अहंकार के सर्प दंश से सदा बचे रहिए।

October 1970

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अहंकार के दंश से सदा बचे रहिए। यह एक विषैले सर्प की तरह आपके अन्तःकरण में ही छिपा बैठा रहता है और अवसर पाते ही आघात कर देता है। इसके दंश से मनुष्य की सद्बुद्धि मूर्छित हो जाती है और तब वह न करने योग्य काम करता हुआ अपने को आपत्तियों में डाल लेता है। अहंकार एक नहीं हजारों आपत्तियों की मूल है।

इस सर्प का जागरण तब होता है जब मनुष्य यह भुला देता है कि वह भी दूसरे मनुष्यों की तरह एक सामान्य मनुष्य है और यह मानने लगता है कि वह किन्हीं विशेष क्षमताओं वाला एक असाधारण व्यक्ति है। दूसरों की तुलना में अपने को बड़ा मानकर चलना बड़ी भारी नादानी है। संसार में न कोई छोटा है और न बड़ा। परमात्मा ने सृष्टि को व्यवस्थित रूप से चलाने के लिए किसी को किन्हीं अधिकारों और क्षमताओं के साथ किन्हीं स्थानों एवं स्थितियों में नियुक्त किया है किन्हीं को किन्हीं स्थितियों और स्थानों पर। सब अपनी-अपनी स्थिति में अपने-अपने स्थानों पर काम करते हैं। इस अवस्था में न तो अभिमान को अवसर है और न हीनता को। अब यदि कोई इस ईश्वरीय व्यवस्था के अधीन अपनी स्थिति पर गर्व करता है, इतराता अथवा अपने को दूसरों से बड़ा और विशेष मानता है तो गलती करता है, जिसके लिए उसे दण्ड भोगना पड़ता है। मनुष्य क्या है? वह एक इस विशाल सृष्टि का एक साधारण उपादान है। इसमें जो किसी एक का महत्व और उपयोग है वही किसी दूसरे का। तब कोई भी तो ऐसा कारण समझ में नहीं आता जिसके कारण कोई गर्व से फूल जाए और अहंकार के मद से मतवाला बना फिरे!

यदि आप अपनी स्थिति को असाधारण मानने की भूल करेंगे तो निश्चय ही अन्तःकरण में प्रस्तुत अहंकार को जगा लेंगे। धोखे से भी जगा हुआ अहंकार फिर जल्दी शमन नहीं होता। विषबेलि की तरह आप से आप बढ़ता जाता है। फिर इस विषबेलि में जहरीले फल लगने लगते हैं। इन फलों का प्रभाव आप पर क्या हो सकता है यह बात तो आप स्वयं ही समझ सकते हैं।

अहंकार जागने पर आप प्रशंसा प्रिय हो जायेंगे। प्रशंसा प्रिय व्यक्ति अपनी बड़ी घनी हानि किया करता है। ऐसा व्यक्ति सदैव चाटुकारों, निन्दकों, पिशुनों और मिथ्यावादियों से घिरा रहता है। जो जरा सी प्रशंसा कर देता है उसी की ओर झुक जाता है। उसी पर विश्वास करने लगता है। उसकी बुद्धि चाटुकार की गुलाम बन जाती है, तब वह अपना भला-बुरा हित-अहित नहीं देख पाता। प्रशंसा, पिशुनता एवं चाटुप्रिय व्यक्ति में एक और भी हानिकारक दोष होता है। वह है असहिष्णुता एवं असहनशीलता का। जहाँ अपनी उक्त झूठी प्रशंसा से प्रसन्न हो जाता है वहाँ सच्चा दोष कथन सहन नहीं कर पाता। वह अपना दोष, दुर्गुण अथवा भूल बतलाने वाले को अपना शत्रु समझा है और उससे अकारण ही बैर ठान लेता है। उसको हानि पहुँचाने का प्रयत्न करता रहता है। इस प्रकार वह अपनी साधारण मनुष्यता से भी गिर जाता है। इसको मूर्खता के सिवाय और क्या कहा जा सकता है।

बुद्धिमान व्यक्ति चाटुकार को नापसंद और निन्दक अथवा आलोचक को अधिक पसंद किया करता है। वह जानता है कि जहाँ चाटुकार उसकी झूठी प्रशंसा करके उसे भुला और बहकाकर गलत मार्ग पर डाल सकता है वहाँ आलोचक उसे उसके दोषों, कमियों और त्रुटियों के प्रति सावधान होने में सहायक होता है। इस प्रकार चाटुकार शत्रु और आलोचक वास्तविक मित्र होता है। किन्तु अहंकार के विष से हत्चेत व्यक्ति इन दोनों के लिए विपरीत दृष्टिकोण रखता है। यह दोष वास्तव में मनुष्य का नहीं उसके अहंकार का ही होता है जो थोड़ा सा भी प्रश्रय मिल जाने पर मनुष्य पर हावी हो जाता है। इसीलिए बुद्धिमान व्यक्ति विनम्रता एवं सामान्यता के भाव से इस सर्प का दमन ही किये रहते हैं।

