श्रद्धा की सही कसौटी

November 1983

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पाँचों पाण्डव एक दिन बिहार के लिए जंगल गए। साथ में शिकारी कुत्तों का झुण्ड भी चल रहा था। एक कुत्ता जंगल में दूर तक अकेला निकल गया। लौटा तो उसके होंठ बाणों से भरे हुए थे। भौंक नहीं पा रहा था।

कुत्ते की दुर्दशा देख पाण्डवों का क्रोध के साथ-साथ आश्चर्य भी उमड़ा। किसने कुत्ते को सताया, यह बात तो गौण हो गयी। चिन्ता इस बात की हुई कि जिसे हमें नहीं सिखाया गया, उस बाण विद्या का ज्ञाता और कौन है? खोज के लिए वे निकले। कुत्ते के मुँह से टपके खून के निशान को सुराग मानकर वे चले। वे निशान्त उन्हें एक भील युवक के झोंपड़े तक ले गए। देखा तो सामने अकेला बैठा धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहा था।

पाण्डव बन्धु एकटक हो उसका कौशल देखते रहे, उसकी प्रवीणता सराही तथा पूछा किस गुरु की छत्रछाया में इतनी प्रगति की ? उसने द्रोणाचार्य का नाम लिया।

पाण्डव सन्न रहा गए। गुरुदेव ने हमसे छिपाया और यह रहस्य भील पुत्र को सिखा दिया। अपने गुरु के प्रति उपजे क्रोध के कारण तत्काल लौट पड़े और डेरे पर पहुँचते ही अपना आक्रोश भी प्रकट कर दिया।

द्रोणाचार्य ने जब सारी घटना सुनी तो अपने इस अनजान शिष्य को देखने स्वयं साथ चले पड़े। एकलव्य अपनी बाण साधना में मग्न था। ध्यान बंटते ही उसने आगंतुकों से सत्कार पूर्वक आगमन का कारण पूछा।

चर्चा वहाँ से आरम्भ हुई, जिसमें उसे प्रवीणता प्रदान करने वाले गुरु का शिक्षण और अनुग्रह जानना था। एकलव्य ने मिट्टी की द्रोणाचार्य की प्रतिमा की और इंगित कर कहा- मैंने प्रत्यक्षतः तो उन्हें देखा नहीं, कल्पना के आधार पर उनकी प्रतिमा बनाकर उसे प्रत्यक्ष गुरु के समान माना है।

द्रोणाचार्य स्वयं एवं पाण्डव आश्चर्यचकित थे कि श्रद्धा किस प्रकार प्रत्यक्ष से अधिक सामर्थ्यवान सिद्ध हो सकती है अब जीवित द्रोणाचार्य ने श्रद्धा की कठिनतम परीक्षा लेनी चाही। उन्होंने एकलव्य से गुरु दक्षिणा में अंगूठा माँगा, ताकि पाण्डवों को किसी भी तरह प्रतिद्वन्द्वी का भय न रहे। शासन-सत्ता के प्रति समर्पित द्रोणाचार्य का- उनकी स्वयं की दृष्टि से यह कृत्य अनुचित भी नहीं था।

एकलव्य ने सबको स्तब्ध करते हुए तुरन्त अंगूठा काटकर गुरुदेव के चरणों में रख दिया। मण्डली लौटते हुए यही विश्वास साथ लिए चल रही थी कि श्रद्धा यदि सच्ची और गहरी हो तो बड़ा चमत्कार दिखा सकती है। मिट्टी से भी शक्तिशाली देवता प्रकट हो सकते हैं।

एक व्यक्ति इस बात के लिये प्रसिद्ध था कि उसके पास ऐसा रसायन है जिसकी एक बूँद पानी में ला देने पर रोगी अच्छे हो जाते हैं हजारों व्यक्ति लाभ लेने लगे।

इस व्यक्ति के गुरु को भी अनायास कई व्याधियों ने आ घेरा। शिष्य की यश चर्चा ने उन्हें भी आकर्षित किया। उनके आगमन पर शिष्य ने अपने भाग्य को सराहा और सम्मान दिया। उसकी एक ही खुराक ने उनकी व्याधियाँ मिटा दीं। गुरु बड़े प्रसन्न हुए। चलते समय धीरे से पूछा- ‘बेटा! इस रसायन का नुस्खा मुझे भी बता दें ताकि आगे तकलीफ होने पर प्रयोग कर सकूँ।” शिष्य एकान्त में ले गया और बोला- ‘हे देव! यह आपका चरण प्रक्षालन से जो जल जाता हूँ उसी की एक बूँद सबको देता हूँ। वही आपको भी दिया है।’

गुरु ने शिष्य के शपथ पूर्वक दिये गए कथन पर विश्वास कर घर पहुँचते ही मुनादी करवा दी कि वे अब सिद्ध रसायन द्वारा किसी भी असाध्य रोगी को स्वस्थ कर सकते हैं। अपने पैर धोकर घड़ों पानी एकत्र कर लिया।

रसायन पिलाई जाती रही। लाभ किसी को न हुआ। उल्टे पाखण्ड बताकर लोगों की मारपीट, गाली गलौज ही पल्ले पड़ी। चारों और अपयश फैल गया।

गुरु अपने शिष्य के पास पहुँचे व दुर्दशा बतायी, उसे खरी-खोटी सुनाई। नम्र भाव से शिष्य ने कहा- “मात्र चरणोदक नहीं, मेरी गहन श्रद्धा का पुट भी उसमें रहता है। जबकि आपकी धोवन में आपके अहंकार का विष उसमें धुल गया। फलतः वह उपहास का ही कारण बना।”

गुरु ने श्रद्धा और अहंकारिता का मध्यवर्ती अन्तर समझा ओर समाधान लेकर आत्म-शोधन की साधना हेतु हिमालय की ओर प्रस्थान कर दिया।


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