क्रोधात् जयेत अक्रोधेन

October 1970

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

‘आचार्य प्रवर इस नवयुवक का पाणिग्रहण अभी इसी मास सम्पन्न हुआ, इसकी विदुषी पत्नी किसी बात पर अप्रसन्न होकर इसे छोड़ गई, अब इसे साँसारिकता से वैराग्य हो गया है अतएव ये आपसे संन्यास दीक्षा लेने आये हैं?’ युवक सोम की ओर इंगित करते हुए उसके एक साथी युवक ने आचार्य चण्डरुद्र से यह शब्द प्रहसन में ही कहे थे किन्तु वह असमय का उपहास ही एक अप्रत्याशित दुर्घटना का कारण बन बैठा।

सोम ने चाहा कि वह इस बात से इन्कार करे और आचार्य चण्डरुद्र को बताये कि महाराज यह सब मेरा यों ही उपहास कर रहे हैं- पर जब-जब उसने कुछ कहने के लिये मुख खोला तब-तब किसी साथी ने आगे बढ़कर पहली बात को ही पुष्ट किया। बहुमत सत्य को भी झूठ बना देता है वाली कहावत अक्षरशः सत्य सिद्ध हुई। युवकों की चख-चख से चण्डरुद्र का क्रोधी स्वभाव एकाएक उग्र हो उठा। उन्होंने कहा-अच्छा तो तू तैयार हो, मैं अभी तुझे दीक्षा देता हूँ। यदि इस पर कुछ भी मीनमेख की तो शाप देकर तुझे यहीं नष्ट कर दूँगा।’

बात हंसी की थी पर अनियंत्रित कुसमय और अति होने के कारण तूल पकड़ गई। शेष सभी मित्रों ने चण्डरुद्र का प्रचण्ड रूप देखा तो सबके सब वहाँ से चुपचाप खिसक लिये संकट तो बेचारे सोम शर्मा पर आ धमका। भयवश अब न तो वह इन्कार ही कर सकता था और न ही प्रतिवाद। एक व्यक्ति के क्रोध का दुष्परिणाम दूसरे व्यक्ति को इस तरह भुगतना पड़ा कि न चाहते हुए भी उसे संन्यास दीक्षा लेनी ही पड़ी। चण्डरुद्र का कोप तभी शाँत हुआ जब युवक सोम शर्मा ने विधिवत चीवर धारण कर कमण्डल हाथ में ले लिया और आचार्य प्रवर से विधिवत मंत्र दीक्षा ग्रहण कर ली।

सोम अब सोममुनि बन चुके थे। श्रमण धर्म के सिद्धाँत उनने पहले ही पढ़ लिये थे अब तो उनका पालन करना था, सो सोम बिना किसी राग-द्वेष के उसी क्षण से उन्हें जीवन में धारण करने की साधना में संलग्न हो गया।

गुरु को सादर प्रणाम कर सोम ने कहा-भगवन्! यहाँ तक जो कुछ हुआ, वह सब हठात् किसी अज्ञात शक्ति की प्रेरणा के समान हो गया। किन्तु ऐसा सदैव नहीं होता रहता। संसार कोटानिकोटि घटनाओं का एक शृंखलाबद्ध प्रवाह है। अब जो कुछ हो रहा है वही आगे की घटनाओं का आधार होगा। इसीलिये विज्ञ जन आज का कदम बहुत सोच समझ कर उठाते हैं। आप यह निश्चित समझें कि जब यह समाचार मेरे परिवार के लोगों तक पहुँचेगा तब वे क्रुद्ध होंगे, संभव है वे प्रतिकार के लिये यहाँ आयें और आपको भी दण्ड देने से न चूकें। आप मेरे गुरु हैं आपकी रक्षा मेरा परम कर्त्तव्य है। इसलिए अब यह स्थान बदल लेने में ही अपना हित है?

‘सो सो तो सत्य है अवुस! किन्तु तुम्हीं सोचो-सन्ध्या बीत चुकी रात्रि का अन्धकार बढ़ता जा रहा है, मेरा वृद्ध शरीर है चलने की सामर्थ्य से मैं वैसे ही रहित हूँ फिर रात्रि के अंधकार में चलना तो मेरे लिये भी मरण तुल्य है।’ चण्डरुद्र ने स्थिति की गंभीरता अनुभव करते हुए उत्तर दिया।

‘आप उसकी चिन्ता न करें देव। हम आपको कंधे पर बिठा लेंगे। अभी तो मैं युवक हूँ आपको कंधे पर लेकर कहीं भी जा सकता हूँ’ यह कहकर सोममुनि ने एक बार अपनी सुडौल देहयष्टि पर दृष्टि डाली और गुरु के आदेश की प्रतीक्षा करने लगा। चण्डरुद्र क्रोधी थे तो क्या वे विचारशील व्यक्ति थे उन्हें सोम मुनि के कथन की सत्यता अनुभव करते देर न लगी। वे तुरन्त वहाँ से चलने के लिये तैयार हो गये।

