संसार में आज तक जितने भी महापुरुष हुए हैं सबका ध्येय जन सेवा रहा है। यह बात दूसरी है किसी ने तन से सेवा की हो किसी ने वचन या धन से। अधिकतर महापुरुष निर्धन ही रहे हैं, जनता की सेवा लायक धन उनके पास रहा ही नहीं। उनकी सेवा अधिकतर तन-मन एवं वचन द्वारा ही सम्पादित हुई है। यही सेवा उच्च तथा समीचीन भी है। धन की सेवा से प्रायः अहंकार का दोष आ सकता है। ऐसे हरिश्चन्द्र जैसे कम दानी ही होते हैं जो सर्वस्व देकर भी विनम्र तथा निरहंकारी बने रहते हों।
सेवा करने से कोई प्रत्यक्ष लाभ तो होता नहीं। ऐसा लाभ-भौतिक लोग जिन लाभों को पदार्थों के रूप में देखते मानते हैं। फिर ऐसी क्या बात हो सकती है कि महापुरुष कहे जाने वाले जैसे बुद्धिमान लोगों ने अपना पूरा का पूरा जीवन जन सेवा के लिये समर्पित कर दिया। इतना ही नहीं वे दूसरों को भी ऐसा करने की प्रेरणा देते रहे और आज भी देते हैं। अवश्य ही जन सेवा से ऐसा कोई लाभ होना ही चाहिये। जिसने संसार के श्रेष्ठ लोगों को सेवा ध्येयी बना दिया। निश्चय ही वह अनिर्वचनीय लाभ आत्मसन्तोष है। जन सेवा का पुण्य परमार्थ अथवा स्वर्ग मोक्ष का लाभ परोक्ष हो सकता है जो कि जीवन के बाद मिल सकता है, किन्तु आत्म संतोष का लाभ प्रत्यक्ष है। वह इसी जन्म से पग-पग तथा क्षण-क्षण पर मिलता रहता है। यह लाभ कितना बड़ा कितना विशाल और कितना अनिर्वचनीय हो सकता है इसका अन्दाज इसी से लगाया जा सकता है कि महापुरुष अपना बहुमूल्य जीवन व समय इसके लिये जन सेवा को समर्पित कर दिया करते हैं। इतना ही क्यों? न जाने ईसा और गाँधी जैसे कितने महापुरुष ऐसे हुये हैं जिन्होंने जनता जनार्दन के हित में, उसकी सेवा करने में अपने प्राणों की आहुति दे दी।
निःसंदेह आत्म-संतोष का सुख ऐसा ही महान तथा अनुपम है। इस सुख के सम्मुख मोक्ष सुख को भी महत्ता नहीं दी गई है। जहाँ मोक्ष का सुख अपने में कर्त्तव्यों तथा गतिशीलता का अभाव रहता है वहाँ आत्म-संतोष के सुख के पीछे निरन्तर कर्मशीलता की शोभा विद्यमान है। कर्म एवं कर्मयोगी जन निष्क्रिय सुख की अपेक्षा सक्रिय सुख को ही अधिक महत्व दिया करते हैं।
आत्म-संतोष की विशेषता बतलाते हुए कहा गया है कि यह मनुष्य जीवन के कर्त्तव्यों पर दृढ़ भाव लाता है। सामान्य परिस्थितियों में भी मनुष्य के अन्तःकरण को भगवान ऐसा बना देता है। संसार के लोगों की सेवा का सुख महापुरुषों ने उठाया। उनका मुख्य लक्ष्य आत्मा-सन्तोष जहाँ रहा वहीं महानता निखरी और संसार का कल्याण हुआ।
भगवान राम पिता की आज्ञा पालन रूप राज्य का उत्तराधिकार छोड़कर वनवास में चले गये। जहाँ पर उन्होंने आत्म-संतोष के बल पर जंगल के सारे अभाव तथा कष्ट हंसते-हंसते झेल लिये। सीता तथा लक्ष्मण का अनुगमन भी आत्म-संतोष से ही प्रेरित था और इसी आधार पर उन्होंने भी सारे कष्ट और सारी यातनाओं को पुष्पवत् सुखद तथा शीतल माना। भगवान परशुराम को अपने के द्वेषी कीर्त्तवीर्य को मारकर भी जब संतोष नहीं हुआ तो इक्कीस बार पृथ्वी को निःक्षत्र कर देने पर भी जब उसकी प्राप्ति न हुई तब उन्होंने कठोर तपश्चर्या का व्रत धारण किया और जब तक आत्म-संतोष प्राप्त नहीं कर लिया उसमें लगे ही रहे। निश्चय ही आत्म संतोष ऐसी ही मूल्यवान सम्पदा है। इसके प्राप्त हो जाने पर फिर किसी धन किसी सुख अथवा किसी वैभव की आकाँक्षा नहीं रहती।
