प्रेम भावना और नैतिकता अन्योन्याश्रित

November 1983

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नैतिकता को नागरिकता एवं सामाजिकता का एक पक्ष माना जाता है, पर वस्तुतः वह इतने उथले धरातल पर उपजती नहीं। सामाजिकता नैतिकता लोक हित के नाम पर कुछ भी कर गुजरने पर उतारू हो जाती है उसे अपने मूल स्वरूप को भुला देने में देर नहीं लगती। देश और धर्म के नाम पर लोगों ने ऐसे अन्यान्य अत्याचार किये हैं जिन्हें देखते हुए व्यक्तिगत रूप से उन्हें पशु या पिशाच भी कहा जा सके।

यही बात नागरिक स्तर की नैतिकता के सम्बन्ध में भी हैं। वस्तुतः शिष्टाचार कहना चाहिए। बड़े आदमियों के लिए बने खर्चीले स्कूलों में प्रायः शिष्टाचार ही प्रधान रूप से सिखाया जाता है। इस प्रकार की व्यवहार कुशलता प्रशंसनीय तो है पर वह नैतिकता का स्थान नहीं ले सकती। हो सकता है कि कोई व्यक्ति मधुर भाषी, विनम्र और शिष्टाचार परायण हो किन्तु भीतर ही भीतर दुष्टता से भरा हो, दुरभि संधियाँ रच रहा हो। विक्रय-कला में प्रायः इसी प्रकार की धूर्तता का पुट रहता है। भोले लोग शिष्ट को सज्जन भी मान बैठते हैं और उसका परामर्श मानकर अपनी जेब कटाते देखे जाते हैं।

नीति वस्तुतः भावनात्मक उत्कृष्टता है जिसे ‘प्रेम’ शब्द से सम्बन्धित करता अधिक उपयुक्त होगा। आत्मीयता भरी सम्वेदना अन्तराल की विशेषता है। वह जहाँ होती है। प्रेमी स्वभाव का व्यक्ति किसी के साथ भी अनीति नहीं बरत सकता। उसे दूसरों का अहित सोचते या करते समय ऐसा लगता है, मानों अपनी ही कुल्हाड़ी से अपना ही पैर काटने जैसा अनर्थ किया गया।

प्रेम की शक्ति मात्र-आत्मानुभव से जानी जा सकती है। इस भाव के उठते ही हमारा शरीर रोमाँचित, स्फूर्तिमय एवं सशक्त बनने लगती हैं। भय एवं घृणा की स्थिति में काल्पनिक अवसाद एवं आसन्न तिमिराछन्न संकट ही सूझता है किन्तु प्रेम-मैत्री भावना पुष्ट हो जाने पर अपनी आत्मा का प्रकाश ही सर्वत्र दृश्यमान होता है जो प्रकारांतर से परमात्मा का प्रकाश पुँज ही होता है। साधन की पराकाष्ठा साध्य में स्वयमेव परिणित हो जाती है। प्रेम से परमेश्वर प्राप्त है। इसे यों कह लें - प्रेम और परमेश्वर एक है अथवा प्रेम ही परमेश्वर है।

जबकि दूसरी और घृणा से क्रोध और क्रोध से ध्वंस की शृंखला है। प्रेम से स्वार्थ त्याग-समष्टि बुद्धि और उससे विश्वात्मा तक ही पहुँच होती है। द्वेष भावना निर्बलता की एवं मैत्री भावना सबलता की प्रथम सीढ़ी शिला है जिनसे अभ्युदय या पतन-पराभव सम्भव है। द्वेष और प्रेम के संघर्षों में प्रेम की निरन्तर स्थायी विजय पायी गई हैं।

