एक डबल सेट पम्प एक दिन में 3250 गैलन पानी फेंकता है, किन्तु यदि उसे दिन भर बिना एक-आध घण्टा विश्राम दिये चलाये रखा जाये तो मशीन इतनी गर्म हो जायेगी कि उसके जल उठने या फट जाने का संकट उत्पन्न हो उठेगा। इसीलिये मशीन वाले लोग उसे दिन में एक दो बार विश्राम दे लेते हैं। तेल और ग्रीस की नियमित व्यवस्था के बाद भी विश्राम मशीन के लिये आवश्यक है, उसके बिना उसका थोड़े दिन भी अच्छी तरह चल लेना संभव नहीं।
उदाहरण यह बताता है कि विश्राम भी जीवन की एक आवश्यकता है, उससे एक नई ताजगी मिलती है। किन्तु भगवान ने मनुष्य शरीर को जो क्षमताएं दी हैं, वह बताती हैं कि यदि मनुष्य संपूर्ण जीवन अविराम काम करता रहे तो, भी उसे शक्ति की कमी न रहेगी, विश्राम केवल स्थूल पदार्थों के लिये ही आवश्यक है अर्थात् शरीर यदि आराम करना चाहता है, तो उसे कुछ विश्राम दिया भी जा सकता है। पर मानसिक व आत्मिक शक्तियों से तो मनुष्य निद्रा में भी काम करता रह सकता है।
हमारे शरीर में हृदय एक ऐसा ही शक्ति स्रोत है, जो जीवन भर एक पल को भी विश्राम किये बिना काम करता रहता है। भगवान राम के सामने एक ही उद्देश्य था, आसुरी शक्तियों का दमन। तो वह आजीवन उसी में लगे रहे। बुद्ध का निश्चय था, दलित समाज को हिंसा और भाग्यवाद के कुत्सित जाल से निकालना, उसके लिये वह एक क्षण विश्राम किये बिना काम करते रहे तभी उन्हें एक आदर्श लोक-सेवक होने का यश मिला। जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी विवेकानन्द, स्वामी दयानन्द ने भारतीय धर्म और संस्कृति को नया जीवन देने का ही काम किया। पर आजीवन उसी में जुटे रहे तब कोई उल्लेखनीय उपलब्धि प्राप्त कर सके। हृदय भी ऐसा ही एक उदाहरण है, जो सारे जीवन भर 6 लीटर रक्त सारे शरीर में दौड़ाता रहता है। अपनी इस जिम्मेदारी को पूरा करने के लिये वह 1 सेकेंड की नींद तक नहीं लेता। विश्राम तो उसके लिये मृत्यु ही है। अपनी इस सक्रियता के कारण ही वह शरीर, मस्तिष्क और मनुष्य रूप में आत्मा के विकास में सहायक होता है।
जल संचालन (वाटर वर्क्स) यों सारे शहर को पानी देता है पर किसे, कब, कितना पानी दिया जाये, उसमें इस तरह की विवेक बुद्धि नहीं, ऐसा भी प्रबंध नहीं कि वह अशुद्ध हुए जल को फिर शुद्ध बनाकर जल संकट को बचाये रख सकने में समर्थ हो। हृदय दिन-रात काम करता है और सबकी आवश्यकतायें पूरी करता हुआ अशुद्ध रक्त को स्वयं शुद्ध भी करता है। यह चार भागों में विभक्त होता है, ऊपर के दो कोष्ठ ‘आरिकल्स’ और नीचे के ‘वेन्ट्रिकल्स’ कहलाते हैं। दाहिने हाथ का एक आरिकल और एक वेन्ट्रिकल में अशुद्ध रक्त का विभाग है, तो बायीं ओर के दोनों कोष्ठों में शुद्ध रक्त का विभाग। दोनों एक पिता-माता की संतान की तरह अच्छे-बुरे का ख्याल किये बिना काम करते रहते हैं। मनुष्यों की तरह सवर्ण और अछूत का भेद-भाव वहाँ नहीं रहता।
