समुद्र से जल भरकर वापस लौट रहे मरुत देवों को विंध्याचल शिखर ने बीच में ही रोक दिया। मरुत विंध्याचल के इस कृत्य पर बड़े कुपित हुये और युद्ध ठानने को तैयार हो गये।
विंध्याचल ने बड़े सौम्य भाव से कहा-महाभाग। हम आपसे युद्ध करना नहीं चाहते, हमारी तो एक ही अभिलाषा है कि आप यह जो जल लिये जा रहे हैं वह आपको जिस उदारता के साथ दिया गया है उसी उदारता के साथ आप भी इसे प्यासी धरती को पिलाते चलें तो कितना अच्छा हो।
मरुतों ने अपने अपमान की पड़ी थी सो वे शिखर से भिड़ ही तो गये पर जितना युद्ध किया उन्होंने उतना ही उनका बल क्षीण होता गया और धरती का जल धरती को अपने आप मिल गया मनुष्य न चाहे तो भी ईश्वर अपना काम करा ही लेता है पर श्रद्धापूर्वक करने का तो आनन्द ही कुछ और है।