वेद और विज्ञान-ब्रह्माँड विकास का तुलनात्मक अनुसंधान

October 1970

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‘संसार में जो कुछ भी है वह सापेक्ष है। 1. समय या काल (टाइम) 2. ब्रह्माँड (स्पेश) 3. गति (मोशन) और 4. कारण (काजेशन)- नाम की कोई मूल वस्तुयें नहीं हैं वरन् यह परस्पर तुलनायें हैं, जो ज्ञान,भावना, विचार या अनुभूति में सन्निहित हैं।’

समय क्या है?- कोई घटना प्रारंभ होती है, फिर वह कहीं-न-कहीं जाकर समाप्त होती है। इन दोनों की अनुभूति के अन्तर का नाम समय है। 2. चन्द्रमा कोई स्वतंत्र ब्रह्माँड नहीं । जिस तरह अनेक प्रकार के तत्वों से पृथ्वी बनी है, वैसे ही तारामण्डल के समस्त तारागण पदार्थ से बने हैं। इन सब के बीच समान वस्तुओं में आकर्षण का सिद्धाँत काम करता है। इसलिये प्रत्येक ब्रह्माँड में दूसरे की तुलना में कुछ तत्व अधिक, कुछ कम होते हैं। पृथ्वी में धूलि के कण अधिक हैं, सूर्य में हीलियम अथवा अग्नि के। परमाणुओं की तुलना में ब्रह्माँडों की स्थिति का पता चलता है। यदि परमाणुओं में समान-जातीय गठबंधन न होता तो ब्रह्माँड ही नहीं पदार्थों की भी अनुभूति नहीं होती। 3. इसी प्रकार गति भी सापेक्ष है। कलकत्ते से हवाई जहाज उड़ता है और लन्दन तक पहुँचने में 36 घण्टे लेता है। यह हमारी पार्थिव माप है। यदि हम सूर्य में बैठे हुए हों, तो चूँकि सूर्य भी अपने सौर मण्डल को लेकर चल रहा है, इसलिये वहाँ की गति भी हमें प्रभावित करेगी। तब यह 36 घण्टे का समय हमें आँच मिचकने जितना कम लगेगा।

ऐसे 4 कारण सिद्धाँत भी हैं। अब वैज्ञानिक भी मानने लगे हैं कि संसार में जो भी पदार्थ हैं वह सब शक्ति हैं और संगठित होकर पदार्थ बनाने वाले प्रोटानों एवं इलेक्ट्रानों की संख्या यदि कम या अधिक की जा सके, जो कि प्रकृति में अपने आप होता रहता है, तो एक पदार्थ को दूसरे पदार्थ में भौतिक रूप से भी बदलकर दिखाया जा सकता है। उदाहरण के लिये आवर्ती सारणी (पीरियाडिक टेबल) में इरीडियम, प्लैटिनम, गोल्ड (सोना) और मरकरी (पारा) का परमाणु क्रमाँक या प्रोटानों की संख्या क्रमशः 77, 78, 79 और 80 होती है। यदि 80 प्रोटानों वाले मरकरी (पारा) परमाणु से एक प्रोटोन कम कर दें तो वही परमाणु सोने का परमाणु हो जायेगा। अब यदि उसमें से भी एक प्रोटान निकाल बाहर करें तो वही सोना प्लैटिनम में, प्लेटिनम इरीडियम में, इरीडियम क्रमशः ओस्मियम, रीनियम, टंगस्टन आदि में बदलते-बदलते हाइड्रोजन तक अर्थात् कुल एक प्रोटोन वाले सबसे हल्के तत्व में बदल जायेगा।

हाइड्रोजन से भी हल्का कोई तत्व संसार में है, यह वैज्ञानिकों को ज्ञात नहीं। इन तत्वों की मूल स्थिति ही सर्वोच्च कारण होनी चाहिए जैसा कि ऊपर के विश्लेषण से पता चलता है। पर वैज्ञानिक उसे अन्तिम रूप से स्थिर नहीं कर सके।

