सत्यमेव जयते

October 1970

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एक राजा था- पराक्रम और अभिमान का पुतला। विजय-लालसा सदा उसके सिर पर सवार रहती थी। शत्रुओं को जीतने मात्र से उसे तृप्ति नहीं होती थी। अपने शौर्य के प्रदर्शन के लिये सदा आतुर रहता था वह।

एक बार उसने एक शत्रु-राज्य को जीता। पूरे ठाट-बाट के साथ शत्रु की राजधानी में उसने प्रवेश करने की ठानी। बड़ा शानदार जुलूस निकला। उसे देखने के लिये हजारों लोग एकत्रित हुए। जब रथ नगर-द्वार पर पहुँचा, राजा की नजर पत्थर की एक प्रतिमा पर पड़ी, वह स्तब्ध रह गया उसे देखकर। ऐसा अनुपम कला-कौशल उसने आज तक नहीं देखा था। रथ रुक गया-जुलूस भी रुक गया।

वह प्रस्तर-निर्मित मानव मानो पराक्रम का प्रतीक था। आकाश की ओर उठी हुईं वे पैनी आँखें, स्वर्ग से अमृत को लाने वाले गरुड़ की दृष्टि थी वह। पैरों में लिपटे हुए नागों को वह हाथों से मसल कर नष्ट कर रहा था- मानो पक्षीराज गरुड़ ही हो।

मन्त्रमुग्ध राजा ने पूछा- ‘इसका शिल्पी कौन है? सामने आये।’ उसे आशा थी कि जन-समूह में से कोई आगे आयेगा और झुककर अभिवादन करते हुए कहेगा- महाराज! मैं इसका निर्माता हूँ। परन्तु जब यह आशापूर्ण नहीं हुई तब राजा ने तनिक ऊंचे और रूखे स्वर में फिर वही आदेश दोहराया, तब भी सन्नाटा छाया रहा। क्षुब्ध होकर राजा ने पूछा- ‘किसकी प्रतिमा है यह?’

‘महाप्रतापी महाराज ने अभी जिसे पराजित कर भगा दिया, उसी कायर राजा का पुतला है यह।’ किसी ने बहुत डरते-डरते निवेदन किया। अब विजयी राजा को प्रतिभा में पहले जैसा सौंदर्य दिखाई नहीं दिया। उसने पूछा- ‘क्या इस मूर्ति का शिल्पी इसी नगर में रहता है?’

‘जी’ किसी ने सहमते हुए संक्षिप्त सा उत्तर दिया।

‘वह हमारे स्वागत के लिये क्यों नहीं आया? तुरन्त उसे यहाँ हाजिर किया जाये, तभी सवारी आगे बढ़ेगी।’ राजा ने दृढ़ स्वर में आदेश दिया। तुरन्त शिल्पी को तलाश करके राजा के सामने उपस्थित किया गया।

राजा ने उसे तीव्र दृष्टि से घूरते हुए प्रश्न किया- ‘तुम्हीं ने बनाई है यह मूर्ति?’

‘जी हाँ!’ शाँत स्वर में शिल्पी बोला।

‘कैसे?’ राजा ने फिर प्रश्न किया लेकिन कुछ अटपटा सा।

‘कैसे? यह कैसे बताऊं? लताओं पर कलियाँ कैसे उगती हैं, क्या यह महाराज बता सकेंगे?’ शिल्पी ने प्रश्न को प्रश्न में ही लपेट दिया।

राजा निरुत्तर! वह भीतर ही भीतर जल उठा। फिर भी संयत स्वर में बोला- ‘यह मूर्ति किसकी है?’

‘भूतपूर्व महाराज की।’ शिल्पी ने पूर्ववत निर्भीकता से कहा।

‘आज वह महाराज तो क्या राजा भी नहीं है।’ विजेता ने उपहास करते हुए कहा- ‘क्या ऐसे कायर को पराक्रमी बताना दुनिया को धोखा देना नहीं है?’

