राजकुमारी सुकन्या को अपनी भूल का पता तब चला जब महर्षि च्यवन की आँख फूट गई। राजकुमारी ने अनजान में ही यह अपराध हो गया था, पर अपराध तो अपराध ही था। पिता ने बहुत समझाया कि ऐसे वृद्ध और अन्धे व्यक्ति से विवाह कर तू अपना जीवन क्यों बरबाद कर रही है। पर सुकन्या ने कहा-महाराज। जिस दिन अपनी विशिष्टता के दाब में समाज के शीर्षस्थ लोग दण्ड से बचने का प्रयत्न करने लगेंगे, उस दिन यह धरती नरक बन जायेगी। हमारा सम्बन्ध राज घराने से है तो क्या हुआ, न्याय ईश्वर की साक्षी में होता है, इसलिये उसमें न कोई छोटा है न कोई बड़ा।
सुकन्या ने दण्ड मानकर विवाह किया था, पीछे वह बन्धन कर्तव्य में परिवर्तित हो गया। उन्होंने अश्विनीकुमारों की मदद ली और न केवल अपने पति के जराजीर्ण शरीर को स्वस्थ एवं बलिष्ठ बना लिया वरन् च्यवन को वह विद्या भी सिखाई, जिससे वृद्ध शरीरों को फिर से नया किया जा सके।
हमारे पौराणिक ग्रन्थों में जहाँ दस-दस हजार वर्षों की अवस्थाओं के वर्णन आते हैं। वहाँ ऐसे दृष्टान्तों की भी कमी नहीं, जबकि कई लोगों ने अपनी वृद्धावस्था को कई बार युवावस्था में बदला। ययाति ने भी च्यवन की ही भाँति अपने शरीर को बदला था। यह विद्या हमारे औषधि ग्रन्थों और आयुर्वेद में है। महामना मदनमोहन मानवीय ने भी कुछ दिन कायाकल्प का अभ्यास किया था। कई कठिनाइयों से वह प्रयोग अधूरा ही रहा, पर उन्होंने अभ्यास के दिनों में अपने शरीर में कई असाधारण परिवर्तन अनुभव किये थे।
वैसे ऐसे पौराणिक आख्यानों को पहले भी बोगस किया जा रहा है। यह पंक्तियाँ पढ़ने तक हमारे पाठक भी अविश्वस्त हो चुके होंगे और यह सोच रहे होंगे कि ऐसा भी कहीं सम्भव है कि कोई वृद्ध अपना शरीर बदल कर युवक हो सकता है? यदि आप विश्वास न करें, न सही पर वैज्ञानिक यह मानने लगे हैं। वैज्ञानिकों का कथन है कि मनुष्य का शरीर जिन छोटे-छोटे परमाणुओं-कोशिकाओं (सेल्स) से बना है, वह टूटती रहती हैं और नये स्थान कोशों का निर्माण करती रहती हैं। जैसे सर्प की त्वचा के कोश कुछ दिन में अलग होकर झिल्ली (केंचुल) के रूप में अलग हो जाते हैं, मनुष्य की त्वचा के कोश भी 5 दिन में नये बदल जाते हैं। 80 दिन में सारे शरीर की प्रोटीन बिलकुल नई हो जाती है, पुरानी का पता नहीं चलता कि सड़-गलकर कहाँ चली गई।
डॉ. केनिथ रोसले ने अनेक सूक्ष्म प्रयोगों के बाद बताया कि मनुष्य के कोशों (सेल्स) को नितान्त स्वस्थ रखना सम्भव हो, उनमें किसी प्रकार की गड़बड़ी न आये तो गुर्दे 200 वर्ष, हृदय 300 वर्ष तक जीवित रखे जा सकते हैं। इसके बाद उन्हें बदला भी जा सकता है। हृदय प्रतिरोपण के कई प्रयोग तो बहुत ही अधिक सफल हुए हैं। इसके अतिरिक्त चमड़ी, फेफड़े और हड्डियों को तो क्रमशः 1000, 1500 और 4000 वर्षों तक भी जीवित रखा जा सकता है। इन्हें भी बदलने में वैज्ञानिकों को सफलता मिल गई है और यदि कोशों के सम्बन्ध में आगे और भी जानकारियाँ ऐसे ही मिलती गई तो वह दिन दूर नहीं जब वृद्ध च्यवन को युवक च्यवन में बदलने का रहस्य हाथ में आ जायेगा।
