प्राणिमात्र से प्रेम करो

October 1970

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कुछ व्यक्ति एक वट वृक्ष के नीचे बैठे वार्तालाप कर रहे थे। सभी दुनिया के झंझटों से परेशान होकर भाग आये थे और साधु होने जा रहे थे। तब एक ने कहा- ‘अपन सब मिलकर जंगल में रहेंगे और तपस्या करेंगे। लेकिन यह सोचो कि जब ईश्वर वरदान माँगने को कहेगा तो माँगेंगे क्या?’

दूसरे ने कहा- ‘अन्न मांगेंगे। उसके बिना जीवित रहना संभव नहीं।’

तीसरे ने कहा- ‘बल माँगेंगे। बल के बिना सभी कुछ निरर्थक है।’

चौथे ने कहा- ‘बुद्धि माँगना ज्यादा उचित है। बुद्धि की आवश्यकता प्रत्येक कार्य को करने से पूर्व होती है।’

तब पाँचवाँ बोला- ‘ये सब वस्तुएं तो साँसारिक हैं। आत्म-शाँति माँगेंगे, जो अन्तिम लक्ष्य है मनुष्य का।’

तब पहले व्यक्ति ने कहा- ‘तुम सब मूर्ख हो। क्यों न हम स्वर्ग ही माँग लें। वहाँ समस्त उपलब्धियाँ एक साथ ही हो जायेंगी।’

तब विशाल वट वृक्ष ठहाका लगाता हुआ बोला- ‘मेरी बात मानो, तुम लोगों से न तपस्या होगी न उपलब्धियाँ प्राप्त होंगी। क्योंकि यदि इतना ही मनोबल होता तो संसार से घबरा कर न भागते। बिना माँगे ही मैं एक वरदान देता हूँ तुम्हें। उसका नाम है प्रेम- प्राणिमात्र से प्रेम करो। फिर देखो, जो वस्तु चाहोगे वही प्राप्त करने की क्षमता आ जायेगी। यह सुनकर वे उठकर अपने-अपने घर चले गये और विश्व-मानव की सेवा में जुट गये।


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