को जन-सामान्य के लिए सुलभ बनाने में सफलता प्राप्त की है। उन्होंने 1908 ई. में डिक्यानिन (अलकतरा रंग) द्रव्य के उपयोग से इसे प्रयोग द्वारा सिद्ध करने का भी प्रयास किया। कई प्रयोगों में सफलता प्राप्त करने के उपरान्त उन्होंने अपनी उपलब्धि को 1911 में दी ह्युमन एटमोसफेयर” नामक पुस्तक में प्रकाशित किया। उनके इस प्रयोगों को कई विवाद का भी समाना करना पड़ा, परन्तु इसके बावजूद भी डा. किल्नर ने अपना प्रयोग अन्ततः जारी रखा। उन्होंने अपने प्रयोग के अंतर्गत रोग लक्षण को भी ज्ञात का कार्य आरम्भ किया और उन्होंने इस कार्य में सफलता भी पाई। उनके इस अद्भुत प्रयोग की जानकारी अभी जन-सामान्य को मिल भी नहीं पाई थी। कि 23 जून 1920 को 73 वर्ष की उम्र में उनका देहान्त हो गया।

आगे चलकर उनके इन प्रयोग को एक ब्रिटिश अध्यात्मवादी मिस्टर हैरी बोडिंगटन ने और आगे बढ़ाया। किल्नर ने प्रभा मण्डल को देखने के लिए एक संकुचित बॉक्स की सहायता ली थी जिसकी दीवारें शीशे की बनी थी और उससे अलकतरा रंग का अल्कोहलिक घोल रखा था। परन्तु इसमें कुछ कठिनाइयाँ थीं क्योंकि अत्यधिक रंग की आवश्यकता पड़ती जो अत्यन्त ही महंगा पड़ता था, साथ ही इसकी दीवारों से देखने में अति कठिनाई होती थी। अतः बोडिंगटन से एक रंगीन चश्मे का प्रयोग आरम्भ किया जो दोहरे शीशे का बना था और उसके बीच अलकतरे का घोल रखा रहता था। अतः इसमें इस खर्चीले द्रव्य की बहुत की कम आवश्यकता पड़ती थी। इसके पश्चात् 1937 में प. जर्मनी के ओश्कर बैगनल ने किल्नर के प्रयोग को वैज्ञानिक स्वरूप प्रदान किया और इस पर उन्होंने एक पुस्तक “दी आरिजिन एण्ड प्रोपर्टिज ऑफ दी ह्युमन आरा” भी लिख डाली। बैगनल ने अपने प्रयोगों में डिक्यानिल की अपेक्षा एक अन्य अलकतरा रंग “पिनै सियानोल’ का प्रयोग किया था जो अत्यन्त सस्ता था।

वर्तमान में इंग्लैण्ड के मैटाफिजिकल रिचर्ड ग्रुप के वैज्ञानिक मिस्टर जे. जे. विलियमसन ने किल्नर, बोडिंगटन और बैगनल के प्रयोगों का समन्वयात्मक परीक्षण व प्रयोग किया है। डा. डब्ल्यू. इ. बेनहम, जो कि एक आधुनिक रेडिएस्थेटिस्ट हैं, ने तो यह बतलाया है कि कीड़ों के भी प्रभा मण्डल होते हैं जिसे प्रयोग द्वारा देखा जा सकता है, उदाहरण स्वरूप मधुमक्खी का 20 फीट लम्बा प्रभा मण्डल दृष्टिगोचर हुआ है। अब इससे हाइ वोल्टेज स्रोतों द्वारा स्पष्ट फोटो ग्राम भी खींचे जाने लगे हैं।

डा. किल्नर की शोधें इस संदर्भ में प्रख्यात है। वे किसी का भी प्रभा मण्डल देखकर यह बता सकते हैं कि उसकी जीवनी शक्ति एवं मानसिक क्षमता का स्तर क्या है। इस आधार पर किसी के पराक्रम एवं आयुष्य का भी पता चला सकता है। साथ ही स्वभाव एवं उपयोग के सम्बन्ध में भी ऐसा कुछ निर्धारण किया जा सकता है जिसके सहारे कि उसके लिए ऐसे उपयुक्त कार्य का चुनाव किया जा सके जो सरलता के साथ बन पड़े । डा. क्लिचर उन उपायों की खोज निकालने के लिए भी प्रयत्नशील हैं जिससे इस प्राण विद्युत का अनुपात घटाने बढ़ाने की विधि हस्तगत करके किसी को भी अधिक समर्थ या असमर्थ बनाया जा सके। जिस प्रकार रक्त की शुद्धता, मात्रा एवं गतिशीलता पर स्वस्थता निर्भर रहती है ठीक उसी प्रकार आभा मण्डल की स्थिति का भी महत्व है।