मनुष्य को जीवन में अनेक प्रकार के कर्त्तव्य करने पड़ते हैं। उसे उन्नति और विकास के लिये प्रयत्न भी करने पड़ते हैं बहुत बार उसे इसमें कृतकृत्यता भी प्राप्त होती है, वह सफल भी होता है। सफल हो भी क्यों न? मनुष्य जो भी प्रयत्न करता है, सफलता के लिए ही करता है। यदि वह अपने कर्त्तव्यों में पूरी तरह सावधान और ईमानदार है तो उसका सफल होना स्वाभाविक ही है। सफलता तो पुरुषार्थ का अनिवार्य फल है वह तो मिलती ही है। इसमें न तो कोई असामान्यता होती है और न विलक्षणता। तथापि बहुत से लोग कर्तृत्व की सफलता को एक असाधारण उपलब्धि समझकर बड़ा गर्व करने लगते हैं। किन्तु उनका यह गर्व उनके ओछेपन के सिवाय और किसी बात का द्योतक नहीं होता है। जिस गंभीर व्यक्ति में अपने पुरुषार्थ के प्रति विश्वास होता है, जो सफलता को जीवन की एक सामान्य स्थिति मानता है उस पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वह स्वभावतया एक सफलता से दूसरी सफलता की ओर बढ़ चलता है। किन्तु तुच्छ और ओछा आदमी उथले ताल की तरह ही थोड़ा सा पानी पाते ही सीमाओं के बाहर चलता है।

जो स्वयं को किसी सफलता का पात्र मानता है वह उसकी प्राप्ति में कभी गर्व नहीं करता। सफलता पर गर्व उसे ही होता है जो उसके अनुरूप अपनी पात्रता में विश्वास नहीं करता और उसे अपने लिए एक असाधारण उपलब्धि मानता है। ऐसे व्यक्ति जब किसी सफलता पर अभिमान करने लगते हैं तब उनके आगे का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है।

सफलता मिलने पर अभिमानी व्यक्ति अपने को दूसरों से कुछ बड़ा, ऊंचा और भिन्न मानने लगता है और चाहता है कि लोग उसकी सराहना करें, उसे शाबाशी दें और उसका सम्मान करें। जब उसकी यह वाँछा किन्हीं चाटुकारों द्वारा पूरी होने लगती है तब तो वह संतुष्ट और प्रसन्न होकर बैठा रहता है, आगे कदम बढ़ाने की कोशिश नहीं करता। किन्तु जब उसकी यह वाँछा पूरी नहीं होती तो वह पुरुषार्थियों की तरह और बड़ी सफलता पाने का प्रयत्न तो करता नहीं अपितु अन्य उपायों से प्रशंसा तथा प्रतिष्ठा पाने का प्रयत्न करने लगता है। अहंकारवश उसे ऐसा आभास होने लगता है कि समाज जान-बूझकर उसे वह पद, वह प्रतिष्ठा और वह प्रशंसा नहीं देता जो उसे मिलनी चाहिए और जिसका वह अधिकारी है। इन उपायों के रूप में वह अनाचार, मक्कारी, धूर्तता, झूठ, कृत्रिमता, छल-कपट आदिकों में से किस किस का अवलम्ब ले सकता है, कुछ नहीं कहा जा सकता। इस प्रकार सफलता पर अहंकार करने वाले की जीवनधारा ही दूसरी दिशा में मुड़ जाती है। अस्तु, सफलता के समय मनुष्य को बहुत सावधान तथा गंभीर रहना चाहिए। क्योंकि असावधान रहने पर सफलता प्रायः अन्तःकरण में प्रसुप्त अहंकार के सर्प को जगा दिया करती है।

अहंकार के साथ मनुष्य के पतन की संभावनायें सदैव जुड़ी रहती हैं। किसी भी विषय अथवा क्षेत्र में क्यों न हो अभिमान मनुष्य के पतन का ही कारण बनता है। बल ने क्षेत्र में बलि ने विकास किया और वह अपने युग का अद्वितीय बलधारी बना। बल के क्षेत्र में रावण ने विकास किया और वह अपने युग का अप्रतिम अजेय योद्धा बना। किन्तु अभिमान आते ही साधनहीन वनवासी राम ने उसे कुछ ही समय में धूल में मिला कर रख दिया। सहस्रबाहु अपने समय का प्रचण्ड बलधारी योद्धा था। युद्ध में हजार हाथों से लड़ता था। उसे अपने बल का अभिमान हुआ और उसने निर्बल जमदग्नि पर अन्याय किया, अपने बल के अभिमान में उनकी गऊ अपहरण करलीं और अवरोध करने पर उन्हें मौत के घाट उतार दिया। यह अभिमान की पराकाष्ठा थी। सहस्रबाहु के ग्रह-नक्षत्र बदल गए। बालक परशुराम ने अपना तेज संभाला और एकाकी ही एक साधारण कुल्हाड़ी से सहस्रबाहु को दलबल के साथ धूल में मिला दिया।


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