एक चींटी कहीं से गुड़ का ढेला पा गई। उसे उसने कोठरी में बन्द कर लिया। प्रतिदिन चुपचाप थोड़ा सा गुड़ खा लेती, दुर्ग में और भी जो कर्मचारी थे, उनमें से एक को भी रत्तीभर टुकड़ा न देती।
रानी चींटी को एक दिन पता चल गया। उसने सब चींटियों को आदेश दिया। वे घुस पड़ीं और उस चींटी का सारा गुड़ छीनकर न केवल खा गईं, वरन् उसे चोरी के अपराध में बाहर निकाल दिया। चींटी अपनी स्वार्थपरता पर दुःख करती, जिन्दगी भर वैसे ही अकेले मारी-मारी फिरी, जैसे स्वार्थी मनुष्य जीवन भर अकेलेपन का कष्ट झेलता है। उसका कोई हमदर्द नहीं होता।