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October 1970

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जीयन्ताँ दुर्जया देहे रिपवश्चक्षुरादयः।

जितेषु ननु लोकोऽयं तेषु कृत्स्नस्त्वया जितः॥

अपने ही शरीर में रहने वाले चक्षु आदि दुर्जय शत्रुओं को पहले जीतना चाहिए। उनके जीत लेने पर ऐसा समझो कि मानो सारा संसार तुमने जीत लिया।

उपर्युक्त कतिपय बातें तो अपने कर्त्तव्य और उत्तरदायित्व निर्वाह के संबंध में हैं। अब सबसे विस्तृत क्षेत्र आता है व्यवहार जगत। इस क्षेत्र में तो मनुष्य को अधिकाधिक सावधान तथा संयमित रहना चाहिए। यही वह क्षेत्र है जिसमें मनुष्य के असभ्य व्यवहारी होने की सबसे अधिक संभावना रहती है। आजकल विश्वासघात, दगाबाजी और वचनाघात अर्थात् कुछ कहना कुछ करना, जो कुछ कहना उसे पूरा न करना एक सामान्य-सा चलन बन गया है। विश्वासघात अथवा वचनाघात को पाप के स्थान पर चतुरता मानी जाने लगी है। लोग दूसरे के साथ विश्वासघात कर अपने को होशियार समझने लगे हैं। सोचते हैं कि काम बनाने को लोगों को इसी प्रकार बेवकूफ बनाया जाता है, जबकि अपने दिये वचन का पालन न करना, विश्वास देकर पूरा न करना बहुत ही भयानक पाप है। सभी धर्मों और सभी शास्त्रों में इसकी घोर निन्दा की गई है। आचार्यों ने धर्म का मूल सत्य को ही माना है। विश्वास की रक्षा और वचन का पालन न करने वाले चाहे सौ जन्मों तक धर्म करते रहें तब भी वे उन्नति अथवा विकास की ओर एक पद भी आगे नहीं बढ़ सकते। सत्यनिष्ठा ही वह प्रथम सोपान है, जिस पर, चढ़कर ही कोई व्यक्ति धर्म की ओर उच्चता और श्रेष्ठता की ओर, अध्यात्म तथा ईश्वर की ओर बढ़ सकता है। सत्य, लोक से लेकर परलोक तक के सारे धर्मों का मूल है। हर विषय, हर बात और हर व्यवहार में वास्तविक रूप में सच्चे रहने वाले व्यक्ति ही किसी दिशा में अपना यथार्थ आत्म-निर्माण कर सकते हैं।

सत्य और ईमानदारी जीवन की सर्वोपरि उत्तम नीति है। इसकी सर्वोपरिता का कारण यह है कि इसमें निष्ठा रखने वाले लोगों के लिये न तो भय होता है और न शंका। सत्यनिष्ठ पुरुषों के चरित्र में दीनता, दयनीयता और हीनता जैसे दुर्गुण नहीं आते। जो सच बोलता है, सत्य व्यवहार करता है, यथार्थ सोचता और सबसे प्रति ईमानदार रहता है, उसके लिये किसी प्रकार का डर हो भी कैसे सकता है? सत्यनिष्ठ पुरुष संसार में निर्भयतापूर्वक विचरण करता और सबसे असंदिग्ध व्यवहार करता हुआ आनन्द मनाया करता है। उसे न किसी से डरने की आवश्यकता होती है और न दबने की। जो न किसी को धोखा देता है न किसी प्रकार की चोरी करता है, जितना जो कुछ कहता है उसे पूरा करता है। विश्वासघात और दगाबाजी जैसे जघन्य पापों से जिनकी आत्मा मुक्त है, जो न तो किसी के लिये दुर्भाव रखता है और न किसी को वंचित करने का प्रयत्न करता है। ऐसे सत्पुरुष को संसार में किसी भी देव, दानव अथवा मनुष्य से डरने का कारण भी क्या हो सकता है। डर का निवास तो असत्य और मिथ्यात्व में होता है। सत्यनिष्ठ सिंह पुरुष सदैव निर्भय और निर्भीक ही रहा करते हैं।

भय और मलीनता से मुक्त रहने वालों की आत्मा तेजोपूत और उज्ज्वल रहा करती है। उसकी शक्ति बढ़ती और प्रभावपूर्ण बनती जाती है। उज्ज्वल और सत्यपूत आत्मा वाला व्यक्ति हजार दुष्टों तथा धूर्तों में भी ठीक उसी प्रकार प्रचण्ड और निर्भय बना रहता है जिस प्रकार एक अकेला केसरी शृंगालों और शूकरों के झुँड में। निर्भयता में अनन्त व अनिवर्चनीय आनन्द है। इसकी प्राप्ति सत्याचरण, सत्य वचन और सत्य व्यवहार द्वारा ही होती है। सत्य जीवन की सर्वोत्तम नीति है। इसका पालन करने वाला निश्चय ही किसी भी क्षेत्र में अपना श्रेष्ठतम निर्माण कर सकने में सफल हो जाता है।

मनुष्य की आत्मा ही सर्वोत्तम तत्व और उसका सर्वश्रेष्ठ व्यक्तित्व है। आत्मा की रक्षा करना मनुष्य का सर्वश्रेष्ठ धर्म बताया गया है। जिसने परमात्मा के प्रधान अंश आत्मा की रक्षा कर ली उसे अपने आचरण, व्यवहार और क्रियाओं की सत्यता द्वारा पुष्ट और बलिष्ठ बना लिया और उसे मल विक्षेप अथवा कुटिलता के कलुष से मुक्त कर उसके मूल तत्व परमात्मा की ओर उत्सुक कर दिया। उसने मानो अपना ठीक-ठाक निर्माण कर लिया। वह अपने कर्त्तव्य और उत्तरदायित्व में पूरी तरह उत्तीर्ण माना जाता है, जिसके पुरस्कार स्वरूप उसे भव सागर से पार उतार कर सच्चिदानन्द स्वरूप परमात्मा की गोद में पहुँचा दिया जाता है।


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