ऐसा भी नहीं कि किसी के पास असीमित रक्त हो, किसी की आवश्यकता ही पूर्ण न हो। हृदय एक धार्मिक साम्यवाद का प्रतीक है, जहाँ से वितरण असमान तो होता है पर वह आवश्यकता के अनुसार वितरण- जिसका जैसा काम उसके अनुसार इनाम का प्रबंध रहता है। अपने वाल्व सिस्टम और दबाव नियंत्रण (प्रेशर कन्ट्रोल) के द्वारा उचित मात्रा में सबको रक्त पहुँचाता है। यह दोनों यंत्र बताते रहते हैं कि कितने रक्त की आवश्यकता है, फिर उतना ही रक्त वहाँ पहुँचता है।
आपातकालीन व्यवस्था भी रहती है, कभी कहीं कोई स्थान कट जाता है या चोट लग जाती है, तो हृदय अपनी कुछ विशेष धमनियों को चलाकर उस स्थान में पहले से बहुत अधिक मात्रा में तब तक रक्त पहुँचाता रहेगा जब तक उतने रक्त की आवश्यकता बनी रहेगी। पूँजी एकत्रित करने का प्रयत्न करने वाला शरीर का प्रत्येक अंग दूषित हो जाता है इसलिये हृदय अधिकार से अधिक रक्त किसी को भी नहीं देता।
मस्तिष्क-सारे जीवन का केन्द्र बिन्दु, प्राण और उसे, शुद्धतम रक्त की आवश्यकता होती है, हृदय उसे शुद्ध से शुद्ध रक्त देता है। हाथ दिनभर काम करते हैं उन्हें गर्म और ताजा रक्त, जिसे कम से कम जरूरत उसे कम और अन्त में सबके गंदे किये हुए रक्त को स्वयं ले लेने की महानता। खराब रक्त को पुनः शुद्ध कर शरीर को लौटा देने की तपश्चर्या हृदय ही कर सका। इसीलिये भगवान ने उसे निरन्तर काम करने और लंबे आयुष्य के उपभोग की आयुष्य दी है।
हृदय प्रति मिनट में 72 बार धड़कता है। 1 वर्ष के बच्चे में वह 120 बार धड़कता है। हम कभी कोई भयानक दृश्य देखते हैं तो हृदय अपनी धड़कन बढ़ाकर ऐसी व्यवस्था करता है कि भय के कारण उत्पन्न स्थिति विस्फोटक न होने पाये। यह एक विचित्र यंत्र है, जहाँ पर हजारों नस-नाड़ियाँ शुद्ध रक्त शरीर के प्रत्येक भाग को ले जाती है और अशुद्ध खून दिल में ले आती हैं, यही अशुद्ध रक्त हृदय फेफड़ों में भेजकर शुद्ध करा लेता है और फिर शरीर को बाँट देता है। साढ़े चार इंच लंबे साढ़े तीन इंच चौड़े और ढाई इंच मोटे इस रुधिर परिवाहक को कारोनरी आर्ट्री नामक बारीक धमनी खून देती है। ‘कारोनरी’ ‘वासा वासोरम’ नस पर वासा वासोराम को कहाँ से जीवन मिलता है, यह शरीर शास्त्रियों को ज्ञात नहीं। लोक सेवा का उत्तरदायित्व जो हृदय के समान निष्ठापूर्वक निबाहते हैं। उन्हें भी ऐसी ही अदृश्य सहायतायें मिलती हैं।
विश्राम और स्थूल साधनों की अपेक्षा स्थूल पदार्थ और योजनायें करती होंगी। विचारशील चेतन प्राणी उससे भिन्न है, उसे तो हृदय की तरह अविराम काम ही करते रहना चाहिये। ताकि समाज-व्यवस्था बिगड़ने न पाये। जो लोग अपने आपकी चिन्ता किये बिना ऐसी लोक-सेवा में उत्सर्ग होते हैं, उन्हें शक्ति और साधनों का हृदय के समान कभी अभाव नहीं रहता।