साधना त्रिवेणी

June 1970

Read Scan Version
<<   |   <  | |   >   |   >>

किधर भी दृष्टि डालें, उधर ही चैतन्यता दिखाई देगी; यहाँ तक कि विराट अन्तरिक्ष के परमाणु भी चुप नहीं हैं। सूर्य, चन्द्रमा और नक्षत्र भी अपने भीतर जो कुछ है, उसे विकीर्ण करते रहते हैं और बाहर से कुछ धारण करते हुये अपनी शक्ति बढ़ाते रहते हैं। बढ़ने और बट जाने की इस अन्तर्चेतना का आधार ढूँढ़ना ही ईश्वर को प्राप्त करने का विज्ञान है।

इस जगत में परमात्मा के अद्भुत कर्म-स्थान में हो रहे हैं। उनको देखकर ईश्वर के सामर्थ्य की कल्पना करनी चाहिये। वह ईश्वर जीवात्मा का सच्चा मित्र होने से ही जीवात्मा के हित के लिये सब कार्य इस जगत में कर रहा है। यही उसकी अपार दया है। इस दया के प्रति कृतज्ञ होना और उसका कीर्तन करना ही उसकी भक्ति है।

ज्ञानी लोग उसके इस उपकार का स्मरण करते हुये उसका ध्यान करते हैं; इससे उन्हें परमात्मा का साक्षात्कार ऐसे होता है, जैसे साधारण लोगों को सूर्य दिखाई देता है। विचार की दृष्टि से जो लोग इस जगत को देखते हैं, उनको परमात्मा का साक्षात्कार सर्वत्र होता है।

वे जागृत आत्माएँ जो आलस्य नहीं करतीं और सदा पुरुषार्थ में तत्पर रहती हैं, वे ही भक्ति, ज्ञान और विज्ञान की इस साधनारूपी त्रिवेणी में स्नान करती हुई सिद्धि प्राप्त करती हैं।

ऋग्वेद 1/22


<<   |   <  | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles