ज्ञान यज्ञ करना है (kavita)

October 1970

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ज्ञान यज्ञ करना है।

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समिधा के सम्बल से, सत्य सिद्धि संज्ञा से,

हिल-मिल बुहारना है, पंथ के बबूल को।

सत्पथ में बढ़ना है,

तम-गिरि से लड़ना है,

आत्म-शक्ति मंत्र जगा-

शाँति-मूर्ति गढ़ना है।

जन हित में जीना है, जन हित में मरना है,

माथे पर मलना है, सेवा की धूल को।

दर्द भरे जंगल में,

दुनिया की हल-चल में,

ज्ञान-यज्ञ करना है-

जीवन की मंजिल में।

आँधी में, पानी में, युग के तूफानों में,

मुखरित नित करना है, श्रद्धा के फल को।

मत-दर्पण मैला है,

अंधियारा फैला है,

माया की नगरी में-

प्राण-पिक अकेला है।

संभल-संभल चलना है, गिर-गिर के उठना है,

पहले सुधारना है, अपनी ही भूल को।

निष्ठा के बागी को,

कुँठा के रागी को,

मुट्ठी में बाँधो तुम-

तम के अनुरागी को।

सोने को, चाँदी को, युग-युग की आँधी को,

करना निर्मूल तुम्हें, पंथ के बबूल को

बाबूलाल जैन ‘जलज’

*समाप्त*


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