आज के युग का समुद्र मंथन

November 1983

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अध्यात्म का लक्ष्य अंतरात्मा में सन्निहित सत्प्रवृत्तियों से बनी काया को विज्ञान सम्मत पद्धति से इस स्थिति तक उभारता जागृत करता है कि वे व्यावहारिक जीवन में ओत-प्रोत हो सके। इसी प्रकार विज्ञान का लक्ष्य प्रकृतिगत शक्तियों एवं पदार्थों के स्वरूप तथा क्रियाकलापों का अध्ययन करना है। उस अध्ययन द्वारा ऐसे निष्कर्ष प्राप्त करना है जिससे समुचित लाभ उठा कर मनुष्य अधिकाधिक सुखी सम्पन्न हो सके। प्रकृति के नियमों का अध्ययन कर, उनके अनुकरण द्वारा मानवी सुख-सुविधाओं की अभिवृद्धि करना ही मुख्यतः विज्ञान का उद्देश्य है। इस प्रकार दोनों का कार्यक्षेत्र प्रत्यक्षतः अलग होते हुए भी वे दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं, क्योंकि जीवन आत्मिक एवं भौतिक दोनों ही प्रकार के तत्वों से मिलकर बना है। जड़ चेतन के समन्वय से ही जीवन का स्वरूप प्रत्यक्ष होता है।

जीवन सत्ता के अस्तित्व में आने पर भी यह अन्तर तो मानना ही पड़ेगा कि हृदय और मस्तिष्क की तरह दोनोँ का कार्यक्षेत्र भिन्न है, जड़ और चेतन का समन्वय जीवन है लेकिन जड़ अलग है और चेतन अलग। इसी प्रकार अध्यात्म और विज्ञान का कार्यक्षेत्र भिन्न है, यद्यपि वे दोनों एक दूसरे के पूरक है।

धर्म और अध्यात्म का समग्र ढाँचा वस्तुतः नैतिक, भावनात्मक एवं सामाजिक परिष्कार की प्रक्रिया सम्पन्न करने के लिये खड़ा किया गया है । धर्मधारणा अपने मूल स्वरूप में होगी वहीं उसका लाभ आत्मसंतोष और आत्मिक उल्लास की ऐसी शक्ति के रूप में विद्यमान दिखाई देगा, जिसके सामने भौतिक दृष्टि से अभावग्रस्त जीवन जीने वाले व्यक्ति व्यक्ति भी अपना जीवन और धैर्यपूर्वक सरल सुरम्य बना सकें। लेकिन इन दिनों जन जीवन पर, आध्यात्मिक प्रभाव तेजी से घटता जा रहा है । इसका कारण है कि धर्म क्षेत्र समय के अनुरूप अपने को ढालने के लिये तैयार है और परिवर्तनों का सतत् स्वागत करता है।

आवश्यकता इस बात की है कि अध्यात्म को भी विज्ञान की भाँति उदार और गतिशील तर्क एवं तथ्य सम्मत बनाया जाय तथा उसे वान के समकक्ष ला खड़ा किया जाये ताकि दोनों का समन्वय मनुष्य जाति के लिये गंगा यमुना के संगम की तरह पावन और कल्याणकारी सिद्ध हो सके। कहा जा चुका है कि आध्यात्म और विज्ञान एक दूसरे के पूरक है तथा दोनों संतुलित गति प्रदान करने में ही मनुष्य जाति जाति का हित सधेगा। यदि धर्म को मात्र पूजा प्रक्रिया और विज्ञान को शिल्प व्यवसाय तक ही सीमित कर दिया जाये तो दोनों की गरिमा इससे घटेगी ही, बढ़ेगी नहीं। इन दोनों का परस्पर पूरक सिद्ध होना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है।

लन्दन विश्व विद्यालय के एस्ट्रोफिजीसिस्ट प्रो0 हर्बर्ट डिग्ले का कथन है कि “विज्ञान की एक सीमित परिधि है। उसका काम पदार्थ के स्वरूप एवं प्रयोग का विश्लेषण करना भर करना है। पदार्थ किसने बनाया है? किस प्रकार बना ? क्यों बना ? इसका उतर दे पाना वर्तमान स्थिति में संभव नहीं है । इसके लिये तो विज्ञान को बहुत ऊँची कक्षा में प्रवेश करना पड़ेगा। वह कक्षा उतनी ही ऊँची होगी, लगभग उसी स्तर की होगी, जितनी की अध्यात्म के तत्वाँश की समझी जाती है, आप्त वचनों में जिनका वर्णन किया जाता रहा है।

