मन में दृढ़ इच्छा कर लें और सारी मानसिक शक्तियों को, उस ओर मोड़ दें तो ऐसा कोई कार्य नहीं, जो असफल रह जाये।
-स्वेट मार्डेन
मेरे पिंजड़े में प्रवेश करते ही बाघिन टूटकर मेरे ऊपर आ झपटी और मेरी पीठ के दाहिने पुट्ठे पर घाव करती हुई मुट्ठीभर माँस नोंच ले गई। मैं हक्का-बक्का रह गया। एक बार दर्द से सारा शरीर ही काँप गया। खून दाढ़ में लग जाने से बाघिन और भी उत्तेजित हो उठी। उसने देर किये बिना दूसरा झपट्टा लगाया पर अब मैं संभल चुका था मैंने अपना वही इच्छाशक्ति वाला दाँव लगाया। बाघिन की आँखों में आँखें डालकर मैंने उसके मन में दुर्दान्त प्रहार किया और ऐसा करना भर था कि बाघिन कटे वृक्ष की तरह अपने आप धराशायी हो गई। अब पूरे गुस्से के साथ मैं उस पर टूटा और लात घूँसों की बौछार से उसे बेदम कर दिया। मेरी इच्छा शक्ति बराबर काम कर रही थी इतनी खूँखार बाघिन उसी का परिणाम था कि बाघिन की तरह मरी-सी सिमटी सी पड़ी थी अब उसमें आक्रमण करने की शक्ति नहीं थी। तथापि वह गुर्राकर अपना क्रोध अवश्य प्रकट कर रही थी। ऐसे में ही आगे बढ़कर मैंने उसको चैन बाँध दी और विजयी योद्धा की भाँति चारों ओर खड़ी भीड़ की ओर देखा। सब लोग आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता से उछल पड़े। मेरा हार्दिक स्वागत किया गया। उपस्थित लोगों ने मुझे फूल और हारों से लाद दिया बहुत सा पुरस्कार भी मुझे मिला।
किन्तु घर लौटा तब पता चला कि साधु का कथन असत्य नहीं था। घाव होने के कारण शरीर में विष हो गया और उसे ठीक होने में लगभग 6 महीने लगे।
इसी बीच एक दिन वह साधु प्रकट हुए, उन्होंने मुझे समझाया बेटा अब ऐसा नहीं करना। उन्होंने योगाभ्यास की कुछ क्रियाएं भी बतलाईं और कहा इच्छा शक्ति का बल तुम्हारे पास है। चाहते तो आत्म-कल्याण और ईश्वर दर्शन जैसी महान उपलब्धि प्राप्त करते पर व्यर्थ ही खेल खिलौनों में लगे रहे। योगी लोग ईश्वर-प्राप्ति और आत्म-दर्शन का पुरुषार्थ साधते हैं, चमत्कारों के चक्कर में नहीं पड़ते। उन्होंने मुझे दवा भी दी उसी से मेरा घाव ठीक हुआ। साथ ही उनकी बात भी अच्छी तरह समझ में आ गई और मैंने आत्म-कल्याण के लिये उच्च स्तरीय योग साधनायें करने का निश्चय कर लिया।’
अपने जीवन में इच्छाशक्ति के प्रयोग का यह महत्वपूर्ण वर्णन सुनाने वाले यह शोहंग स्वामी कलकत्ता में जन्मे एक महान योगी हो गये हैं उन्हें बंगाल में टाइगर स्वामी के नाम से आज भी लोग याद करते हैं। एक बार उनकी ख्याति सुनकर श्री स्वामी योगानन्द जी उनसे मिलने गये, उन्होंने पूछा- आप खूँख्वार जानवरों से कैसे लड़ते हैं? तो उन्होंने उत्तर दिया- ‘शारीरिक शक्ति से मानसिक शक्ति कहीं अधिक प्रखर होती है। यदि हम दृढ़ विश्वास कर लें कि बाघ नहीं बिल्ली है तो वह बिल्ली ही हो जायेगा। जरूरत पड़े तो मैं अभी भी चीतों के दाँत-यह कहते हुये वे उठे और सामने सीमेंट लगी दीवाल में धंसे साबित ईंट को पकड़ कर निकालते हुए बोले- इस तरह पकड़ कर निकाल सकता हूँ।’ स्वामीजी को उनकी क्षमता पर बड़ा आश्चर्य हुआ।
किन्तु बताया- इसमें आश्चर्य जैसी कुछ भी बात नहीं है। अब तो विज्ञान भी सिद्ध करता है कि मस्तिष्क ही है जो माँस-पेशियों को नियंत्रित करता है। मस्तिष्क जितना बलवान होगा उतना ही सूक्ष्म शरीर काम करेगा। जितनी शक्ति से हथौड़े का प्रहार किया जाता है उतनी ही गहरी चोट लगती है। उसी प्रकार शरीर हथौड़ा है उसे शक्ति देने वाली मशीन तो मन या इच्छाशक्ति है। शारीरिक शक्ति का प्रदर्शन इस बात पर है कि इच्छाशक्ति में कितना बल है। शरीर एक यंत्र है। उसका उपयोग चाहे जैसे कर सकते हैं इसके विपरीत यदि मन, शरीर और इन्द्रियों को दास होगा तो वह कुछ भी नहीं कर सकेगा।
श्री योगानन्द ने प्रश्न किया- क्या मैं भी बाघ से लड़ सकता हूँ- इस पर उन्होंने हंसते हुये कहा-भाई बाघ से कोई भी लड़ सकता है। पर अपनी लालसाओं, कामनाओं, वासनाओं से लड़ कर उन पर विजय पाना अति दुस्तर कार्य है। जो वह कर ले, समझ लो वह सैंकड़ों बाघों को जीत चुका। अब मैं भी उसी दिशा में आ रहा हूँ, जो मुझे पहले ही करना चाहिये था, वह अब कर रहा हूँ, शक्ति प्रदर्शन में तो मैंने व्यर्थ ही इतना जीवन बिता दिया।