यहाँ तक जो कुछ लिखा गया वह आइन्स्टीन के सापेक्ष सिद्धाँत का खुलासा मात्र है। इससे सृष्टि की विकास प्रक्रिया की गहराई में प्रवेश करने का बहुत-सा मसाला मिल जाता है। सच कहा जाये तो महावैज्ञानिक आइन्स्टीन ने भारतीय तत्व दर्शन की भौतिक सीमायें पार कर ली थीं, पर भाव-दर्शन की उन्हें जानकारी थी नहीं अन्यथा लोग देखते कि संपूर्ण विज्ञान भारतीय अध्यात्मवाद पर ही उतर आया है।

1922 में सोवियत वैज्ञानिक अलेक्सान्देर फ्रीडमैन ने आइन्स्टीन के उपरोक्त सिद्धाँत का गहन अध्ययन कर यह बताया कि इस सिद्धाँत का अर्थ यह हुआ कि ब्रह्माण्ड फैल रहा है अर्थात् पहले कभी सारा संसार किसी छोटे-से-छोटे व्यास वाले बिन्दु में समाया था- इतने दिनों बाद वह फैलता-फैलता 10 करोड़ नीहारिकाओं (नोबुला) और 50 करोड़ प्रकाश वर्ष के घेरे में आ पहुँचा और वह अभी भी तब तक बढ़ता जायेगा जब तक कि पुनः प्रलय नहीं हो जायेगी।

रूस के ही दूसरे भौतिक शास्त्री क्रुत्सोव ने फ्रीडमैन का लिखा हुआ यह परिपत्र आइन्स्टीन को दिखाया तो वही आइन्स्टीन, जिन्होंने इतने बड़े सिद्धाँत को जन्म दिया था, उक्त धारणा से इन्कार कर बैठे। किन्तु उसके एक वर्ष बाद ही आइन्स्टीन को अपनी भूल मालूम पड़ गई। उन्होंने गणितीय व्याख्या के आधार पर यह सिद्ध कर दिखाया कि सचमुच ब्रह्माँड फैल रहा है। प्रारंभ में वह एक बहुत सघन पीटे हुए वजनदार गोले की तरह था- और अब जो संसार है, वह भी अनन्त नहीं है अर्थात् ब्रह्माँड (स्पेश) की कहीं पर सीमा है।

संसार सीमित है, संसार असीम है। संसार एक है, संसार अनेक हैं, संसार प्रकाश है, संसार सघन अन्धकार है- इस तरह के परस्पर विरोधाभास कथन भ्रमोत्पादक अवश्य हैं, पर हैं सत्य। वस्तुतः संसार ऐसा ही है। विद्युत न गर्म है न सर्द और गर्म व शीत दोनों धाराएं उसमें है।

इन चक्कर में डालने वाले सिद्धाँतों ने वैज्ञानिकों को ब्रह्माँड-विकास की सही जानकारी प्राप्त करने के लिये उकसाया। तब से अब तक लगातार असंख्य खोजें हुई हैं और वे फ्रीडमेन की उक्त कल्पना की ही पुष्टि नहीं करतीं वरन् अब उससे भी आगे निकलकर भारतीय अध्यात्म के प्रतिपादनों को छूने लगी हैं यह पाठक अगली पंक्तियों में स्पष्ट देखेंगे

ब्रह्माँड के विकास की जानकारी के लिये आजकल अनेक विशालकाय और साधन सम्पन्न वेधशालाएं अध्ययन और प्रयोगरत हैं। अनजाने ‘क्वासार’ प्रकाश तरंगों से यह अनुमान लगाया जा रहा है कि अत्यन्त सूक्ष्म अवस्था में अनेक तत्व गैस की स्थिति में बहती हुई नीहारिकाएं (नोबुला) किसी न चुकने वाले ऐसे प्रकाश स्रोत से आ रही हैं जो सम्पूर्ण सृष्टि का केन्द्र बिन्दु है, उसके वर्तमान स्वरूप का अभी पता नहीं है। पर वैज्ञानिक उसकी पूर्व स्थिति का पता लगाने में अवश्य जुटे हैं।