रोनाल्ड निक्सन जो प्रख्यात चिन्तक हैं, को जब कहीं से शान्ति न मिली तो संयोगवश एक प्रक्रिया उनके हाथ लगी। एक दिन ज्यों−ही उन्होंने अपना ध्यान आक्सफोर्ड कैम्पस स्थित बुद्ध-प्रतिमा में लगाया, तत्काल ही उन्हें अनुपम अगाध शान्ति सहज ही मिल गई। वस्तुतः बुद्ध ने मैत्री-प्रेम भावना का उतना सघन अभ्यास आजीवन किया था कि उनके स्मरण दर्शन मात्र से घृणा, पशुता एवं अशान्ति जैसे दुष्ट भाव स्वयमेव भाग जाते हैं। ऐसे “रसो वै सः” से अभिपूरित प्रतिमा पर ध्यान का आरोपण भी साधक में उन गणों का समावेश कर देता है। वस्तुतः प्रेम वह पारस है जिसके स्पर्श-मात्र से दुःख, दुःख नहीं रह जाता, बड़े से बड़ा त्याग बलिदान भी तुच्छ प्रतीत होता है। दुर्बुद्धि, शत्रुता, पशुता एवं कलुषता क्षण मात्र में छू मन्तर हो जाते हैं। निरन्तर अभ्यास से शाश्वत मानसिक शान्ति सहज सम्भव हो जाती है। प्रेम की ही शक्ति है कि नर-नारी सहजीवी के रूप में गृहस्थ के तपोवन में बने रहकर अपनी सत्ता एक-दूसरे में घुला देते हैं, निजी अस्तित्व मिटा देते हैं।

स्नेह सौजन्य और सद्व्यवहार का समन्वय नीति वान आचरण के रूप में प्रकट होता है। आध्यात्मिक उत्कृष्टता का किसने किस सीमा तक अभ्यास कर लिया इसकी परख एक ही आधार पर हो सकती है कि वह कितना नीतिवान दृष्टिकोण अपना सका और अपने व्यवहार में उसने कितनी नीति सत्ता का समावेश कर लिया। चिन्तन और व्यवहार क्षेत्र का यह समन्वित रूप ही आदर्शवादी व्यक्तित्व का ढाँचा बनाता है। इस फर्मे में विकसित हो कर ही साधारण से मनुष्य महामानव बनते-महत्वपूर्ण भूमिका निभाते देखे जाते हैं।

प्रसिद्ध चिन्तक-लेखक रूसो का मत था कि जो लोग राजनीति एवं नैतिकता को अलग-अलग समझते हैं वे सामाजिकता एवं वैयक्तिक आचार संहिता के मूलभूत दर्शन से अनभिज्ञ हैं। व्यष्टि और समष्टि दोनों ही के लिये नीतिमत्ता ही एक मात्र मार्ग है जिस पर चलकर प्रगति की जा सकती है।

कोई भी सभ्य समाज किसी प्रकार के आरोपित नियन्त्रण की आवश्यकता अनुभव नहीं करता। लेकिन जहाँ स्वार्थ ही सब कुछ है- संकीर्णता मोहग्रस्तता ही जिनके पल्ले बँधी है, उन्हें व्यक्ति नहीं, नरपशु, नरपामर की श्रेणी ही दी जा सकती है। सम्वेदना शून्य होने के नाते वे इससे ऊँचे दर्जे पर विकसित होने की योग्यता भी नहीं रखते। समाज के नैतिक अवमूल्यन से खिन्न शॉपेन हावर ने इसी कारण बारम्बार दुहराया था कि नैतिकता का उपदेश देना तो सरल है किन्तु सिखाने हेतु आधारशिला खड़ी करना एक कठिन कार्य है। यहाँ भी समाज में नीतिमत्ता का बाहुल्य है वहाँ पारस्परिक सहकार-स्नेह सद्भावना सहज ही पायी जाती है अतः वहाँ ऐसी कोई आवश्यकता रह नहीं जाती। स्वार्थ त्यागकर परमार्थ पकड़ना कभी भी सरल नहीं रहा। इस ध्येय की प्राप्ति के लिए आत्म नियन्त्रण का राजमार्ग सदा से रहा है। इस मार्ग का क्रमिक अभ्यास बचपन से चलाने के निमित्त वयस्कों को कुछ स्वीकारात्मक अभ्यासों को अपनाना और अवाँछनीयता को त्यागना पड़ता है। बच्चों की अति सुरक्षा के नाते अभिभावक अपना भय, निराशा अवसाद बालक पर थोप देते हैं जबकि दुलार के नाते उसे अनुशासनहीन न बनने देकर उनमें विश्वास एवं उत्साह-साहस जगाना चाहिये।

अति प्रेम प्रदर्शन से खिन्न होकर ‘ब्राक शिशोल’ ने लिखा था “दुर्भाग्यवश अभिभावक प्रेम के नाम पर बच्चों का भयानक अनर्थ करते हैं।”

