धर्म और विज्ञान में क्या संबंध है? अथवा क्या विरोध है? इस विषय पर जब भी कुछ सोचते हैं तो ऐसा लगता है कि शताब्दी के प्रारंभ से ही विज्ञान के परिणाम और धार्मिक विश्वासों में परस्पर स्पष्ट असहमति रही है। तुलना में, परिणामों में पूर्णतया विरोधाभास पाया गया। हम इस बात को सोचने के लिये विवश हैं कि या तो विज्ञान का पढ़ना पढ़ाना छोड़ा जाये अथवा धार्मिक विश्वासों को पूर्णतया समाप्त कर दिया जाये?
यह दोनों ही क्षेत्र अपने आप में बड़े जबर्दस्त हैं। इसलिये गंभीरता पूर्वक विचार किये बिना, इस प्रश्न को अधूरा छोड़ा जाना, मानव जाति के लिए अहितकारक हो सकता है। धर्म और विज्ञान में क्या संबंध हो इस विषय में अन्तिम निर्णय ढूंढ़ना आवश्यक हो गया है।
धर्म और विज्ञान के पारस्परिक संबंध जानने के लिये यह आवश्यक है कि हम दोनों का ही सही-सही वास्तविक और पर्याप्त अर्थ जानें। दोनों के क्षेत्र जानना आवश्यक है। उनमें संबंध क्या है यह भी जानना आवश्यक है तभी धर्म और विज्ञान के संबंध का निर्णय दिया जाना संभव होगा।
सबसे पहले धर्म को लेते हैं। मनुष्य जीवन के आधारभूत अनुभवों का वर्णन ही संभवतः धर्म है। धार्मिक विचार हमें अपने जीवन की शुद्धता बढ़ाने की प्रेरणा देते हैं। यह निर्णय अतीत के लंबे इतिहास का निष्कर्ष होता है। इसलिये उसमें कुछ भी सत्य न हो यह कहना भारी मूर्खता ही होगी।
‘धर्म मानव प्रकृति की वह क्रिया है जो ईश्वर की निरन्तर खोज करती है। जीवन को सुव्यवस्थित रूप देने के लिये भी धर्म आवश्यक है। व्यवहार कुशलता भी धर्म है’ यह शब्द प्रसिद्ध दार्शनिक श्री प्रो. हृाहट हेड के हैं। भारतीय धर्म−दर्शन के अनुसार भी- ‘वह संपूर्ण ज्ञान विज्ञान जो मानवीय आत्मा को धारण करता अर्थात् ऊपर उठाता है’ इसमें अपने व्यावहारिक जीवन को शुद्ध सत्य और नैतिक बनाने से लेकर ईश्वर प्राप्ति तक की सब विधायें आ जाती हैं। मानव जीवन के लिए इनके उपयोग और आवश्यकता की बात हम अलग से विचार करेंगे।
अब विज्ञान आता है। विज्ञान पदार्थों के क्रमबद्ध ज्ञान को कहते हैं। हमारी मूल चेतना के बाद शरीर से लेकर आकाश और विराट ग्रह-पिण्डों तक यह जो प्रकृति दिखाई दे रही है वह क्या है और उसकी विविधता में परस्पर क्या संबंध हैं इस सब ज्ञान और प्रयोग का नाम ही विज्ञान है। मानव जीवन के लिये इसके उपयोग और आवश्यकता की बात पर हम अलग से विचार करेंगे।
धर्म और विज्ञान में मतभेद इसलिये दिखाई दे रहा है कि परिष्कृत ज्ञान को चाहे वह किसी भी क्षेत्र का रहा हो दोनों के संबंध ज्ञात करने के लिये उपयोग नहीं किया गया। दोनों अपने-अपने क्षेत्र बढ़ाने के इच्छुक अवश्य रहे हैं। बहुत समय पहले ईसाइयों में यह भावना घर कर गई थी कि उनके इस जीवन काल में ही संसार का नाश हो जायेगा। किन्तु ऐसा नहीं हुआ इस तरह उनका विश्वास गलत हो गया। इसके बाद ईसाई धर्म ने अपनी इस धारणा को सुधार लिया। ईसाई धर्म पृथ्वी को चपटी बताया था, सूर्य को स्थिर और नक्षत्रों को गतिमान बताता था किन्तु यह दोनों ही बातें गलत सिद्ध हुईं। पृथ्वी गोल सिद्ध हुई और सूर्य भी घूमता है यह भी सिद्ध हो गया। फिर भी बाईबल की उपयोगिता और दृढ़ता अभी भी वैसी ही बनी हुई है, क्योंकि धर्म के नैतिक और आध्यात्मिक पहलू तो मनुष्य जीवन को हर घड़ी छूते रहते हैं? उनकी आवश्यकता और उपयोग को जब तक लोग मानते और ग्रहण करते रहेंगे तब तक धर्म के कुछ प्रतिपादन गलत सिद्ध हो जाने पर उसकी उपयोगिता नष्ट थोड़े ही हो जायेगी।