अभी इस क्षेत्र में अधिकाँश परिकल्पनाएं ही काम कर रही हैं। कोई तो कहता है कि जिन प्रारंभिक कणों से ब्रह्माँड की रचना हुई वह इतने गर्म थे कि ब्रह्माँड का जब विस्तार प्रारंभ हुआ तब उसके कुल दस मिनट बाद तापमान एक अरब डिग्री सेन्टीग्रेड था। उसमें स्थूल कण न होकर केवल न्यूट्रॉन थे। रूस के वैज्ञानिक डॉ. चाकोब जेल्डोविच का विचार इससे भिन्न है। उनका कहना है कि सृष्टि के मूल विकास की प्रक्रिया हाइड्रोजन से प्रारंभ होती है। उसमें भाग लेने वाले अणुओं में अकेले न्यूट्रॉन ही नहीं थे वरन् प्रोटोन, इलेक्ट्रान भी थे। अत्यधिक शीत के कारण हाइड्रोजन एक जमे हुए पदार्थ के रूप में था। वही टूट-टूट कर बूँद और परमाणुओं के रूप में फैलता चला गया और तापमान तथा वायु दाब (प्रेशर) आदि की विभिन्न परिस्थितियों में आवर्ती सारिणी के अनेक पदार्थों में बदलता चला गया। आज जो अनेक तारागण, पृथ्वी आदि दिखाई देते हैं वह सब इस जमे हुए हाइड्रोजन के ही परिवर्तित और परिवर्द्धित रूप हैं।

ब्रह्माँड-विकास की इस वैज्ञानिक जानकारी को जब सृष्टि-उत्पत्ति विषयक ऋषि प्रणीत वेद से तुलना करते हैं तो पता चलता है कि हमारी जानकारियाँ कितनी अत्याधुनिक तथा दर्शन कितना विज्ञानसम्मत रहा है। विज्ञान की दिनों दिन बढ़ती प्रगति निरन्तर भारतीय सिद्धाँतों की ही पुष्टि करती चली जा रही हैं। जो लोग यह सोचते हैं कि भारतीयों ने केवल भावनाओं की ही महत्ता प्रतिपादित की, उन्हें अब यह भी जानना चाहिए कि हमारा प्रत्येक प्रतिपादन भौतिक विज्ञान की ही आधारशिला पर रहा है।

ऋग्वेद के (10।90) पुरुष सूक्त और दशवें मण्डल में प्रयुक्त कई सूक्त, मंत्र या ऋचाओं में सृष्टि विकास विषयक जो भी निर्देशन है वह न केवल उपरोक्त वैज्ञानिक अनुसंधानों से मेल खाता है वरन् उससे भी परिमार्जित शुद्ध ज्ञान है। साथ ही उसमें आत्मा के उत्थान और विकास का विज्ञान भी संयुक्त होने के कारण वह मनुष्य मात्र के लिए लाभदायक भी है।

भौतिक शास्त्रियों ने हाइड्रोजन सरीखे किसी पदार्थ को ब्रह्माँड विकास का मूल माना है। इस संबंध में सभी वैज्ञानिकों में मतभेद है जबकि हमारे सभी प्राचीन ग्रंथकार इस संबंध में एकमत रहे हैं कि यह संपूर्ण जगत एक ही पुरुष या परमात्मा की इच्छा या आदि तत्व में क्षोभ के कारण उत्पन्न हुआ। पुरुष शब्द का अर्थ मनुष्य से जान पड़ता है। पर वस्तुतः पुरुष का अर्थ ‘सम्पूर्ण जीव जगत में व्याप्त चेतना’ से है, जो अव्यक्त, अक्षर, अविनाशी और अनादि है। उसे ही परब्रह्म कहा है। श्वेताश्वतर उपनिषद् के ऋषि से एक जिज्ञासु प्रश्न करता है-

कालः स्वभावो नियतिर्यदृच्छा भूतानि योनिः पुरुष इति चिन्त्यम् 1।2

महात्मन्! काल, स्वभाव, नियति, यदृच्छा, पंचभूत, प्रकृति तथा पुरुष में प्रधान कौन है?