धर्म और विज्ञान को एक-दूसरे का सहायक-पूरक बनाने की आवश्यकता बताते हुए दार्शनिक पॉलटिलिच ने कहा है “कि धर्म और विज्ञान का मिलन दार्शनिक स्तर पर ही हो सकता है। दानों के क्रियाकलाप एवं प्रतिपादन की दिशाएँ अलग-अलग है और उस स्थिति में भी अलग-अलग ही बनी रहेगी। लेकिन दार्शनिक स्तर पर दोनों पूरक सिद्ध हो सकते हैं। क्योंकि धर्म का लक्ष्य आध्यात्मिक जगत में सत्य की खोज है तो विज्ञान प्रकृति के नियमों और विधि-विधानों का यथार्थ खोजना चाहता है। दोनों का ही लक्ष्य यथार्थ का-सत्य का पता लगाना है । लेकिन दोनों का एक दूसरे के कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप करेंगे तो इसमें व्यर्थ के भ्रम उत्पन्न होंगे क्योंकि न तो धर्म शास्त्रों के आधार पर खगोल, रसायन और पदार्थों का विश्लेषण सम्भव है और न भौतिक विज्ञान की प्रयोगशालाएँ ईश्वर आस्था, कर्मफल, सदाचार, भाव प्रवाह जैसे तथ्यों पर कुछ प्रमाणिक प्रकाश डाल सकती है। ऐसा केवल बौद्धिक दार्शनिक स्तर पर ही सम्भव है कि वहाँ दोनों धारायें मिल सके।

स्थल दृष्टि से विचार करने अध्यात्म और विज्ञान भले ही एक-दूसरे से भिन्न और परस्पर विरोधी प्रतीत होते हो। लेकिन दार्शनिक दृष्टि से दानों एक ही है ठीक उसी प्रकार जैसे पृथ्वी के दो ध्रुवों से अथवा शीत ग्रीष्म के ऋतु प्रभाव एक दूसरे से भिन्न दिखते हैं। लेकिन सभी परस्पर संबद्ध हैं । उसी प्रकार कार्यक्षेत्र, शैली और पद्धति से अध्यात्म और वान एक दूसरे के पूरक ही है। इसलिये यह भी एक तथ्य है कि दानों में से एक के आधार पर जो निष्कर्ष निकाला जायेगा वह अपूर्ण ही रहेगा। पदार्थ में चेतना का अस्तित्व और चेतना के सक्रिय रहने में भौतिक पदार्थों की आवश्यकता पड़ती है। इस दृष्टि से भी अध्यात्म शास्त्र और वान को एक दूसरे का पूरक व सहयोगी बनना चाहिये परन्तु हुआ अन्य ही है। धर्म और विज्ञान एक-दूसरे के पूरक बनने की अपेक्षा आज की परिस्थितियों में तो विरोधी सिद्ध होते जा रहे हैं।

वैज्ञानिकों ने जो नये तथ्य खोजे उन्हें स्वीकार करने से धार्मिकों ने यह कह कर इन्कार कर दिया कि वे अध्यात्म सम्मत नहीं है। उसी प्रकार धार्मिक सत्यों को विज्ञान यह कह कर झुठलाने लगा कि ये बातें प्रयोगशाला में सिद्ध नहीं होती। इस विरोधी प्रतिपादन में बुद्धिजीवी वर्ग विज्ञान से ही प्रभावित हुआ क्यों कि विज्ञान ने नित नये का स्वागत किया और और उसे स्वीकार करने तथा अपनी पिछली भूलों को मानने एवं उन्हें सुधारने में सदैव में सदैव बेहिचक तैयार रहे। यदि धर्म क्षेत्र के लिये भी शोध और सुधार का अन्वेषण और मंथन का का क्षेत्र खुला रखा जा सके तो, उसे भी भी वैसी मान्यता मिलेगी जैसी कि विज्ञान को प्राप्त हुई है।

आज आवश्यकता है अध्यात्म को विज्ञान के साथ मिलकर चलने हेतु बाध्य किया जाये और उसे नये का स्वागत करने की सीख लेने को कहा जाय। इसी प्रकार विज्ञान को अध्यात्म कसे मनुष्य के हित में प्रकृति की शक्तियों के उपयोग की सीख लेनी पड़ेगी और अपने को भी विध्वंस से मुक्त रखना पड़ेगा। मनुष्य के हित और समाज का उत्कर्ष अध्यात्म तथा विज्ञान दोनों का ही लक्ष्य है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये गहराई में जाना है, दूसरी ऊंची उड़ान भरनी है। तो जरूरी है कि धर्म और विज्ञान को एक दूसरे विरोधी नहीं पूरक और सहायक ही बनाया जाये। थोड़े-थोड़े सुधार के साथ दानों ही परस्पर मिल कर इस लक्ष्य को त्वरित गति से प्राप्त कर सकते हैं।

यह कार्य कठिन नहीं। मात्र दुराग्रहों से मुक्ति पाना भर है। दुराग्रह पूर्वाग्रह दोनों ही ओर से है। अध्यात्म अपनी पूर्व मान्यताओं से हटना नहीं चाहता तो वान दृश्य दृश्य के प्रत्यक्ष को ही सबकुछ माने बैठा है। अध्यात्म को श्रद्धा प्रतिपादनों हेतु तर्क तथ्य की कसौटी पर खड़े होने के लिये स्वयं को तैयार करना है तो वान को प्रत्यक्षवाद की ही नहीं -दार्शनिक मान्यताओं के दृढ़ आधारों की भी पुष्टि करनी है। मनीषी एवं वैज्ञानिक गणों के पारस्परिक सहयोग से - इस समुद्र मन्थन रूपी असम्भाव्य पुरुषार्थ को भी सम्पन्न किया जा सकता है ।


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