मुख्य कठिनाई ‘नाड़ी-कोशिकाओं’ की है। और सब कोश तो बदलते हैं पर वह कोश जो नाड़ियाँ बनाते हैं, अब तक कभी न बदलते हैं न पुराने से नये होते हैं। यह कोश बड़े विचित्र होते हैं, इनकी लम्बाई 3 फीट तक होती है, मुँह मोटा और पूँछ साँप की तरह क्रमशः पतली होती चली जाती है।
इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना, बज्रा, चित्रणी, ब्रह्मनाड़ी, अलम्बुसा, कुहू, गान्धारी जैसी सूक्ष्म नाड़ियों के साथ उपनिषद् व योग ग्रन्थों में 72 हजार नाड़ियों का विवरण मिलता है। आज का उपलब्ध शरीर रचना विज्ञान (एनाटॉमी) योगशालाओं में वर्णित रचनाओं से इतना मिलता-जुलता है कि ऋषियों की आधुनिकतम जानकारियों के लिये दाँतों तले उँगली दबानी पड़ जाती है। यह जानकारियाँ इस बात की प्रमाण हैं कि पुराणों में प्रतिपादित यह विषय और दृष्टान्त केवल मनोरंजन के लिये नहीं लिखे गये, वरन् वैसा निश्चित रूप से था भी। प्राणायाम और एक ही प्रकार के भोजन के दीर्घकालीन अभ्यास (कल्प) चिकित्सा से शरीरस्थ कोशों को आमूलचूल शुद्ध करने का लाभ तो अभी भी हमारे यहाँ हजारों लोग लेते रहते हैं। यदि अध्यात्म के इस शरीर-रचना विज्ञान से विज्ञान की उपलब्धियाँ से खाँचा बैठाया जा सके, तो इस दिशा में तेजी से प्रगति की जा सकती है।
शरीर के कोशों के पुराने से नये बनने और प्रत्येक कोश की अलग-अलग जीवन-अवधि की जाँच का श्रेय स्व. डॉ. एलेक्सिस कैरल को है। आपने रॉकफेलर इन्स्टीट्यूट में इस पर अनेक प्रयोग किये और सन् 1912 में उक्त निष्कर्षों का विवरण देते हुए बताया कि रोग परमात्मा की दी हुई वस्तु नहीं है। यह तो शारीरिक तत्वों की अस्त-व्यस्तता का परिणाम है। अभक्ष्य पदार्थों के भक्षण, धूम्रपान, सुरापान आदि के द्वारा, अधिक भोजन, जल कम पीना, बासी और गरिष्ठ भोजन लेने से ही इस तरह की गड़बड़ होती और रोग के कीटाणुओं को प्रवेश मिलता है।
न्यूयार्क यूनीवर्सिटी के डॉ. मिलन कोपेक सूक्ष्मदर्शियों की मदद से यह जानने के प्रयत्न में हैं कि कोश की मूलभूत रचना के तत्वों और क्रम का पता लगाया जाये। जिस दिन वह पता चल गया तो कोशों का शुद्धीकरण और रोगों से बचना तथा कोषों का आमूल-चूल परिवर्तन कर दीर्घायुष्य प्राप्त करना बहुत आसान हो जायेगा। अल्ट्रावायलेट किरणों आदि के प्रयोग के शिकागो विश्वविद्यालय के डॉ. रेमण्ड जर्किल तथा डॉ. राबर्ट उरेज ने उस सिद्धान्त की भी पुष्टि कर दी है कि प्रकाश-शक्तियों के अवतरण द्वारा भी शरीर को नितान्त शुद्ध और रोगमुक्त बनाया जा सकता है।
भारतीय योग शास्त्रों में शरीरस्थ नाड़ियों में सूक्ष्म प्राण-विद्युत या प्रकाश अणुओं की उपस्थिति के उल्लेख मिलते हैं। साधना-उपनिषदों में इन प्रकाश के नियन्त्रण और लाभ लेने की उन योग-साधनाओं का भी वर्णन है जिनसे इन प्रकाश-अणुओं द्वारा स्थूल अणुओं को न केवल जराजीर्ण होने से रोका जा सके वरन् उनको आमूल-चूल परिवर्तित भी किया जा सके।
योग साधनाओं के द्वारा शारीरिक लाभ तो अभी भी सैकड़ों लोग ले रहे हैं पर इस दिशा में प्रगति और अगली शोधें चलती रहें तो विज्ञान एक दिन वृद्ध शरीर को पुनः छोटे से बच्चे के शरीर में बदलने की सम्भावना को सत्य कर दिखा सकता है पर इसके लिये भारतीय योग साधना विज्ञान का आश्रय और सहयोग लेना नितान्त आवश्यक होगा।