इस पर उपनिषद्कार उत्तर देता है- ‘स तं परं पुरुषं उपैति दिव्यम्’- वह दिव्य पुरुष ही प्रधान है।

आइन्स्टीन ने सृष्टि के मुख्य मानक (फैक्ट्स) चार ही माने थे। पर सच बात यह है कि- ‘मनुष्य के स्वभाव और विराट चेतना की कार्य-प्रणाली प्रकृति के स्वभाव और क्रिया की जानकारी’ भी उसमें पाँचवीं संयुक्त होनी चाहिए। संसार जितना दृश्य है उतना ही मानसिक और आत्मिक भी। आत्मा और मन के विज्ञान को छोड़ा नहीं जा सकता।

चेतना जो पुरुष रूप में भी थी वह ‘हरिण्यगर्म’ तथा ‘प्रजापति’ रूप में थी। हिरण्यगर्भ का अर्थ ‘प्रकाश व अग्नि स्वरूप’ और प्रजापति का अर्थ ‘उसमें भरी हुई चेतना, इच्छा व विचार शक्ति’ से ही है। फिर जब उस पुरुष में क्षोभ उत्पन्न हुआ, तो उसने अपने तेजस कणों से शीत कणों की उत्पत्ति की (पुरुष भी तत्व है) उन्हें आपःकण कहा गया। इन आपः, जिनका अर्थ सलिल होता है, को हाइड्रोजन ही मानना चाहिए। क्योंकि आपः का अर्थ स्थूल जल से नहीं, सूक्ष्म जल से है और हाइड्रोजन भी जल बनाने वाला ही तत्व है।

यहाँ से भारतीय विज्ञान व पाश्चात्य विज्ञान में तुलना प्रारंभ हो जाती है- अपाँ सघातो विलयनंच तेजः संयोगात्’ वैशेषिक दर्शन 5।2।8। इन आपः कणों में संपीड़न (प्रेशर) उत्पन्न होने से क्रमशः एक परमाणु एक अणु (हाइड्रोजन) द्वयणुक अर्थात् दो प्रोटोन या इलेक्ट्रान वाला [होलियम] त्रसरेणु अर्थात् तीन इलेक्ट्रान वाला (लीथियम) आदि अनेक गैसों, धातुओं, खनिजों आदि प्रकृति की उत्पत्ति होती चली गई।

यह क्रम आवर्ती सारिणी के अनुसार ही है। पर हमारे यहाँ आपः (जल), अग्नि और वायु की स्थिति को मुख्य माना है। धातुओं और खनिजों में उनकी उपस्थिति अनिवार्य रूप से रहती है। इसलिये यह सब तत्व नहीं माने गये, जो ठीक भी है। तत्व तो वह हैं जो रासायनिक क्रिया में भाग लेते हैं। रासायनिक क्रिया में मूल रूप से अग्नि, जल, वायु (एअर प्रेशर और टेम्परेचर) ही भाग लेते हैं, इसलिये उन्हीं को तत्व कहा जाना ठीक है। यदि अग्नि, आपः और दबाव आदि न हो तो रासायनिक क्रिया कभी हो ही नहीं सकती।

इस तरह सृष्टि-विकास की मूल प्रक्रिया अग्नि और जल-कणों से ही गैस रूप में होती है। नीहारिका एक प्रकार की गैस ही है जो वायु के संसर्ग में आते ही दूसरे-दूसरे भौतिक तत्वों की उत्पत्ति और अनेक ब्रह्माँडों का सृजन करती है। शतपथ ब्राह्मण के छठवें काँड में लिखा है-

