मैं तो शुद्ध ज्ञान दर्शन स्वरूप सदाकाल अमूर्त एक शुद्ध शाश्वत तत्व हूँ। परमाणु मात्र भी अन्य द्रव्य मेरा नहीं है। आत्मदृष्टा ऐसे ही विचार करता है।
-आचार्य कुन्दकुन्द (समयसार 38)
(3) पोषण और स्वाँगीकरण का अर्थ है भोज्य पदार्थ को ग्रहण करना और उसे आत्मसात करके शरीर को शक्ति देना। अमीबा प्रोटोप्लाज्म से दो चोंचें सी निकाल कर करता है। शरीर में भी पाचन क्रिया यद्यपि पेट में होती सी प्रतीत होती है पर जिस तरह अमीबा ऑक्सीजन के सहयोग से भोजन किये हुए को प्रोटोप्लाज्म में बदलता है उसी प्रकार पाचन संस्थान की सहायता से वह अन्न ही क्रमशः रस, रक्त, वीर्य, ओज में परिवर्तित होकर सारे शरीर में आत्मसात होता रहता है।
(4) उत्सर्जन-पाचन की तरह मल-विसर्जन की क्रिया का नाम है। यह क्रिया अमीबा भी करता है और मल-मूत्र, थूक, पेशाब, पसीने के रूप में मनुष्य का शरीर भी।
(5) वृद्धि का गुण भी शरीर के कोशों में ठीक अमीबा की तरह ही होता है। जिस प्रकार भोजन से अमीबा का प्रोटोप्लाज्म बढ़ता है उसी प्रकार मनुष्य का शरीर भी। और अन्तिम-
(6) जनन की क्रिया भी एक अमीबा से केन्द्रक (न्यूक्लियस) सहित प्रोटोप्लाज्म के दो हिस्सों में बंट जाने के रूप में 1 से 2, 2 से 4, 4 से 8 इस क्रम में होती रहती है। मनुष्य शरीर में भी कोश (सेल्स) ऐसे ही बढ़ते हैं और निश्चित आकार-प्रकार वाले अंग बनाते हैं।
जब तक कोशों में यह क्रिया चलती रहती है तब तक शरीर जीवित माना जाता है। किन्तु मृत्यु घोषित हो जाने के बाद भी यह क्रियाएं कुछ देर तक चलती रहती हैं। शरीर की सड़न, दुर्गन्ध, बालों का बढ़ना जैसे लक्षण इस बात के प्रमाण हैं कि शरीर की रासायनिक प्रक्रिया मृत्यु के बाद तब तक चलती रहती है, जब तक शरीर पूर्णतया सड़-गल कर नष्ट नहीं हो जाता। इसलिये चेतना को रासायनिक प्रक्रिया न मानकर एक स्वतंत्र सत्ता ही माना जा सकता है।
इसका प्रमाण जीवित और निर्जीव कोशिका में स्पष्ट अन्तर से व्यक्त होता है। जब तक मनुष्य जिन्दा रहता है, तब तक प्रोटोप्लाज्म अत्यन्त कोमल, लसदार और निरन्तर अपना रूप बदलता रहता है-कभी फेन की तरह दिखाई देता है कभी मरुस्थल की चमक के समान। किन्तु मृत अवस्था में उसकी वह चमक समाप्त हो जाती है और वह उबले हुए अण्डे की सफेदी के समान हो जाता है। इस अन्तर के कारण ही वैज्ञानिक भी असमंजस में है और वह भी पूर्णतया यह मानने को तैयार नहीं होते कि शरीर की रासायनिक क्रिया ही जीवन है।
इसके विपरीत सन्त हरदास जैसे योगियों ने समाधि लगाकर यह सिद्ध कर दिया है कि चेतना एक स्वतंत्र अस्तित्व है और उसे ऐच्छिक ढंग से शरीर से निकाला और प्रविष्ट कराया जा सकता है। इसका एक और उदाहरण है- इंग्लैंड के कर्नल टाउनशेंड। उन्होंने अपनी इच्छा-शक्ति पर इतना तीव्र नियंत्रण प्राप्त किया था कि वे जब भी चाहते थे, अपने प्राण शरीर से निकाल लेते थे और कुछ देर बाहर रहकर फिर उसमें प्रवेश कर जाते थे। इसी आधार पर उन्होंने जीवन को शरीर की रासायनिक प्रक्रिया से भिन्न अस्तित्व प्रतिपादित किया था।
एक बार तीन सरकारी सर्जनों के सम्मुख उन्होंने प्रयोग किया। अपने शरीर से उन्होंने सारी चेतना को समेट लिया। इसके बाद डाक्टरों ने सारी परीक्षाएं कर लीं और शरीर को पूर्ण मृत पाया। हृदय, नाड़ी, रक्त-संचालन की सारी क्रियायें बंद हो गईं। शरीर बिलकुल ठण्डा पड़ गया। थोड़ी देर बाद वे फिर अपने शरीर में आ गये और फिर शरीर अपनी सामान्य गति में आ गया। यह डाक्टरों के सामने एक चुनौती थी। उन्हें मानना ही पड़ा कि जीवात्मा सचमुच ही शरीर से पृथक कोई अन्य तत्व है। जिस बात को योगवसिष्ठ इस तरह कहता है-
मरणं सर्वनाशात्म न कदाचन विद्यते।
(6।2।1।81)
मृतो नष्ट इति प्रोक्तो मन्ये तच्च मृषा ह्यसत्।
(5।71।64)
स देशे कालान्तरितो भूत्वा भूत्वानुभूपते।
(5।71।67)
अर्थात् ऐसा मानना कि मरा हुआ प्राणी नष्ट हो गया-बिलकुल झूठ है। मृत्यु से सर्वनाश नहीं होता, केवल शरीर मरता है। आत्मा एक शरीर को छोड़कर दूसरे देश, काल और सृष्टि के अनुभव में चला जाता है।
भारतीय दर्शन और शास्त्रों के इस महत्वपूर्ण सिद्धाँत का प्रतिपादन उपरोक्त घटनायें और वैज्ञानिक उपलब्धियाँ भी करती हैं। इतना समझकर भी यदि कोई आत्म-कल्याण जैसी महत्वपूर्ण जीवन की आवश्यकता की उपेक्षा करे तो उसे क्या कहा जा सकता है?