उनके कथन का प्रयोजन यह है कि प्रेम के साथ औचित्य भी जुड़ा रहे। व्यक्ति विशेष से लगाव बढ़ा कर ऐसा कुछ न किया जाय जो दूरदर्शिता एवं नीतिमत्ता के प्रतिकूल पड़ता हो। यह भूल प्रायः अभिभावक अपने बच्चों के साथ करते रहते हैं। मैत्री के नाम पर भी ऐसा ही अनौचित्य बरता जाता है। ऐसी दशा में दूध में जहर मिल जाने की तरह प्रेम भी अपनी गरिमा से गिर जाता है और सहित करने लगता है।

प्रेम व्यवहार में दूसरों के साथ जो उदारता बरती जाती हैं उस पूँजी को आत्म नियन्त्रण के आधार पर अर्जित किया जाना है। लोभी के लिए यह किसी प्रकार भी सम्भव नहीं होता कि वह अपने को किसी प्रकार की क्षति पहुँचाये बिना दूसरों का हित साधे। दूसरों को हानि पहुँचाये बिना अपना स्वार्थ सिद्ध नहीं हो सकता और प्रेमी के लिए ऐसा कर सकना अतिकठिन है। इसलिए स्वार्थ अथवा मोह की प्रेम के साथ कोई संगति बैठती नहीं।

प्रेम प्रकारान्तर से त्याग का एक स्वरूप है। त्याग और “नैतिकता का परस्पर अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। प्रेम व्यवहार में प्रत्यक्षतः जो घाटा दीखता है वही प्रकारान्तर से महानता एवं परमार्थ परायणता के रूप में दृष्टिगोचर होता है।

व्यक्ति के पास कुछ है जो उसे धन, यश कीर्ति प्रलोभन की चुनौती देने को बाध्य करता रहता है। गैरीवाल्डी ने अपने सिपाहियों से यही तो कहा था में, तुम्हें पर्याप्त आवास, सुविधा सामग्री नहीं दे सकता। में तुम्हें भेंट में चढ़ाता हूँ भूख को, थोपे गये युद्ध को, संघर्ष और मृत्यु को। विन्स्टन चर्चिल आपदाग्रस्त देशवासियों को उपहार स्वरूप क्या देता? सिवाय खून, परिश्रम, आँसू और पसीने के। इतिहास साक्षी है कि इन राजनेताओं को कितना बड़ा जन सहयोग मिला। वास्तव में व्यक्ति में अन्तर्निहित, चिनगारी प्रसुप्त है, किन्तु जहाँ कहीं उसे त्याग, समर्पण, आत्मनियन्त्रण, आत्मानुशासन, न्याय या मर्यादा के लिए ललकारा गया, वहीं वह भड़क उठी है।

बाइबिल का यह उद्धरण “वह जो अपने आप पर नियन्त्रण कर लेता है, उत्तम है, अपेक्षाकृत उस विजेता से जो एक नगर या राज्य पर अपना आधिपत्य जमाए बैठा होता है” स्पष्ट करता है कि आत्म-नियन्त्रण एवं गौरवपूर्ण साहस ही गन्तव्य तक पहुँचाने में सहायक होता है। यह बिना प्रेम भावना एवं नीति मर्यादा के पारस्परिक सन्तुलन के सम्भव नहीं। यही वह आचार संहिता है जो मनुष्य को अपनी वर्तमान स्थिति से ऊँचा उठाकर देवोपम स्थिति में पहुँचाती है।

परिभाषाएँ कुछ भी बना दी जाय व्यवहार में उतरने वाला आचरण जब तक नीतिमत्ता प्रेरित न होगा-मनुष्य को मनुष्य नहीं कहा जा सकता। आप्तवचनों में इसी मर्यादा को मानवी गरिमा का पर्याय बताते हुए सम्वेदना सिक्त अन्तःकरण एवं उससे निस्सृत प्रेम भावना से भी व्यवहार को आध्यात्मिक जीवन का अनिवार्य अंग माना है।

परिभाषाएँ कुछ भी बना दी जाय व्यवहार में उतरने वाला आचरण जब तक नीतिमत्ता प्रेरित न होगा-मनुष्य को मनुष्य नहीं कहा जा सकता। आप्तवचनों में इसी मर्यादा को मानवी गरिमा का पर्याय बताते हुए सम्वेदना सिक्त अन्तःकरण एवं उससे निस्सृत प्रेम भावना से भी व्यवहार को आध्यात्मिक जीवन का अनिवार्य अंग माना है।


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