हमारी प्रगति उत्कृष्टता की दिशा में हो।

October 1970

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मनुष्य अपना शिल्पी आप है। प्रारंभ में वह एक चेतन-पिण्ड के रूप में ही उत्पन्न होता है। अपने जन्म के साथ न तो वह गुणी होता है, न बुद्धिमान, न विद्वान और न किसी विशेषता का अधिकारी। परमात्मा उसे मानवमूर्ति के रूप में जन्म देता है और बीज रूप में उपयोगी शक्तियों को उसके साथ कर देता है। इसके बाद का सारा काम स्वयं मनुष्य को करना होता है। अपने इस उत्तरदायित्व के अनुसार वह स्वतंत्र है कि अपनी रचना योग्यतापूर्वक करे अथवा अयोग्यतापूर्वक। जो अपनी रचना योग्यतापूर्वक करते हैं पुरस्कार रूप में वे परम पद पाकर चिदानन्द के अधिकारी होते हैं। और जो अपनी रचना में असफल होते हैं वे जन्म-मरण के चक्र में चौरासी लाख योनियों की यातना सहते हैं।

मानव-पिण्ड के रूप में आया प्रारंभिक मनुष्य अपने वंश के अनुसार विकसित होता हुआ अपना निर्माण प्रारंभ कर देता है। अपनी सूझ-बूझ और निर्णय के अनुसार कोई धनवान बनता है, कोई विद्वान बनता है, कोई व्यापारी बनता है तो कोई श्रमिक। कोई पापी बनता है तो कोई पुण्यात्मा। मानव-निर्माण का कोई एक स्वरूप नहीं, असंख्य स्वरूप एवं प्रकार हैं। किन्तु उन सबको बाँटकर दो प्रकारों में किया जा सकता है। एक उत्कृष्ट निर्माण दूसरा निकृष्ट निर्माण। मनुष्य कुछ भी बने, किसी क्षेत्र अथवा किसी दिशा में बढ़े, विकास करे, यदि उसमें उसने श्रेष्ठता का समावेश किया हुआ है तो उसका उत्कृष्ट निर्माण ही कहा जायेगा और यदि वह उसमें अधमता का समावेश करता है तो उसका निर्माण निकृष्ट ही माना जायेगा। उदाहरणार्थ यदि वह धन के क्षेत्र में बढ़कर अपना निर्माण धनाढ्य के रूप में करता है किन्तु इसकी सिद्धि में दुष्ट साधनों तथा उपायों का प्रयोग करता है, तो कहना होगा कि वह अपना निर्माण निकृष्ट कोटि का कर रहा है। यदि वह उसकी सिद्धि में सत्य, शिव, और सुन्दर से सुशोभित साधनों तथा उपायों का अवलम्बन करता है तो कहना होगा कि वह अपना निर्माण उत्कृष्ट कोटि का कर रहा है। इस प्रकार मनुष्य का कोई भी आत्मनिर्माण, या तो उत्कृष्ट कोटि का होता है अथवा निकृष्ट कोटि का।

निर्माण निर्माण है। वह कैसा भी हो-आखिर वह निर्माण ही है-इस उक्ति को मान्यता नहीं दी जा सकती। यदि निकृष्ट निर्माण को भी मान्यता दी जाने लगेगी, तो संसार में उत्कृष्टता एवं श्रेष्ठता का कोई मूल्य-महत्व ही न रह जायेगा। निर्माण संज्ञा का वास्तविक अधिकारी उत्कृष्ट निर्माण ही हो सकता है, निकृष्ट निर्माण नहीं। अपने को धनवान अथवा विद्वान निर्माण करने में जिसने अयोग्य तथा अनुचित उपायों का प्रयोग किया है उसे यदि धनवान और विद्वान मान लिया जायेगा तो फिर चोर, धूर्त अथवा ठग किसे कहा जायेगा और इस तथाकथित धनवान तथा विद्वान में क्या अन्तर रह जायेगा जिसने परिश्रम, पुरुषार्थ, अध्यवसाय एवं तपस्या के आधार पर अपना निर्माण किया है। शिव और अशिव के दो विरोधी उपायों से अर्जित उपलब्धियों को समान श्रेय नहीं दिया जा सकता। यदि कोई ऐसा करता अथवा मानता है तो वह या तो अज्ञानी है अथवा अधम प्रकृति का व्यक्ति। उत्कृष्ट निर्माण ही निर्माण है और निकृष्ट निर्माण मिथ्या क्रियाकलाप। अस्तु, उचित यही है कि वह जिस क्षेत्र में अपना निर्माण करे तो उत्कृष्ट रीति से ही करे, नहीं तो कंचन के रूप में पापों की गठरी बाँधने से कहीं अच्छा है कि वह निर्धन और गरीब बना रहे।

