प्रेम की परख– प्रेम की परिणति

June 1970

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गंगा का जल शुभ्र, धवल और यमुना का नील वर्ण दोनों जल किसी रजत पात्र में लाकर अलग-अलग रखे जायें, तो भेद किया जा सकता है। श्याम वर्ण जल यमुना का, श्वेत जल गंगा का; किन्तु जब गंगा और यमुना दोनों मिलकर एक हो जाती हैं, तो आगे की पहिचान करना कठिन हो जाता है कि गंगा का जल है या यमुना का। प्रेम की परिणति भी ऐसी ही है कि उसमें दो तत्त्वों का तदाकार इस स्थिति तक हो जाता है कि एक सामान्य रस-धारा के अतिरिक्त दोनों में द्वैत का कहीं कोई भाव ही नहीं रहता। यह नहीं पहचाना जा सकता कि इसमें प्रधान इच्छा किसकी है।

दूध और पानी के समान दो प्रेमियों के हृदय से अलग-अलग प्रस्फुटित दो धाराओं का संगम हो जाता है, तो दोनों में कोई अन्तर नहीं किया जा सकता। स्त्री-पुरुष, भाई-भाई, मित्र-मित्र, पिता-पुत्र आदि लौकिक सम्बन्धों में भी प्रेम का प्रवाह ऐसा ही है। जब सर्वथा दो भिन्न धाराओं का एकाकार होता है, तो यद्यपि दूसरों की दृष्टि में जोड़े में कितने ही दोष-दुर्गुण होते हैं; तो भी उनमें से परस्पर वह दोष तिरोहित हो जाते हैं और केवल गुणों की ही सत्ता शेष रह जाती है। पानी अपनी लघुता को दूध में घुलाकर स्वयं भी दूध हो जाता है। इसलिये सांसारिक सम्बन्धों की मधुरता के लिये भी प्रेम से बढ़कर कोई अन्य उपादान नहीं।

प्रेम अन्तःकरण की एक ऐसी उपज है, जो शुष्क से शुष्क, कठोर-से-कठोर और कितने ही दिशाभ्रांत जीवन को सरस, सरल और प्रकाशवान बना देती है। प्रेम से मधुर संसार में और कुछ नहीं। जब ऐसे दो प्राणी मिलते हैं, तो आनन्द की त्रिवेणी प्रवाहित होने लगती है; किन्तु वियोग से क्या वह आकर्षण समाप्त हो जाता है। चुम्बक के दोनों ध्रुव दो विपरीत दिशाओं में अनन्तकाल से जुड़े हैं, पर उन दोनों का एक ही प्रयत्न है। पुनः मिलन का प्रयत्न अनादिकाल से दोनों ध्रुवों की धारायें एक-दूसरे को आकर्षित करने में लगी हैं। जीवन की प्रत्येक सूक्ष्म सत्तायें अलग-अलग होकर भी अपने प्रेमी के प्रति अद्यतन समर्पित होकर इस सिद्धान्त की पुष्टि करती हैं कि विरह में भी प्रेम निखरता है, कम नहीं होता।

अविश्वास को विश्वास में, निन्दा को प्रशंसा, तर्क-वितर्क को निष्ठा और औद्धत्य को सेवा में बदल देने की शक्ति केवल प्रेम में ही है। प्रेमी कभी आलस्य में घिरा बैठा रहे, ऐसा हो ही नहीं सकता। अपने प्रेमास्पद की कितनी  इच्छाएँ उसे पूरी करनी होती है? इच्छाएँ कहीं चुपचाप बैठे पूरी होती हैं? नहीं– तो फिर दोनों ही सक्रिय होते हैं– कुछ न कुछ जुटाते हैं और एक दूसरे को देते हैं। परस्पर आदान-प्रदान की यह धारा ही तो समस्त चेतना का आधार है। जिस दिन वह न रहेगी, उस दिन संसार का विराम एक शून्य के अतिरिक्त कुछ भी तो नहीं होगा। प्रेम ही सृष्टि में प्राण और जीवन का आविर्भाव करता है।

कमजोर हो कोई, और उसे अपनी दीनता धोनी हो, तो वह सच्चे हृदय से प्रेम करके परीक्षा कर ले कि उसके हृदय में साहस और हिम्मत का कितना आधार छिपा पड़ा है। जो कठिन परिस्थितियों में धैर्य नहीं रख सकते, वह सच्चे प्रेमी बनकर जीवन में स्थिरता, दृढ़ता और गम्भीरता ले आते हैं, प्रेमी ही संसार का सबसे अधिक कष्टसहिष्णु हो सकता है। वह जानता है कि प्रेमी के लिये अपने प्राणों का भी कोई मूल्य नहीं, ऐसा व्यक्ति ही सच्चा साहसी, धीर, कर्मनिष्ठ और सम्पत्ति वाला हो सकता है। इसीलिये प्रेम को पारस और कल्पवृक्ष कहा है।

