यज्ञ से संधि पीड़ा का निराकरण

November 1983

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शतपथ ब्राह्मण के प्रथम काण्ड के अंतर्गत छठे अध्याय के तीसरे ब्राह्मण की 35 वीं-36 वीं काण्डिका में उल्लेख मिलता है कि सर्वप्रथम जब प्रजापति को सृष्टि-संरचना का कार्य सौंपा गया तो बड़े प्रयत्न और पुरुषार्थ से उन्होंने अपना कार्य सम्पन्न किया। इस भारी गुरुतर कार्य करने से उनके जोड़ों-सन्धियों-में दर्द होने लगा। उन्हें उठने-बैठने में कष्ट होने लगा, जिसे देखकर देवों का चिन्तित होना स्वाभाविक ही था। सोच-विचार के बाद देवताओं को एक उपाय सूझा। उन्होंने ‘प्रजापति’ के कष्ट निवारण के लिए एक यज्ञ किया। इस यज्ञ के प्रभाव से ‘प्रजापति’ का सन्धिगत कष्ट दूर हो गया और वे अपना सम्पूर्ण कार्य यथावत् करने में सक्षम हो गये।

सन्धियों में दर्द क्यों हुआ ? शरीर के अन्य अवयवों को वैसी व्यथा क्यों उत्पन्न नहीं हुई? इस अनायास ही उठने वाले प्रश्न का समाधान शतपथ ने आगे चलकर स्वयं ही कर दिया है।

श्रम करने का दबाव सबसे अधिक हड्डियों के जोड़ों पर पड़ता है, वे ही चरमराते हैं। गठिया आदि के कारण उन्हीं में दर्द होता है। बुढ़ापे में वे ही अकड़ जाते हैं। यह सामान्य लोगों पर लागू होने वाली सामान्य बात हुई। फिर प्रजापति तो देवाधि देव ठहरे, उन्हें किस कारण सन्धिपात हो गया। यह कठिनाई जिस कारण उत्पन्न हुई उसका उल्लेख उसी काण्डिका में इस प्रकार किया गया है-

‘प्रजापतेर्ह वै प्रजाः ससृजानस्य। पर्वाणि विसस्त्र सुः स वै संवत्सर एवं प्रजापतिस्तस्यैतानि पर्वाण्य हो रात्रयाः सन्धी पौर्णमासी चमावस्या चऽर्त्तुमुखानि।

‘प्रजापति जब प्रजा बना चुके तो उनके जोड़ सन्धि स्थल ढीले पड़ गये। संवत्सर ‘प्रजापति’ हैं और उस जोड़ हैं, रात-दिन की सन्धियाँ, पूर्णमासी, अमावस्या और ऋतुओं का आरम्भ।

‘स विस्त्रस्तैः पर्वभिः। न शशाक सं हातं तमेतैर्हवियज्ञैर्देवा अभिषज्यन्नग्नि होत्रेणैवाहोरात्रयोः सन्धी तत्पर्वांभिषज्यंस्तत्समदधुः पौर्णमासेन चैवामावास्येन च पौर्णमासी चामावास्याँ च तत्पर्वाभिषज्यंस्तत्स मदधुश्चातुर्मांस्यैरेवऽर्त्तु मुखानि तत्पर्वाभिषज्यंस्तत्समदधुः ॥36॥

वह (प्रजापति) थके हुए सन्धि-स्थल होने से उठ नहीं सकते थे। देवों ने हवियों एवं यज्ञों द्वारा वह कष्ट दूर किया। अग्निहोत्र द्वारा उन्होंने रात-दिन की सन्धि वाले जोड़ को ठीक किया। पौर्णमास और अमावस्या के यज्ञ से पूर्णमासी और अमावस्या के जोड़ के कष्ट दूर किया और चातुर्मास-यज्ञ से उन्होंने ऋतु के आरम्भ वाले जोड़ को नीरोग बनाया।’

