व्यर्थ की कल्पना

October 1970

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एक युवक ने स्वप्न में देखा कि वह किसी बड़े राज्य का राजा हो गया है। स्वप्न में मिली इस आकस्मिक विभूति के कारण उसकी प्रसन्नता का ठिकाना न रहा।

प्रातःकाल पिता ने काम पर चलने को कहा, माँ ने लड़कियाँ काट लाने की आज्ञा दी, धर्मपत्नी ने बाजार से सौदा लाने का आग्रह किया। पर युवक ने कोई भी काम न कर एक ही उत्तर दिया- ‘मैं राजा हूँ, मैं कोई काम कैसे कर सकता हूँ?’

घर वाले बड़े हैरान थे आखिर क्या किया जाये? तब कमान संभाली उसकी छोटी बहिन ने। एक-एक कर उसने सबको बुलाकर चौके में भोजन करा दिया अकेले खयाली महाराज ही बैठे-के-बैठे रह गये।

शाम हो गई, भूख से आँतें कुलबुलाने लगीं। आखिर जब रहा नहीं गया तो उसने बहन से कहा- क्यों री! मुझे खाना नहीं देगी क्या?

बालिका ने मुँह बनाते हुए कहा- ‘राजाधिराज! रात आने दीजिये, परियाँ आकाश से उतरेंगी, वही आपके उपयुक्त भोजन प्रस्तुत करेंगी। हमारे रूखे-सूखे भोजन से आपको सन्तोष कहाँ होता?’

व्यर्थ की कल्पनाओं में विचरण करने वाले युवक ने हार मानी और मान लिया कि धरती पर रहने वाले मनुष्य को निरर्थक लौकिक एवं भौतिक कल्पनाओं में ही न डूबे रहना चाहिए वरन् जीवन का जो शाश्वत और सनातन सत्य है उसे प्राप्त और धारण करने का प्रयत्न भी करना चाहिए’- इतना मान लेने पर ही उसे भोजन मिल सका।


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