संगीत कला विहीनः साक्षात् पशु पुच्छ हीन

October 1970

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‘संगीत कला विहीन मनुष्य पुच्छहीन पशु की तरह है।’ उपर्युक्त श्लोक में एक तरह से संगीत के प्रति श्रद्धा और प्रेम न रखने वाले व्यक्ति की निन्दा की गई है, पर ऐसा लगता है श्लोककार ने यह पंक्तियाँ लिखते हुए यह ध्यान नहीं दिया कि संगीत एक ऐसी वस्तु है, पशु-पक्षी भी जिसके प्रति अपार आदर और प्रेम रखते हैं।

फ्राँसीसी लेखक ऐलीसन को एक बार किसी अपराध में पकड़कर जेल भेज दिया गया। अपने जेल-जीवन का एक रोमाँचकारी संस्मरण प्रस्तुत करते हुए श्री ऐलीसन ने लिखा है-एक दिन जब मैं अपनी बाँसुरी बजाने में मग्न था तब मैंने देखा जाले के भीतर से एक मकड़ी निकली और बाँसुरी के स्वर-तालों के साथ ऐसे घूमने लगी मानो वह नृत्य करना चाहती हो। मैंने उस दिन से अनुभव किया कि संगीत कोई एक ऐसी शक्ति है जो प्रधानतया शरीर में रहने वाली चेतना से संसर्ग करती है, तभी तो सृष्टि का इतना तुच्छ जीव भी उसे सुनकर फड़क उठता है।

संगीत एक पराशक्ति है और उसे प्रयोग करने के विविध उपायों का नाम है ‘शास्त्रीय संगीत’। संगीत से मनुष्य की किसी भी भावना को उत्तेजित किया जा सकता है और समाज में व्यवस्था स्थापित की जा सकती है।

मियामी विश्व विद्यालय अमेरिका के वैज्ञानिक डॉ. जे.डी. रिचार्डचन ने समुद्री मछलियों को पकड़ने के लिये एक विशेष संगीत ध्वनि का आविष्कार किया है। उनका कहना है कि समुद्र के किनारे चारा लगी वंशियाँ डाल दी जायें और फिर वह स्वर बजाया जाये तो उसे सुनने के लिये सैंकड़ों की संख्या में मछलियाँ दौड़ी चली आती हैं। उससे इस सिद्धाँत की पुष्टि अवश्य होती है कि संगीत विश्व की एक आध्यात्मिक सत्ता है। संसार का प्रत्येक जीवधारी उसे पसंद करता है। मनुष्य को तो मानवीय सद्भावनाओं के उत्प्रेरण में उसका सदुपयोग करना ही चाहिये।

समुद्र में पाया जाने वाला शेरो जन्तु तो संगीत की स्वर लहरियों पर इतना आसक्त हो जाता है कि यदि उसे कहीं मधुर स्वर सुनाई दे जाय तो वह अपने जीवन की चिन्ता किये बिना प्राकृतिक प्रकोप और अवरोधों को भी पार करता हुआ वहाँ पहुँचेगा अवश्य। पाश्चात्य देशों में विद्युत से बजने वाला एक ऐसा यंत्र बनाया गया है, जिसकी स्वर-तरंगें सुनकर मच्छर दौड़े चले आते हैं और उस यंत्र से टकरा-टकरा कर ऐसे प्राण होम देते हैं जैसे दीपक की ज्योति पर पतंगे प्राण अर्पण कर देते हैं।

अभी कुछ दिन पूर्व न्यूयार्क मेट्रोपोलिटन (म्युनिस्पैलिटी की तरह नगर प्रशासक संस्था को मेट्रोपोलिटन कहते हैं, यह बड़े-बड़े नगरों में जैसे दिल्ली आदि में होती है) के संग्रहालय ने अफगानिस्तान के डॉ. एम फरीदी से 18 हजार पौण्ड में एक पुस्तक खरीदी है। यह पुस्तक एक भारतीय सूफी संत ख्वाजा फरीदुद्दीन खट्टर द्वारा लिखी गई है उसका नाम है ‘संत कुबेर’। इस पुस्तक में लिखा है कि संसार के सैंकड़ों जीव विधिवत गाते भी हैं। उनके द्वारा गाये जाने वाले गीत भी 362 पृष्ठों वाली इस पुस्तक में दिये हैं। इस पुस्तक की दो प्रतियाँ- एक काश्मीर में दूसरी वाराणसी में उपलब्ध बताई जाती है।