सोऽयं पुरुषः प्रजापतिरकामयत्---ब्रह्मैव प्रथममसृजत त्रयीमेव विद्याम्---॥8॥ सोऽपोऽसृजत। वाच एव लोकात् वागेवास्य सासृज्यत्। सेदं सर्वम् आप्नोद यदिदं किं च यदाप्नोत् तस्मादायः यदवृणोत् तस्माद्वा॥9॥

अर्थात् प्रारंभ अग्नि रूप-पुरुष-प्रजापति ने अपने आप को एक से बहुत होने की इच्छा की। तब उससे आपः उत्पन्न हुए, उसने ही सर्वप्रथम शब्द उत्पन्न कर इन आपः कणों को उससे आच्छादित किया।

यत्र वै यज्ञस्य शिरोऽच्छिद्यत तस्य रसो द्रत्वापः प्रविवेश तेनैवैतद् रसेन आपः स्यन्दन्ते।

अर्थात् प्रजापति का शिर छिन्न हुआ, उसका रस बहकर आपों में प्रविष्ट हुआ। वह रस ही आता है-जो आपः बहते हैं।

यह आपः ही गैस अवस्था में जल परमाणुओं वाली नीहारिकाएं हैं, जो ब्रह्म से बहती हुई अनेक ब्रह्माँडों की रचना करती हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि जहाँ विज्ञान वाला भाग वेद और भौतिक विज्ञान दोनों में मिलता-जुलता है, वहाँ पुरुष का अर्थात् ईश्वर का सिद्धाँत गलत नहीं होना चाहिए।

भारतीय तत्व-दर्शन की पुष्टि में साइन्स का सिद्धाँत बड़ा सहायक सिद्ध हुआ है कि आपः में शब्द को आच्छादित किया। अन्तरिक्षे दुन्दुभयो वितना बदन्ति-अधिकुम्भाः पर्यायन्ति। (जैमिनि 2।404)। अर्थात् अन्तरिक्ष में दुन्दुभि के समान विस्तृत और सर्वव्यापी परम वाक्-ध्वनि होती रहती है। अब तक यह बात समझ में आने न वाली थी पर जब सूर्य की खोज करते-करते सन 1942 में मक्क्रिय ने इस तरह की ध्वनि सचमुच सुनी तो वह आश्चर्यचकित रह गया। उसने अपनी ‘फिजिक्स आफ दि सन एण्ड स्टार्स’ पुस्तक के 83 पेज पर लिखा है कि- ‘श्री जे.एस. दे द्वारा वर्णित सूर्य से आने वाली ध्वनि (सोलर न्वाइज) गलत नहीं है वरन् सूर्य की ध्वनि की तरह ही और भी तारा-मण्डलों (ग्लैक्सीज) से ध्वनि तरंगें आ रही हैं। वह सौर-घोष सोलर न्वाइज के समान ही हैं। उनका अनुसंधान किया जाना बहुत आवश्यक है।’

इस कथन से यह सिद्ध होता है कि आकाश कहीं भी शून्य नहीं है। यदि ऐसा होता तो ध्वनियाँ नहीं आतीं। शब्द-कम्पन किसी-न-किसी माध्यम से ही चलते हैं। वैज्ञानिकों की यह खोजें जब उस आदि केन्द्र तक पहुँचेंगी, जहाँ से ब्रह्म प्रकीर्ण होता है, तब न केवल समय व ब्रह्माँड सीमित हो जायेंगे वरन् समस्त वाक् भी ‘ऊँ’ जैसी किसी विराट ध्वनि में समाये दिखाई देंगे। वहाँ सापेक्ष कुछ भी नहीं होता, सब कुछ अमर, आनन्दमय और परिपूर्ण होता है। उसे प्राप्त करने का भाव विज्ञान भी आइन्स्टीन और दूसरे वैज्ञानिक प्रकट कर सकें-संसार का दिग्भ्रम तभी दूर हो सकता है।

उस मूल निरपेक्ष, अव्यक्त और अक्षर, चेतना तक आत्मचेतना की गति का वैज्ञानिक विश्लेषण अन्यत्र करेंगे। उसके लिये यह जानकारी बहुत सहायक होगी।


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