प्रेम जीवन की इन संघर्षपूर्ण परिस्थितियों में भी शुष्कता उत्पन्न नहीं करता, यह संघर्ष करते हुए भी वह रसपान करता है– जहाँ भी, जैसी भी स्थिति में रहता है, स्वर्ग अनुभव करता है। ऐसा केवल जीवित वस्तुओं के प्रति प्रेम से होता हो, सो भी नहीं। किसी भी निर्जीव सत्ता के और आदर्श के प्रति प्रेम में भी वही रस, वही स्वर्गीय अनुभूति और आनन्द की हिलोरें लहर मारती हैं।

सरदार भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु ने किसी व्यक्ति से प्रेम नहीं किया था, उनका प्रेम अपने देश, अपनी संस्कृति और अपने आदर्श से था। 24 मार्च 1931 को उनको फाँसी होनी थी। किन्तु उन्हीं दिनों महात्मा गाँधी और वायसराय लार्ड इरविन के मध्य वार्ता होने को थी, उसमें उनकी फाँसी की बहाली के लिये भी जोर डाला जा रहा था। कुछ ब्रिटिश अधिकारियों ने द्वेषवश 24 मार्च के बजाय 23 को ही फाँसी दिला दी। उस समय का दृश्य स्मरण करें, तो पता चले कि आदर्शों के प्रति प्रेम की चसक भी राई-रत्ती भर भी कम नहीं होती।

उस दिन एकाएक समय से पहले ही इन कैदियों को कोठरियों में बन्द कर दिया गया। लाहौर सेन्ट्रल जेल के दरोगा श्री शेख मुहम्मद अकबर के आँसुओं ने इन्हें सूचना दे दी थी कि फाँसी आज ही होगी। तीनों कैदी पास-पास की कोठरियों में थे, एक की आवाज दूसरे तक पहुँच सकती थी। राजगुरु ने भगतसिंह को पुकारकर कहा–"मुबारक हो ! आज ही विदा होंगे।" इस पर भगतसिंह बोले– "प्यारे मित्र ! सुना है आज मकतल में हमारा इम्तहान होगा।" ‘इन शब्दों में जो मस्ती थी, वह जेल के अधिकारियों को भी रुला देती थी और उनमें देश प्रेम पैदा कर देती थी। उस दिन इन्होंने रसगुल्ले मँगाकर खाये। जेलर यह भी चाहता था कि उन्हें कोई भी बाहर निकाल ले जाये, वह किसी प्रकार संघर्ष न करता। इन तीनों वीरों को उसकी सूचना भी दे दी गई, पर उन्होंने बाहर निकलने से इनकार कर दिया। उनने माँग की तो कुल इतनी कि जब फाँसी लगने का समय हो, तो उससे 10 मिनट पूर्व बता दिया जाय कि वे अपनी भारतमाता की जय बोल सकें। तीनों ही देशप्रेम के दीवाने ऐसी ही मस्ती भरी आवाज में जय-जयकार करते हुए फाँसी के तख्ते पर झूल गये।

प्रेम, वाणी और हृदय को पवित्र करने वाली सर्वव्यापी सत्ता है। उसमें सच्चाई होती है, आदर्श होते हैं, आग्रह होता है, आकर्षण होता है और होती है हृदय की विशालता, जो न केवल अपने प्रेमी के लिये श्रद्धा-विनत करती है, वरन् सम्पूर्ण चेतना में ही उसे दिव्य रस की अनुभूति कराने लगती है। उसे सब कुछ ‘सीय राम मय’ दिखाई देने लगता है। भावनाओं की तन्मयता, जो हृदय को धोकर साफ कर दे, वही तो प्रेम है। ऐसे प्रेम के साधक के लिये न जप आवश्यक है, न तप। व्रत, नियम तो उसके लिये हैं, जिसके हृदय में राग-द्वेष विद्यमान हों। प्रेम, जीवन की सम्पूर्ण कलुषताओं को धो देता है, दुर्वासनाओं पर नियन्त्रण करके चित्त को निर्मल बना देता है। इसलिये प्रेम सर्वोत्तम योग है, वह साधारण मनुष्य को भी महान बना देता है।

जहाँ प्रेम की चर्चा हो, पर यह गुण न हो, वहाँ प्रेम नहीं वासना, योग नहीं भ्रम समझना चाहिए। ऐसे प्रेम के भुलावे में न आयें, जो प्रेम अपने अन्तःकरण के दोष−दुर्गुणों को उसी प्रकार गुणों में बदल दे, जिस प्रकार गंगा के जल में विलीन हुआ यमुना जल; वही प्रेम सच्चा, सार्थक और अभ्यास के योग्य है। ऐसा प्रेम अमृत है। उसे पीकर मनुष्य अमर हो जाता है।


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