हंसिये जी खोलकर-स्वस्थ रहिये जीवन भर

October 1970

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पैट्रिस मूर जीवन से तंग आ चुकी थी। 7-8 वर्ष हो गये। उनका जीवन नारकीय यंत्रणाओं में जल रहा था। पहले गले में एक्जिमा हो गया। वह किसी प्रकार ठीक हुआ तो उदर शूल उठ खड़ा हुआ। औषधियाँ लेने का परिणाम यह हुआ कि बदहजमी रहने लगी और धीरे-धीरे उसने पेट में अपना स्थायी डेरा डाल दिया। गरिष्ठ भोजन तो दूर साधारण भोजन भी पचा सकना उनके लिये कठिन हो गया। बीमारियों की तरह संकट भी संक्रामक होते हैं। अभी अपच का कष्ट ही दूर नहीं हो पाया था कि सिर दर्द चक्कर और बेहोशी के लक्षण उभरने लगे। कोई काम कर सकना कठिन हो गया। वे एक सम्पन्न महिला थीं किसी तरह औषधियों की गर्मी से चल-फिर, उठ-बैठ तो लेती थीं पर उनका अधिकाँश जीवन बिस्तर पर बीत रहा था। वे पूरी तरह निराश हो चुकी थीं।

मूर एक दिन एकान्त में बैठी विचार कर रही थी- जीवन की इस अशाँति से छुटकारा कैसे मिले। वे समझ नहीं पा रही थीं कि इन शारीरिक कष्टों व रोगों का मूल कारण क्या है? पर एक बात उनके सामने निर्विवाद थी वह यह कि जीवन में हंसी और प्रसन्नता का नितान्त अभाव था। उनकी बुद्धि और विवेक ने निर्णय दिया चलो रोग और शारीरिक कष्ट दूर नहीं कर सकते तो न सही पर प्रसन्नता के क्षण तो ढूंढ़े ही जा सकते हैं। उन्होंने संकल्प लिया चाहे जितने भारी कष्ट हों, वह दिन में तीन बार जी खोलकर हंसा अवश्य करेंगी।

विश्व-विख्यात अंग्रेज लेखक श्री स्वेट मार्डेन का मूर से परिचय था। इस अप्रत्याशित परिवर्तन से वे बहुत आकर्षित हुए। जो फलितार्थ उनके सामने आये, उनका वर्णन करते हुए उन्होंने लिखा है- यह एक अनोखी बात थी कि निरन्तर अब- उत्तेजना, निराशा, भय, ईर्ष्या-विद्वेष में डूबी रहने वाली मूर ने जैसे ही उक्त संकल्प लिया, उनके स्वभाव में अनायास ही न जाने कहाँ से विनोदप्रियता आ टपकी। अब तक अपने पति, अपने बच्चों नौकर और पड़ोसियों से वे बात-बात पर झगड़ बैठती थीं, अपने लिये ही नहीं पति और बच्चों के लिये भी वे भार सी हो गई थीं पर अब वे पति और बच्चों से छोटी-छोटी बातें भी विनोद पूर्वक करतीं और हंसी के उपयुक्त एक भी अवसर को हाथ से न जाने देतीं। जब भी ऐसी कोई बात आती, वे खूब जोर से खिलखिलाकर हंसतीं। पहले तो घर वाले असमंजस में पड़े पर पीछे यह स्वभाव इन सबको ऐसा भाया कि घर हंसी का फौवारा बन गया। सब लोग हंसी का वातावरण उत्पन्न करने का प्रयत्न करते। कोई न कोई फुलझड़ी छूटती रहती और घर में खूब कहकहे लगते। मूर का घर ‘हंसी का घर’ कहा जाने लगा।

‘हंसी खुशी है जहाँ-तन्दुरुस्ती है वहाँ’ ‘हंसिये जी खोलकर स्वस्थ रहिये जीवन भर’ की कहावतें सत्य सिद्ध हुई। मूर का एक्जिमा, बदहजमी दाद-खाज, चक्कर, सिर दर्द, कमजोरी एक-एक कर दूर हटने लगे और उनका स्थान उत्तम स्वास्थ्य लेने लगा। कुछ ही दिनों में रोग न जाने कहाँ अन्तर्धान हो गये। लगातार 6 वर्ष तक उन्हें एक फुन्सी भी नहीं हुई। चिकित्सकों ने फिर से शरीर का परीक्षण किया और असाध्य समझे जाने वाले कई रोगों का नाम निशान भी नहीं पाया तो वे आश्चर्य में डूब गये। जब उनसे इसका कारण पूछा गया तो उन्होंने स्वीकार किया कि संदेशवाहक नलिकायें (इफरेन्ट एण्ड अफरेन्ट नर्व्स) मस्तिष्क का संबंध पेट और शरीर के महत्वपूर्ण अवयवों से जोड़ती हैं यह कोशिकायें बहुत संवेदनशील और एक-दूसरे से संबद्ध होती हैं, जब मस्तिष्क में दुःख और भार पैदा करने वाले ईर्ष्या, द्वेष, भय आदि मनोविकार पैदा होते हैं तो उससे पाचन संस्थान व अन्य कोमल अंगों पर भार पड़ता और बीमारियाँ उत्पन्न करता है इसके विपरीत हंसी खुशी से उनमें स्वास्थ्यप्रद प्राकृतिक ‘हारमोन्स’ का स्राव तथा कोशों से रोग के अंश मल-मूत्र, थूक, पसीने आदि के साथ बिना औषधि के निकल जाते हैं। प्रसन्न रहने से स्वास्थ्य ठीक रहता है इसका यही रहस्य है।


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