न आशा भली न निराशा

November 1983

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आशा और निराशा की अपने-अपने स्थान और समय पर अपनी-अपनी आवश्यकता है। दोनों की ही उपयोगिता है। उज्ज्वल भविष्य की आशा रहनी चाहिए। इससे उत्साह उठता है और पराक्रम करने का साह उभरता है। श्रेष्ठ जनों ने जो सौभाग्य अर्जित किया उसके स्मरणों से बल मिलता है और विश्वास जमा है कि उस मार्ग पर .चल पड़ने से अपने लिए भी वैसे ही सौभाग्य का सुयोग मिल सकता है। इस प्रकार सत्प्रवृत्तियों के सत्परिणामों का चिन्तन करने से आशा बंधती है और उसे अपनाये रहने पर कठिन मंजिलों को पार करते हुए भी दूरदर्शी लक्ष्य तक पहुँच सकना सम्भव होता है।

निराशा इस अर्थ में अच्छी है कि अनुपयुक्त प्रलोभनों की ओर जब मन चले तो उस मार्ग पर चलने वालों की भुगतने पड़े कष्टों और तिरस्कारों का स्मरण करके मन पर अंकुश लगता है और बनाई गई योजना को छोड़ देने का समाधान सामने आता है। यदि दुरात्माओं की सफलता का चिन्तन क्रम चले पड़े तो दुस्साहस उभरने में भी देर नहीं लगती और कुकर्मों का सिलसिला चल पड़ता है। यदि उस दिशा में सहयोग जुटने तथा सफलता मिलने की आशा बैठने लगे तो फिर पतन के मार्ग पर बढ़ते हुए कदम रुकते नहीं।

अधिक उपर्युक्त यह है कि आशा और निराशा को आदेशों की गणना में सोचा जाय और दोनों से ही बचने का प्रयत्न किया जाय। यह दोनों आरम्भ से ही अपना प्रभाव नशे जैसा दिखाते हैं किन्तु अनन्तः परिणाम अनुपयुक्त ही निकलता है। शराब से उत्तेजना आती है और अफीम से सुस्ती काहिली लदती है। आशा शराब है और निराशा अफीम। दोनों ही अपनी-अपनी दिशा में धकेलती है। पर उनमें यह सामर्थ्य नहीं जो सुझाया गया था उसे परिणाम तक पहुँचने में जो समर्थ हो सके।

कर्त्तव्य पालन का संकल्प अपने आप में एक शक्ति है। उसमें सफलता असफलता दोनों की प्रतिक्रिया समान बनी रहती है खिलाड़ी विनोद के लिए खेलते हैं। हार जीत से उतने प्रभावित नहीं होते। रंगमंच के पात्र अभिनय से दर्शकों को तो हंसाते रुलाते रहते हैं, पर उनकी निजी स्थिति पर इसका कोई अतिरिक्त प्रभाव नहीं पड़ता । खजांची के हाथों हर दिन लाखों का लेन-देन होता है इतने पर भी वह हानि-भा की प्रतिक्रियाओं से विरत ही बना रहता है और सुखपूर्वक नींद लेता है।

आशा जहाँ उत्साह प्रदान करती है वहाँ उस सम्भावना के प्रति इतना अधिक आसक्त भी कर देती है कि वह परिणति अनुरूप न तो आघात भी गहरा चलता है। आशावादी की हिम्मत सफलता मिलने पर ही बढ़ती है असफल रहने पर वह बेतरह टूट जाता है और दूसरी बार साहस करने में समर्थ नहीं होता। ऐसे लोग गहरी निराशा में पड़ते और भविष्य के लिए थके, टूटे, निराशा और अपंग जैसे बन कर रहते हैं।

निराशा उससे भी बुरी है, वह उन कार्यों को भी नहीं करने देती जो प्रस्तुत योग्यता एवं परिस्थिति में भी भली प्रकार हो सकते हैं। आशंका और असफलता के अतिरिक्त और कुछ सूझता नहीं है। ऐसा व्यक्ति न आगे बढ़ने की बात सोचता है और न ऊंचा उठने की योजना बनाता है। निराशाग्रस्त व्यक्ति प्रतिमा और सम्भावना दोनों से ही हाथ धो बैठता है।

कर्त्तव्य के परिपालन को ही यदि सफलता मानकर चला जाय तो हर स्थिति में मनुष्य अपना साहस और पराक्रम यथावत् बनाये रह सकते हैं। ऐसा व्यक्ति अपना चरित्र और चिन्तन सुस्थिर बनाये रहता है। और देर-सवेर में उच्चस्तरीय प्रगति तक पहुँच कर रहता है।


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