शारीरिक शक्ति से बृहत्तर-इच्छा शक्ति

October 1970

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कह नहीं सकता किस जीवन के कौन से संस्कार थे कि शरीर तो दुबला-पतला ही था किन्तु बाल्यावस्था से ही मन किया करता है कि कोई शेर या चीता मिले तो उससे कुश्ती लडूँ? यह कमजोर शरीर ही था जो निराश करता था वरना राजकुमार भरत की तरह छोटे में ही कई बार बाघ के दाँत तोड़ चुका होता।

जो इच्छा-शक्ति कुछ दिन पहले जंगली जानवरों से लड़ने की ओर मुड़ी थी अब वह अन्तर्मुखी हो उठी। मैं दिन-रात यही सोचा करता कि मैं बहुत शक्तिशाली हो जाऊं, मेरा शरीर बलवान हो जाये, मेरे रग-पुट्ठे सुदृढ़ और सुडौल हो जायें, मुट्ठी भीचूँ तो गदेलियों से पसीना छूट जाये। मुझे तब पता नहीं था कि इच्छा शक्ति में भी कुछ जादू होता है, पर मैंने उसे अपने आप में सचमुच जादू पाया। मेरा स्वास्थ्य दिनों दिन अच्छा होता गया और मैं एक हट्टा-कट्टा युवक बन गया।

अब मन चीती करने का समय आ गया तो मेरी प्रसन्नता का पाराव नहीं रहा। मैं विचार करता कि जंगल के यह बड़े जन्तु छोटे जीव-जंतुओं को पकड़ कर, खा जाते हैं तो गुस्से से मेरी आँखें लाल हो जाती थीं। बड़े जीवों द्वारा छोटों को सताया जाना मुझे कतई पसंद नहीं था। इसलिये मैंने निश्चय किया जंगल के इन हिंसक जंतुओं को सबक सिखाना चाहिए। इसी निश्चय के साथ मैं जंगल जाने लगा।

अब तक मेरी इच्छाशक्ति पूर्ण प्रौढ़ और प्रखर हो चुकी थी। भय नाम की भी कोई वस्तु होती है, यह मैंने पूरी तरह भुला दिया। एक बार जब जंगल में प्रविष्ट हो जाता तो वहाँ के हिंसक से हिंसक बाघ, शेर, चीते भी मुझे मूषकों और भेड़-बकरियों की तरह लगते। एक बार जब निश्चित कर लिया तो यह मेरे प्रतिदिन के जीवन का अंग बन गया। मैं प्रतिदिन जंगल जाता, हिंसक जीव मुझे साक्षात काल के समान देखते और दूर से ही भाग जाते। वह बड़ा दुर्भाग्यशाली होता जो एक बार भी मेरी दृष्टि में पड़ जाता। आँख से आँख मिलाते ही मेरी प्रखर इच्छा शक्ति उसके मन पर बुरी तरह आघात करती और वह जन्तु भले ही शेर ही क्यों न रहा हो। शरीर से कितना ही पुष्ट क्यों न रहा हो बिल्ली बन जाता, पूँछ दबाकर दया की भीख माँगता, पर मुझ निष्ठुर ‘सोहंग स्वामी’ से बचकर जाना उसके लिए कठिन होता। जी भर पीटता पटकता और जिस पर दया न आती मार कर ही छोड़ता। स्मरण नहीं ऐसे कितने बाघ, चीते, लकड़बग्घे मारे होंगे। मेरी इन वारदातों का ही परिणाम था कि लोग मेरा ‘सोहंग स्वामी’ नाम तो भूल गये पर मैं एक नये ‘टाइगर-योगी’ के नाम से सारे बंगाल प्रान्त में विख्यात हो गया। मेरे पास इससे संबंधित जानकारी के लिए प्रतिदिन देश-विदेश से सैंकड़ों पत्र आते पर मुझे इस व्यवसाय से ही फुरसत कहाँ थी? जो उनके उत्तर देता।

एक दिन की बात है एक साधु मेरे घर आये। मैं तब जंगल में ही था। उन्होंने मेरे पिताजी को बुलाकर कहा- आपका लड़का जंगली जीवों को सताता है, यह अच्छी बात नहीं है। उसे रोको अन्यथा कभी कोई भयंकर परिणाम भी निकल सकते हैं।

पिताजी ने साधु को प्रणाम करते हुए कहा- महात्मन्! मेरा लड़का छोटे कमजोर जीवों को नहीं सताता। वह तो हिंसक जीवों को मारता है, वह भी निहत्थे तब फिर इसमें दोष क्या है?