‘यदि मैं आज आपकी प्रतिमा बनाऊं तो कल उसके संबंध में भी यही होगा।’ शिल्प ने निर्भीकता पूर्वक कहा।

‘क्या मतलब?’ राजा के मस्तक पर प्रश्नात्मक रेखायें खिंच गयीं।

‘आज आप वीर-विजेता के रूप में नगर-प्रवेश कर रहे हैं, एक दिन भूतपूर्व महाराज ने भी इसी प्रकार प्रवेश किया था और उसी की स्मृति में मैंने यह प्रतिमा गढ़ी थी। यदि आज मैं आपका पुतला बनाऊं तो कल आने वाला विजयी राजा उसका अधिक्षेप करेगा।’

राजा ने लाल-लाल आँखों से शिल्पी को देखा और दृढ़ संयत स्वर में कहा- ‘कलाकार तुम्हारा हाथ पत्थर से स्वर्ग का निर्माण भले करे, किन्तु तुम्हारी जीभ तुम्हें रसातल की ओर ले जा सकती है।’

‘राजन्! कलाकार की जीभ और हाथ अलग-अलग नहीं होते। उसका मस्तिष्क और हृदय भी अलग-अलग नहीं होता। राजनीति भले ही वाराँगना हो, कलाकार की नीति तो पतिव्रता है। वह मानती है कि जीवन में एक ही सत्य है और वह है परम सत्ता के आलोक में विकसित होना।’

जैसे कोई ज्वालामुखी धीरे-धीरे सुलगने लगे, उसी तरह शिल्पी के एक-एक शब्द से राजा का क्रोध प्रज्ज्वलित हो रहा था। अब वह सहसा फूट पड़ा। वह चिल्ला उठा- ‘किसी और ने यह बात कही होती तो उसे शिरच्छेद का दण्ड दे देता। परन्तु---’ फिर वह मुस्करा पड़ा और बोला- ‘मैं तुम्हें बिलकुल मामूली दण्ड दूँगा। सारी जनता के समक्ष तुम्हें इस मूर्ति को तोड़कर चूर-चूर करना होगा।’

भीड़ में तहलका-सा मच गया। कानाफूसी होने लगी। केवल तीन ही स्थिर और शाँत थे- राजा, शिल्पी और मूर्ति। एक-एक क्षण एक युग जान पड़ता था। कई क्षण बीत गये, लेकिन शिल्पी का मौन न टूटा। वह अविचलित भाव से खड़ा रहा। अन्त में राजा ने ही चुप्पी भंग की- ‘मेरी आज्ञा स्वीकार है?’

‘नहीं’ दृढ़ स्वर में शिल्पी का संक्षिप्त उत्तर था।

‘तो शिरच्छेद के लिये तैयार हो जाओ।’

‘हृदय गवाने से सिर गंवाना कहीं अच्छा है।’

‘क्या आज तक तुमने अपने हाथ से अपनी कोई रचना नष्ट नहीं की?’ राजा ने शिल्पकार को उलझने में डालने के इरादे से प्रश्न किया।

‘एक नहीं अनेक प्रतिमायें मैंने अपने हाथों से बनायी और नष्ट की हैं।’

‘किस कारण?’ राजा ने विस्मित होकर पूछा।

‘क्योंकि उनमें मेरी कला पूर्णतया अवतीर्ण नहीं हुई थी। मेरे हृदय का प्रतिबिम्ब उनमें नहीं प्रकट हुआ था। परन्तु इस प्रतिमा की बात दूसरी है। यह मेरी सबसे सुन्दर कृति है और मेरा काम सौंदर्य का निर्माण करना है, उसका विध्वंस नहीं। उस कार्य के लिये तो ईश्वर ने राजा-महाराजा पैदा किये हैं।’

जनता थर-थर काँप उठी। उसने समझ लिया-राजा का इस तरह अपमान करने वाला उद्धत कलाकार अब कुछ ही क्षणों में परलोक का मेहमान बनने वाला है।

परन्तु वह चकित रह गई। राजा सिर झुकाकर खड़ा था। बड़ी देर बाद उसने गर्दन ऊपर उठायी और कहा- ‘कलाकार! मैंने तुम्हारे इस राजा को परास्त किया था परन्तु इस पत्थर की प्रतिमा ने मुझे परास्त कर दिया है। शस्त्र की जीत अन्तिम जीत होती है यही मेरा आज तक विश्वास था। परन्तु आज तुमने मेरी आँखें खोल दीं। शस्त्र- की जीत अन्तिम जीत नहीं होती, सत्य की ही अन्तिम विजय होती है। यह ज्ञान आज मुझे मिल गया।’

-श्री वि.स. खाँडेकर की मराठी कहानी का अनुवाद


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