उत्कृष्ट निर्माण का आधार धर्म है। धर्म का अर्थ अधिकतर लोग पूजा-पाठ, जप, उपासना, कीर्तन, भक्ति आदि ही मानते हैं। इसीलिये जीवन के अन्य कार्यक्रमों के साथ एक छोटा-सा धार्मिक कार्यक्रम और जोड़ कर समझते हैं कि दुनियादारी के साथ-साथ धर्म का भी निर्वाह करते है। पूजा-पाठ आदिक कार्यक्रम को धर्म मानने वाले यह नहीं समझ पाते कि संसार का हर काम का एक धर्म होता है। उसके कुछ आदर्श और नियम होते हैं। पूजा-पाठ के कार्यक्रमों के साथ जीवनक्रम के हर काम के आदर्श और नियम निर्वाह करने वाले को ही सच्चा धार्मिक कहा जा सकता है। केवल मात्र पूजा-पाठ, जप-तप, तक ही सीमित रहकर यदि कोई चाहे कि वह अपना उत्कृष्ट निर्माण कर लेगा, तो उसे निराश ही रहना होगा। उत्कृष्ट निर्माण तभी संभव होगा जब जीवन की प्रत्येक गतिविधि का धर्मनिर्वाह किया जायेगा। कोई पूजा-पाठ तो करता रहे, साथ ही कार-रोजगार, आचार-व्यवहार में असत्य, मिथ्या और बेईमान बना रहे तो उसका निर्माण निकृष्ट कोटि का ही हो सकेगा। जीवन क्रम में पग-पग पर ईमानदार, सत्परायण और आदर्शवान् बने रहने पर यदि कोई पूजा-पाठ वाले धर्म के लिये समय नहीं दे पाता तो भी उसका निर्माण उत्कृष्ट ही होगा। उस छोटी-सी कमी के कारण उसकी जीवन तपस्या असफल नहीं हो सकती।

जीवन निर्माता धर्म का आधार है सत्य और ईमानदारी। मनुष्य जो कुछ कहे, करे और सोचे उसका आधार सत्य ही होना चाहिए। जिसने आत्म-निर्माण के लिये धनाढ्यता को आदर्श बनाया है उसे चाहिये कि वह धन के लिये जिस व्यवस्था को अपनाया है उसमें पूरी तरह ईमानदार रहे। यदि दुकानदारी करता है तो पूरा तोले, उचित मूल्य ले। खरा माल दे, ठीक पैसे बतलाये। वस्तु, मूल्य तथा उसके गुण बतलाते समय सच बोले। जिस कीमत में किसी एक ग्राहक को वस्तु दे उसी कीमत में दूसरे को। मुनाफा कमाने के लिये वस्तुएं छिपाकर न रखे। होते हुए भी किसी से इन्कार न करे। आबाल वृद्ध सभी के साथ उसकी इसी प्रकार की एक जैसी ही नीति रहनी चाहिए। किसी अनजान, अबोध अथवा निर्बल से चीज होते हुए भी इनकार कर देना अथवा ज्यादा दाम लेकर देना और किसी जानकार, बुद्धिमान अथवा बलवान व्यक्ति को अलभ्य वस्तुएं भी ठीक दामों पर दे देना, व्यापार जैसे पवित्र काम में एक बड़ा कलंक है।

व्यापारियों और कारखानेदारों को चाहिए कि वे खरा माल बेचें-बनायें, नकली अथवा निकृष्ट माल बाजार में न भेजें, अधिक मुनाफाखोरी से बचें। लागत के अनुसार कीमत लें। मजदूरों तथा कर्मचारियों को उचित पारिश्रमिक दें। शोषण, मुनाफाखोरी और कालाबाज़ारी की नीति से बचें। इन सब आदर्शों के साथ धनाढ्यता का लक्ष्य पाने वाले ही उस दिशा में अपने निर्माता माने जाएंगे।

जिसका लक्ष्य एक अच्छा श्रमिक बनना हो वह किसी भी काम काम को पूरे तन-मन के साथ पूरे समय भर करे। पारिश्रमिक की मात्रा के अनुसार अपने श्रम की मात्रा घटाने बढ़ाने के बजाय हर स्थिति में पूरी ईमानदारी बरते अर्थात् पारिश्रमिक भले ही कम हो लेकिन अपने श्रमदान की मात्रा पूरी रखे। कर्मचारियों को चाहिए कि वे अपने कर्त्तव्य और उत्तरदायित्व का निर्वाह पूरी ईमानदारी के साथ करें। उनके काम पर आने का जो नियत समय हो, अकारण ही उससे देर न करें। पूरे समय पर एकनिष्ठ भाव से काम करें। समय पूरा होने से पहले काम न छोड़ें। कामचोरी, रहस्योद्घाटन, चुगली, पिशुनता आदि से बचे रहें। इस प्रकार अपने साधारण कामों में भी पूरी ईमानदारी और सत्य का निर्वाह करके आत्म-निर्माण किया जा सकता है।


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