भौतिक क्षेत्र में भी तो जन साधारण की सारी क्रियाओं का प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष लक्ष्य आत्म-संतोष ही होता है। यह भिन्न बात है कि अपनी न्यूनताओं तथा त्रुटियों के कारण वे उसे पाते न हों। जीविका कमाने खाने और परिवार का पालन करने में संतोष की संभावना न हो तो उसे कोई क्यों करने लगे। व्यवसायों, व्यापारों, सेवाओं अथवा अन्य कष्टकर कर्त्तव्यों के पालन करने में आत्म-संतोष की आशा न रहे तो शीघ्र ही लोग छोड़-छाड़ कर बैठ जायें। आत्मसंतोष की झलक तथा उसको अधिकाधिक पाने की आशा ही तो मनुष्य को जीवन पथ पर अनेकानेक कठिन परिस्थितियों के बीच भी उत्साह पूर्वक सक्रिय रखती है। जिन जिनको इसमें असफलता मिलती है अथवा जिनकी आशा टूट जाती है उनका मन ही संसार से उचट जाता है। वे अपने मानवीय कर्त्तव्यों से विमुख हो या तो साधु वैरागी हो जाते हैं अथवा आत्मघात जैसा पाप कर बैठते हैं। आत्म-संतोष ही वह धुरी है जिस पर संसार का चक्र घूम रहा है। यदि परिवार, संतान, समाज तथा राज्य व्यवस्था से सन्तोष लाभ न हो तो कोई भी इसके लिए सहम न हो और जहाँ-जहाँ इनसे लोग आत्म-संतोष के विषय में निराश हो जाते हैं वहाँ-वहाँ यह व्यवस्थायें भंग हो जाती हैं। बड़ी क्राँतियाँ घटित हो उठती हैं। आत्म-संतोष संसार का सार तत्व है। इसे सभी को प्राप्त करने का प्रयत्न करना ही चाहिए और लोग प्रयत्न कर भी रहे हैं।
किन्तु किसी भी लक्ष्य को पाने के लिये एक समुचित पथ निर्धारित होता है, जिस पर चलकर ही गन्तव्य तक पहुँचा जा सकता है। जो भ्रम भूल अथवा किसी अन्य कारणवश अन्यथा पथ ग्रहण कर लेते हैं वे असफल ही हो जाया करते हैं। आत्म-संतोष करने के लिये भी पथ निर्धारित है और वह है निस्पृह एवं निःस्वार्थ रूप से संसार की सेवा का पथ। लोग सेवा करते भी हैं। उनकी सारी क्रियाएं तथा सारे कार्य कलाप एक प्रकार की सेवा के ही तो रूप हैं। फिर चाहे वह अपनी सेवा हो परिवार अथवा समाज की सेवा हो। इसके लिये वे धन, श्रम तथा समय भी व्यय करते हैं। किन्तु आत्म-संतोष का वाँछित लक्ष्य प्राप्त नहीं कर पाते। इस असफलता के मूल में उनकी अपनी कोई न कोई भूल अवश्य ही रहा करती है।
कितने ही लोग असंख्यों धन कमाते हैं और उनमें से कितने ही विभिन्न मार्गों द्वारा जन सेवा में भी लगाते हैं। कोई दान देता है। भूखे, नंगों को भोजन वस्त्र बाँटता है, सदावर्त खुलवा देता है। अनेक धर्मशाला, मन्दिर तथा चिकित्सालयों की व्यवस्था कर देते हैं। बहुत से विद्यार्थियों के लिये छात्र वृत्तियाँ तथा शिक्षा के लिये विद्यालयों का प्रबंध करते रहते हैं। बहुत से लोगों की रोटी-रोजी के लिये उद्योग भी खड़े कर देते हैं। गौशाला, पाठशाला, धर्मशाला, कुआँ, तालाब, बाग, बगीचे आदि छोटे-मोटे काम भी जन सेवा के ही रूप हैं। अनेक लोग जन संस्थाओं, जन सेवकों को तथा महात्माओं की सहायता के रूप में जन सेवा का प्रयत्न किया करते हैं। अनेक व्यक्तिगत रूप अथवा जन सेवी संस्थाओं के सदस्य अथवा कार्यकर्ता बनकर समाज की सक्रिय सेवा भी करते हैं। अनेक लोग निःशुल्क शिक्षा देकर निरक्षरता को दूर करने को जनसेवा मान लेते हैं। इस प्रकार की न जाने कितनी जन सेवाएं हैं जिन्हें लोग करते और आत्म-संतोष पाने के लिए लालायित रहा करते हैं। किन्तु स्पष्ट देखने में आता है कि वे अपने इस लक्ष्य में कृतकृत्य नहीं हो पाते। अधिकतर लोग असफल एवं असन्तुष्ट ही दिखाई देते हैं। जन सेवा के फलस्वरूप जो तेज, जो ओज और जो प्रसन्नता उनके चेहरों पर दिखलाई देनी चाहिये वह नहीं दिखलाई देती। इसका एक मुख्य कारण है। ‘लोक-लिप्सा की दुर्बलता।’ लोक-लिप्सा की भावना मनुष्य की सारी सेवाओं को व्यापार में बदल कर रख देती है। जन सेवा के कार्यों से जो पुण्य परमार्थ और उसके फलस्वरूप जो अनिर्वचनीय आत्म-संतोष का सुख प्राप्त होना चाहिए, लोग, लोक-लिप्सा के कारण उससे वंचित हो जाते हैं।