घना अन्धकार हाथ को हाथ नहीं सूझता था ऐसे समय अपने एक दिन के गुरु चण्डरुद्र को कंधे पर बैठाये सोममुनि आगे बढ़ चले। गहन गह्वर वन, नदियाँ, टीले, पहाड़ पार करते सोममुनि आगे बढ़ते जा रहे थे पर अर्द्धरात्रि बीतने तक उसका शरीर पूर्णतया कथकि हो गया। उधर नींद के झोंके आलोड़ित करने लगे, फिर ऊबड़-खाबड़ रास्तों में चलने से पैरों में चोटें आई थीं वह कष्ट भी कम दुःखद नहीं था।

इन सबसे कष्टप्रद तो चण्डरुद्र का क्रोधी स्वभाव था। सोम का पैर किसी गड्ढे में पढ़ जाता तो आचार्य चण्डरुद्र का वृद्ध शरीर कचकचा जाता फलतः वे शिष्य को गालियाँ देते कटु कहते और कई बार तो क्रोध के आवेग को रोक न सकने के कारण सोम मुनि की पीठ पर प्रहार भी कर देते थे। रजोहरण दण्ड चण्डरुद्र के हाथ में था। सोम मुनि जब आगे बढ़ रहे थे तो अंधेरे में दिखाई नहीं दिया और उनका अगला पैर एक बिवर में जा गिरा। सारी शक्ति लगाकर सम्हले भी पर कहाँ तक संभालते आचार्य चण्डरुद्र गिरते-गिरते बचे। इस बार उनका क्रोध सीमा पार कर गया। अपने रजोहरण दण्ड से सोम के सिर पर तीव्र प्रहार करते हुये चिल्लाये दुष्ट तुझे दिखाई भी नहीं देता, मार दिया होता अभी मुझे।

सोम मुनि तो मानो साक्षात सहनशीलता और नम्रता के अवतार थे। सिर फट गया। रुधिर बह कर सारे शरीर को भिगोने लगा तो भी उन्होंने उसकी किंचित चिन्ता नहीं की। उन्हें एक ही दुःख था कि संभल न सकने के कारण उनके गुरु को अकारण ही कष्ट हुआ। सोम बड़े करुणाशील शब्दों में बोले-गुरुदेव! आपने ठीक ही दण्ड दिया, कैसा दुर्भाग्य है मेरा कि आपको सुविधा पूर्वक ले भी नहीं जा सकता। यह कहकर सोम मुनि और भी संभल-संभल कर चलने लगे।

इधर भगवती ऊषा आसमान में वेग से अपना रथ दौड़ाये आ रही थीं। उधर थकावट के कारण सोम मुनि का घाव भी गहरा हो चला था। रक्त निकलने की मात्रा बढ़ती ही जाती थी। गर्म रक्त एकाएक आचार्य चण्डरुद्र के पैरों का स्पर्श करने लगा तब उन्हें पता चला कि आघात तीव्र लग चुका है। उन्होंने सोम मुनि के सिर पर हाथ फिरा कर देखा तो उनके दुःख की सीमा न रही, संपूर्ण हथेली रक्त से भीग गई चण्डरुद्र को वस्तु स्थिति समझते देर न लगी। सोम मुनि को वहीं रोककर उसके कंधे से उतर पड़े और बड़े-दुःख एवं करुणा भरे स्वर में फूट-फूट कर रोने लगे- वत्स सोम!!! उन्होंने कहा- मैं कितना पातकी हूँ कि तुझ जैसे महान सहनशील और विनम्र शिष्य को भी कष्ट देने से नहीं चूका। यह सब मेरे क्रोध के कारण हुआ तात! मुझे क्षमा करें जो पाठ मैं आचार्य होकर भी आज तक नहीं सीख सका था वह आज तू ने सिखा दिया। अब मैं जीवन भर कभी क्रोध न करूंगा।

आचार्य चण्डरुद्र इतने विद्वान और साधक होकर भी आज तक क्रोधी स्वभाव के कारण समाधि सुख नहीं प्राप्त कर सके थे। आज शिष्य के अक्रोध ने उनका यह दूषण दूर कर दिया तो वे समाधि की स्थिति में सहज ही पहुँच गये। अपने शिष्य की इस कृपा को चण्डरुद्र जीवन भर नहीं भूले। उन्होंने बड़े परिश्रम और तन-मन से अपनी सारी विद्यायें सोम मुनि को दान कर दीं।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118