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June 1970

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सीसं जहा सरीरस्स जहा मूलं दुमस्स य।

सव्वस्स साहुधम्मस्स तहा झाणं विधीयते।

-इसिभासियाइं 22।13

आत्मशोध का साधना में ध्यान का ऐसा ही प्रमुख स्थान है जैसे शरीर में मस्तिष्क तथा वृक्ष में उसकी जड़ का।

इसलिये आत्म-चेतना का किसी भी दृश्य पदार्थ से जोड़कर एकाकार हो जाना और उस वस्तु की प्रकृति की जानकारी प्राप्त कर लेना कोई दुःसाध्य प्रक्रिया नहीं है।

देखने से तो हमारा शरीर भी जड़ प्रतिभासित होता है। किन्तु उपरोक्त सिद्धान्त के अनुसार शरीर की जड़ता में भी चेतना व्याप्त है और वही मानसिक चेष्टाओं के अनुभव एवं बोध के रूप में अभिव्यक्त होती है। यदि 1838 व 39 में जर्मनी के प्रसिद्ध वनस्पति शास्त्री एम.जे. श्लाइडेन और प्राणिविद् थियोडोरश्वान कोशिका सिद्धान्त के निरूपण द्वारा इस बात को सिद्ध नहीं कर देते तो भारतीय तत्व दर्शन सचमुच उपेक्षित ही पड़ा रहा होता। शरीर देखने में जड़ लगता है। वह जिन कोशिकाओं (सेल्स) से बना है, वे हैं भी रासायनिक प्रणाली ही के। किन्तु उनके भीतर की रासायनिक हलचल समाप्त हो जाती है तो वे मर जाती हैं अर्थात् रासायनिक स्वरूप होने पर भी चेतना प्रणाली एक भिन्न सत्ता है और वह भिन्न सत्ता, वह प्रणाली, सृष्टि के प्रत्येक कण में विद्यमान है। ध्यान के द्वारा उस सूक्ष्म चेतना के साथ ही सम्बन्ध जोड़कर तादात्म्य का लाभ लेते हैं।

कौन-सा ध्यान अच्छा है, कौन अनुपयोगी और हानिकारक है, यह प्रत्येक वस्तु की प्रकृति पर निर्भर है और अन्यत्र विचार की वस्तु भी। किन्तु ध्यान विज्ञान का एक गूढ़तम सिद्धान्त है जिसके द्वारा न केवल चेतन और कोमल वस्तुओं का वरन् कठोर-से कठोर वस्तुओं का भी भेदन करके वहाँ की स्थिति का पता लगाया जा सकता है। कई भारतीय योगियों द्वारा पृथ्वी के अन्दर जन-स्रोतों का पता देने के वर्णन अखण्ड-ज्योति में छप चुके हैं। गड़ा धन, भूतों से सम्बन्ध स्थापित करना देव-शक्तियों से तादात्म्य स्थापित कर दिव्य एवं चमत्कारिक शक्तियों का अर्जन सब ध्यान की परिपक्वता के ही परिणाम है। टेड सीरियस ने भी गुप्त खजानों की खोज के लिये यह अभ्यास प्रारम्भ किया था। यह एक अलग बात रही कि सम्यक् मार्ग-दर्शक प्राप्त न होने के कारण उसकी यह विलक्षण प्रतिभा भी कोई उपयोगी लाभ नहीं दे सकी, जबकि भारतीय तत्ववेत्ता ध्यान-सिद्धि के द्वारा अपना, हजारों औरों का भी भला करते हुए मोक्ष और परमानन्द के अधिकारी होते हैं।


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