यह तेजोवलय प्रकृति क्षेत्र में कहाँ से उपलब्ध होता है। इसकी खोज करते करते वैज्ञानिकों ने इस समूची पृथ्वी को ही एक पदार्थ शरीर कहा है और उससे एक विशिष्ट आभा मण्डल बाहर निकलते देखा है सूर्य किरणों से तो चमकता ही है। इसके अतिरिक्त उसमें निजी चुम्बकत्व और प्रकाश भी है। वह भीतर भी है और बाहर भी। इसे भूमण्डल का प्राण कहा जा सकता है। यदि यह उबलने लगे तो विस्फोटक स्थिति उत्पन्न होगी और गिरने घटने लगे तो उर्वरता समाप्त होने अथवा हिम युग पहुँचने जैसी स्थिति बनेगी। पृथ्वी की अनेकानेक अदृश्य परिस्थितियों में समय समय पर उतार चढ़ाव आते रहते हैं उसके लिए इस भू चुंबकत्व अथवा तेजोवलय को उत्तरदायी माना जाने लगा है।

पृथ्वी वस्तुतः एक विशाल स्थायी चुम्बक है। इसका चुम्बकीय क्षेत्र कहीं कम, तो कहीं पर सबसे ज्यादा है। भू-चुंबकीय क्षेत्र का प्रभाव आकाश में कई किलोमीटर दूर तक फैला हुआ है। ये चुम्बकीय क्षेत्र सूर्य और अन्य ग्रहों से आने वाले आकाशीय विकिरण कणों को अपनी ओर खींचते रहते हैं। वैज्ञानिकों, इंजीनियरों को पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र की जानकारी रहने पर खनन कर्म के पूर्वेक्षण में पर्याप्त सहायता मिलती है। लौह अयस्क (आयरन ओर के चारों तरफ एकत्र अन्य तत्वों जैसे एस्वस्टस, सल्फर, लेड, क्रोमियम, तेल और गैस तथा अन्य धातुओं की खोज में भू चुम्बकीय क्षेत्र के प्रभाव का मापन उपयोगी सिद्ध हुआ।

वैज्ञानिकों का अभिमत है कि चुम्बकीय क्षेत्र का प्रभाव पृथ्वी के हर स्थान पर बदलता रहता है। किसी किसी स्थान पर प्रतिदिन तो अन्यत्र स्थानों पर वार्षिक चुम्बकीय परिवर्तन होता रहता है। प्रतिदिन होने वाले परिवर्तन बहुत छोटे होते हैं परन्तु जब कभी अचानक ज्यादा परिवर्तन होता है चुम्बकीय तूफान उठ खड़े होते हैं जिसका प्रभाव समस्त भू-मण्डल पर पड़ता है।

भू-चुंबकीय क्षेत्र के प्रभावों के अध्ययन से यह तथ्य सामने आया है कि मनुष्य पर भी इस क्षेत्र का प्रभाव पड़ता है। ब्रिटिश वैज्ञानिकों ने अपने विभिन्न प्रयोग परीक्षणों के आधार पर इस बात की पुष्टिकरण की है कि पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र में होने वाले तीव्रगामी परिवर्तन से हृदय और मस्तिष्क के विद्युतीय क्रिया-कलापों में आश्चर्यजनक प्रभाव पड़ता है। कमजोर मन स्थिति वाले व्यक्तियों पर इस परिवर्तन का सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है।

जलवायु के आधार पर किन्हीं क्षेत्रों को स्वास्थ्य के लिए उपयुक्त अनुपयुक्त माना जाता रहा है अब इस शृंखला में एक कड़ी और जुड़ती है कि पृथ्वी की भू चुम्बकीय तेजोवलय आभा के अनुरूप भी मनुष्य की स्वस्थता, समर्थता अविज्ञात प्रभाव पड़ने रहते हैं। अस्तु विशेष महत्वपूर्ण कार्यों के लिए तद्नुरूप स्थान चयन करते समय अब न केवल स्थानीय सुविधा साधनों का महत्व माना जाता है वरन् यह भी खोजा जाता है कि किस क्षेत्र में भू-चुम्बकत्व की स्थिति क्या है ?

व्यक्तित्व के उच्चस्तरीय विकास में हिमालय एवं गंगा हर क्षेत्र की धरातल प्रखरता को उपयुक्त माना जाता रहा है। इसी प्रकार महाप्राण ऋषि तपस्वियों के सान्निध्य में न केवल उनके परामर्श का वरन् तेजोवलय का भी लाभ मिलता है। इस संदर्भ में ऋषि आश्रमों में सिंह गाय का एक घाट पानी पीना एक उपयुक्त उदाहरण है। ये सारे प्रसंग वातावरण में संव्याप्त चुम्बकीय तेजोवलय की महत्ता बताते हैं, जिसे बढ़ाकर व्यक्ति सामर्थ्य सम्पन्न बन सकता है।


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