विज्ञान तो धर्म से भी अधिक परिवर्तनशील है। उसमें भी विचारों में परिवर्तन और नये तथ्यों का प्रवेश होता रहा है। दोनों ही परिवर्तनशील हैं। तर्कवादियों के अनुसार कोई भी विश्वास या तो बिलकुल सत्य होगा या झूठ।
बीच की कोई बात संभव नहीं। किन्तु दैनिक जीवन के व्यवहार में यह सच है। क्योंकि विशाल ब्रह्माण्ड में फैले हुये ज्ञान की तुलना में हमारी योग्यता अभी बहुत कम है। यदि ऋषियों की तरह हम भी असामान्य स्थिति में होते तो किसी बात के सत्य या असत्य का सीधे निर्णय ले सकते थे, किन्तु आज की स्थिति में यह संभव नहीं है, इसलिए जब तक हम मानव जीवन के उद्देश्य, यथार्थ तत्वदर्शन को नहीं जान लेते तब तक दोनों में समझौता रखना ही पड़ेगा। यह भी संभव है कि जिस प्रकार प्रकृति और परमेश्वर की सत्ता से इन शरीरों का निर्माण सदैव से ही रहा है, उसी प्रकार आत्मा के उभयपक्षीय विकास के लिये भी धर्म और विज्ञान हमेशा के लिये हमारे लिये उपयोगी और आवश्यक बने रहें।
कम ज्ञान का दोष यदि धर्म पर लगाया जा सकता है, तो विज्ञान भी उसके लिये समान दोषी है। एक समय था जब गैलीलियो ने यह सिद्ध किया था कि पृथ्वी घूमती है और सूर्य स्थिर है। तब लोग इसी बात को सत्य मानते थे। इसके बाद लैविंग्स्टन ने बताया कि पृथ्वी स्थिर है, सूर्य चलता है और बहुत काल तक इस बात को ही संसार मानता रहा। फिर एक समय न्यूटन का आया, जब खगोल शास्त्रियों ने बताया सूर्य और पृथ्वी दोनों घूमते हैं, अपने-अपने समय में सत्य समझे जाने वाले सिद्धाँत जब दूसरे क्षण असत्य सिद्ध हुये तो विज्ञान को पूर्ण सत्य कैसे कहा जा सकता है। 17वीं शताब्दी में न्यूटन और हाइजन ने प्रकाश की प्रकृति पर अलग-अलग दो नियम बनाये, न्यूटन का कथन का प्रकाश किरणों में छोटे-छोटे कण होते हैं, जो सीधी रेखाओं में चलते है। यह कण ही जब आँखों की पुतलियों (रेटिना) से टकराते हैं तो हमें प्रकाश का ज्ञान होता है। हाइजन का कथन था, प्रकाश छोटी-छोटी लहरों (वैव्स) में चलता है। दोनों सिद्धाँत परस्पर विपरीत हैं, किन्तु 18वीं शताब्दी में न्यूटन के सिद्धाँत को सत्य माना जाता रहा। अब एक नये क्वांटम सिद्धाँत (क्वांटम थ्योरी आफ लाइट) की बात सुनने में आ रही है, उस पर भी वैज्ञानिक आने वाली शताब्दियों में नये सिद्धाँतों की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
धर्म की नैतिक मान्यतायें सदैव एक सी रहती हैं, पर रीति-रिवाज या आध्यात्मिक मान्यताओं के प्रति कभी नये सिद्धाँत सामने आयें तो उनको भी कसौटी पर कसा जा सकता है, किन्तु धर्म ने यह बात नहीं मानी। उदाहरण के लिये हिन्दुओं में मृतक भोज, दहेज, बलि प्रथा, नेग प्रथा, बाल-विवाह आदि अनेक बातें धर्म से जुड़ी हुई हैं, इनका व्यावहारिक औचित्य आज अस्वीकार कर दिया गया है। फिर यदि धर्म इनको हठ के साथ मान्यता दिलाना चाहे तो स्वाभाविक ही है कि यह लोगों की दृष्टि में अनुपयुक्त सिद्ध थे। जिस प्रकार विज्ञान के नियम बदल कर परिस्थितियों के अनुसार नई शुद्ध मान्यताओं को जन्म मिलता रहता है, उसी प्रकार धर्म को भी अपनी अनेक मान्यताओं को बदलते रहना आवश्यक हो जाता है।
जब तक हम धर्म अथवा विज्ञान में से किसी एक को सत्य की प्राप्ति के लिये पूर्णतया सक्षम एवं समर्थ नहीं बना लेते, तब तक परिवर्तनों का सामना करने के साथ ही दोनों में सामंजस्य रखना भी अनिवार्य होगा। दोनों का ही उद्देश्य संसार के अन्तिम सत्य को ढूंढ़ना और उसका मानव-जीवन के लिये उपयोग करना है। कुछ सिद्धाँत धर्म के अच्छे हैं, कुछ विज्ञान के। दोनों ओर की अच्छाइयों को एक स्थान पर मोड़ कर धर्म को वैज्ञानिक या विज्ञान को धार्मिक बनाया और सदियों से चले आ रहे विरोधाभास को समाप्त किया जा सकता है।