जापान में कई सम्पन्न व्यक्तियों के पास विभिन्न जीव जन्तुओं का रिकार्ड किया हुआ संगीत उपलब्ध है, जब किसी सार्वजनिक उत्सव या किसी विदेशी अभ्यागत का स्वागत होता है तो उसे सुनाया भी जाता है। मादा मेढ़क जब प्रसवकाल में होती है तो वह बड़े मधुर स्वर में गाती है। कहते हैं कि गर्भिणी मेढ़क का विश्वास होता है कि गाने से उसका प्रसव बिना कष्ट के होगा साथ ही पैदा होने वाला नया मेढ़क भी स्वस्थ और बलवान होगा। इस किंवदन्ती में कितना अंश सच है, यह तो निश्चित नहीं कहा जा सकता किन्तु मनुष्य के बारे में यह निर्विवाद सत्य है कि गर्भावस्था में माता के हाव-भाव और विचारों का गर्भस्थ बालक पर प्रभाव पड़ता है। यदि गर्भवती स्त्री को नियमित रूप से संगीत सुनने को मिले तो उससे न केवल प्रसवकाल का कष्ट कम किया जा सकता है वरन् आने वाली सन्तति को भी शारीरिक मानसिक तथा आत्मिक दृष्टि से दृढ़ और बलवान बनाया जा सकता है।

प्रसव के तत्काल बाद ‘सोहर’ संगीत गाने की भारतीय लोक जीवन में अभी भी व्यवस्था है, वह इस बात की प्रतीक है कि यदि बच्चा बुरे संस्कार भी लेकर आया है तो यदि उसे संगीत के प्रभाव में रखा जाये तो पूर्व जन्मों के असत् और दूषित संस्कारों का पूर्ण प्रक्षालन किया जा सकता है।

कहते हैं तानसेन जिन दिनों अपने गुरु सन्त हरिदास के पास संगीत विद्या का अभ्यास कर रहे थे, एक दिन वह जंगल गये। उन्होंने देखा एक वृक्ष पर अग्नि जलती है और फिर बुझ जाती है। अग्नि के जलने और बुझने की यह घटना तानसेन ने आश्रम में आकर गुरुदेव को सुनाई और उसका रहस्य पूछा। स्वामी हरिदास ने बताया उस वृक्ष पर एक ऐसा पक्षी रहता है। जिसके कण्ठ से निकले हुये, स्वर-कंपन दीपक राग के स्वर कंपनों के समान हैं। जिस तरह कोयल एक विशेष लय में ‘कुहू-कुहू’ गाती है, जिस तरह पपीहा एक आहत ध्वनि प्रसारित करता है, उसी प्रकार जब वह चिड़िया सहज बोलती है तो वह स्वर लहरियाँ फूटती हैं, उसी से अग्नि जलती और बुझती है। इस विशेष घटना से ही प्रेरित होकर तानसेन ने ‘दीपक राग‘ का मनोयोग पूर्वक अभ्यास कर उसमें सिद्धि प्राप्त की।

देखने सुनने में यह घटनायें अतिरंजित होती हैं, पर जो लोग शब्द और स्वर विज्ञान को जानते हैं उन्हें पता है कि प्राकृतिक परमाणुओं में अग्नि आदि तत्व नैसर्गिक रूप में विद्यमान हैं, उन्हें शब्द तरंगों के आघात द्वारा प्रज्ज्वलित भी किया जा सकता है। आज पाश्चात्य देशों में शब्द शक्ति के द्वारा जो आश्चर्यजनक कार्य हो रहे हैं वह सब स्वर कंपनों पर ही आधारित हैं और उनसे वहाँ कई प्रकार की औद्योगिक क्रान्तियाँ उठ खड़ी हुई हैं। हम उधर ध्यान न दें तो भी इन आख्यानों को पढ़कर यह तो पता लगा ही सकते हैं, कि जीव मात्र में फैली हुई आत्म-चेतना आनन्द प्राप्ति के एक सर्वमान्य लक्ष्य से बंधी हुई है। उस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये योग-साधनायें कठिन हो सकती हैं, पर स्वरों की कोमलता और लयबद्धता में कुछ ऐसी शक्ति है कि वह सहज ही में आत्मा को ऊर्ध्वमुखी बना देती है। उससे शारीरिक, मानसिक लाभ भी है, पर आत्मोत्थान का लाभ सबसे बड़ा है। संगीत कला का उपयोग उसी में किया भी जाना चाहिये।


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