दोष! साधु बोले- किसको कब दण्ड देना है कैसे देना है? यह ईश्वर का काम है, मनुष्य का नहीं? तुच्छ जीवों की उत्पत्ति संभवतः इच्छाशक्ति का निम्नगामी रूप है। परमात्मा नहीं चाहता कि मेरी सृष्टि में कायर कमजोर और अमंगल इच्छायें रहें। निर्बलता तो प्रकृति को भी कतई पसंद नहीं। तभी तो शेरनी अपने चोट खाये या उस जख्मी बच्चे को भी खा सकती है जो दौड़ने चलने फिरने में उसका साथ नहीं दे सकता। ‘जीव जीवस्य भक्षणं’ छोटा जीव बड़े जीव का आहार प्रकृति के किसी उपयोगी सिद्धाँत के आधार पर ही करता है यह काम पूर्णतया प्रकृति का है। मनुष्य को अपने कल्याण का मार्ग बनाना और उस पर चलना ही कौन-सा कम कठिन है जो वह प्रकृति के सिद्धाँतों से व्यर्थ टक्कर ले।

साधु की सारी बातें पिताजी ने ध्यान से सुनीं और फिर जब मैं जंगल से लौटा तो मुझसे भी कहीं। एक बार तो मुझे उन बातों में कुछ सार सा प्रतीत हुआ। किन्तु मैंने दूसरे ही क्षण उन उपदेश की भी उपेक्षा कर दी। अब मुझे हिंसक जन्तुओं से भिड़ने और उन्हें मारने में आनंद आने लगा था। उसे छोड़ना कठिन बात थी, तो भी मुझे ऐसा लगा कि मेरे सामने कोई ईश्वरीय सत्ता भी अवश्य है और उसके क्रियाकलापों में हस्तक्षेप का पाप मुझे नहीं करना चाहिये। इसलिये अब कई बार मैं अपने आप को कुछ कमजोर और भयभीत भी अनुभव करता। मुझे इसके लिये उस साधु पर कभी-कभी गुस्सा भी आ जाया करता।

संकल्प विकल्प के इन दिनों में मेरी ख्याति कम से कम बंगाल में तो घर-घर थी ही। कूच बिहार के राज्याध्यक्ष ने भी यह खबर सुनी। उन्हें जंगली जानवर पालने का बड़ा शौक था। इसलिये जंगली जन्तुओं के हिंसक स्वभाव से भी अच्छी तरह परिचित थे। मेरे करतब उन्हें अद्भुत आश्चर्यजनक और तान्त्रिक से लगे। फलतः उन्होंने अपनी जिज्ञासा शाँत करने के लिए मुझे कूच बिहार आने और उक्त प्रदर्शन करने का निमंत्रण दिया। वहाँ की प्रजा भी मेरी बाघ से कुश्ती देखने को बहुत लालायित थी। कई चुनौती भरे पत्र मेरे पास आते थे। इसलिये न चाहते हुए भी मुझे यह निमंत्रण स्वीकार करना ही पड़ा।

ईश्वर के विधान बड़े विलक्षण हैं, उन्हें मानवीय बुद्धि समझ सके ऐसा संभव नहीं है। जिन दिनों यह पत्राचार चल रहा था उन दिनों कूच बिहार में कहीं से एक बहुत खूँखार बाघिन आ गई। उसका इतना आतंक होने पर भी पता नहीं कैसे वह जीवित कैद में आ गई, वह भी स्वयं वहाँ के राजकुमार द्वारा। शाही कटघरे में रहने वाली इस बाघिन का नाम ‘राज बेगम’ था और मुझे उसी से लड़ाये जाने का वहाँ के राजा साहब ने निश्चय कर लिया था।

उन्होंने कुछ छल किया हो सो बात नहीं थी। उनने तो सारी बातें वहाँ पहुँचने पर मुझे स्पष्ट बता दी थीं। पर यदि मैं अपने वचन से हटता तो यह मेरे आत्माभिमान पर आघात होता, अतएव मैंने राजबेगम से लड़ने का निश्चय कर लिया। पर न जाने क्यों उस दिन मुझे साधु के वह शब्द जो उन्होंने पिताजी से कहे थे, एक चेतावनी की तरह बार-बार याद आते थे, तो भी मैं यों ही एकाएक भयभीत होने वाला न था। मेरा निश्चय आखिर तक अटल रहा।

यह दृश्य देखने के लिये अखबारों में पहले से ही समाचार छापे गये। भीड़ बरसात के पानी की तरह उमड़ पड़ी। जिस मैदान में यह प्रदर्शन होना था कंटीले तारों से सुरक्षित कर पिंजड़ा जिसमें बाघिन बंद थी मैदान में रख दिया गया। हजारों लोगों के सामने मैं लंगोट पहनकर निहत्था ही पिंजड़े की ओर बढ़ा।

बाघिन मुझे देखकर गुर्राई किन्तु मुझे उससे कुछ भी भय लगा। पिंजड़ा खोलकर उसमें प्रविष्ट हो गया चाभी मैंने वहीं फेंक दी, केवल एक चैन मेरे हाथ में थी, जिससे बाघिन को बाँधने के लिये कहा गया था।


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