यहाँ पर स्वयं ब्राह्मणकार ने ‘प्रजापति’ को एक सम्वत्सर-वर्ष -के रूप में कल्पित करके सर्दी-गर्मी और बरसात की ऋतुओं के सन्धिकाल को ऋतु-सन्धि, प्रत्येक माह की पूर्णमासी और अमावस्या के सन्धिकाल को, पूर्णमासी और अमावस्या की सन्धि तथा रात-दिन के सन्धिकाल (प्रातः सायं की संध्या) को अहोरात्रि की सन्धि के रूप में कल्पित किया है। ‘देवों’ ने इन्हीं दिनों यज्ञ कार्य सम्पन्न करके अपने कार्य में सफलता प्राप्त की थी। इस कथन द्वारा मानव मात्र को इन्हीं सन्धिकालों में यज्ञ करने की प्रेरणा प्रदान की है।

यह तथ्य सुविदित ही है कि ऋतुओं का सन्धिकाल, महीनों का सन्धिकाल तथा दिन-रात का सन्धिकाल विशेष महत्वपूर्ण होता है। इस समय के दिव्य ब्राह्मी-चेतना से लाभान्वित होने के उद्देश्य से ही ऋतुओं के सन्धिकाल के समय नवरात्रियों का, मासों के सन्धिकाल पूर्णमासी व अमावस्या के व्रतादिकों का तथा दिन-रात के संधिकाल प्राप्तः सायं सन्ध्या करने का विधान किया गया है।

सन्धि दो वस्तुओं के जोड़ को कहते हैं। दिन और रात के दोनों मिलन प्रभात-संध्या एवं सुबह सायं के नाम से जाने और उपासना प्रयोजनों में प्रयुक्त किये जाते हैं। यही सन्धिकाल विग्रह, व्यथा एवं उथल-पुथल का समय होता है और बहुधा कष्ट कर असुविधा उत्पन्न करता है। जन्म के समय बालक तथा प्रसूता को कष्ट होने की-मरण काल में प्राणी तथा सम्बन्धियों की छटपटाहट देखते ही बनती है। कन्या जब पितृ ग्रह को छोड़कर ससुराल जाती है तो उसका असमंजस भी विचित्र होता है। अफसरों की बदली होती है तो उठक-पठक का झंझट कितना असुविधाजनक लगता है। राज्य बदलने, कानून उलटने, व्यवस्था में परिवर्तन होने पर भी ऐसी ही कष्टकर अनुभूतियाँ होती है। भले ही वे लाभदायक हों या हानिकारक। उपयोगी हों या अनुपयोगी।

सृष्टि निर्माण कार्य का पहला चरण पूरा करने के उपरान्त प्रजापति को दूसरे चरण में प्रवेश करना था। व्यवस्था बनाने और नियन्त्रण रखने का तन्त्र खड़ा करना था। ढर्रे का काम समाप्त हुआ तो अभिनव संयोजन का उत्तरदायित्व कन्धे पर आ गया। यही परिवर्तन बेला सन्धिकाल कहलाती है और अनभ्यस्त होने के कारण असुविधा, चिन्ता भी उत्पन्न करती है और झंझट भरी कष्ट कर भी लगती है। यह सभी के लिए होता है तो प्रजापति को क्यों न होता? सन्धिकाल में उनकी सन्धियों में दर्द होने लगा है, जकड़न का माहौल बन गया हो तो इसमें कुछ भी आश्चर्य की बात नहीं है। विश्व-व्यवस्था तो मनुष्यों की तरह देवताओं पर भी लागू होती है।

समस्या का समाधान कैसे हुआ ? यह देखने ही योग्य है। देवताओं ने यज्ञ किया और उतने भर से उपयुक्त चिकित्सा हो गई। यहाँ यज्ञोपचार से रोग निवारण की सामर्थ्य होने का जहाँ संकेत है वहाँ संकेत है वहाँ यह भी प्रतिपादन है कि उथल-पुथल के-परिवर्तन के अवसरों पर उत्पन्न हुआ असमंजस आदर्शवादी अवलम्ब स्वीकार करके किया जाना चाहिए। सुविधा को गौण और आदर्श अनुशासन को प्रमुख माना जाय तो इतने भर से अभ्यस्त ढर्रे को छोड़ने और नये क्षेत्र में प्रवेश करने की प्रक्रिया कष्टकर नहीं होती। उलटे साहसिक पराक्रम की परीक्षा देने के लिए उत्साह भरती है। और असमंजस ग्रस्त लोगों पर भी लागू होता है। शतपथ ब्राह्मण को उपरोक्त काण्डिका का यही सारगर्भित प्रतिपादन है।


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