धर्म का स्वरूप और आधार

June 1970

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पश्चिम में यह धारणा जन-जन में व्याप्त हो गई है कि हम जितनी अधिक उन्नति कर सकते हैं, करें। अपने पराक्रम और पौरुष को व्यक्त होने का अवसर मिले, यह कोई बुरी बात नहीं। मनुष्य स्वभाव से ही क्रियाशील है, निष्क्रिय और आलस्य में पड़े रहकर वह जिन्दा तक नहीं रह सकता। शरीर को विश्राम की सीमा से  अधिक विश्राम मिले, तो हम देखते है कि वह नई स्फूर्ति अर्जित करने की अपेक्षा शक्ति खोने लगता है। गति ही जीवन है और निष्क्रियता ही मृत्यु है, इसलिये हमें अपने जीवन को अमर रखने के लिये निरन्तर उद्योगशील तो रहना ही चाहिए।

इच्छाएँ अपने आप में बुरी नहीं, उनका असीम होना बुरा है। इच्छा और प्रगति की दिशा पर नियन्त्रण भी रखना आवश्यक है, अन्यथा पौरुष वीभत्स हो सकता है। पाश्चात्य देशों में यही हुआ, वहाँ भौतिकता बढ़ी और बढ़ती ही गई। उसी अनुपात से आदमी की लालसाएँ इतनी बढ़ीं कि वास्तविक मानवीय समस्याओं पर विचार के लिये कोई समय ही नहीं रहा। मनुष्य की दशा उस बालक-की-सी हो गई है, जो सर्कस देखकर खाना, पीना और घर लौटना भी भूल जाता है। विज्ञान की अद्भुत प्रगति को देखकर मनुष्य कुछ इस तरह खो गया है कि उसकी यथार्थता फीकी पड़ गई है।

यदि हमारी प्रगति में धर्म का स्पर्श बना रहता, तो हम उसी तरह भटकते नहीं, जैसे कोई अच्छे लड़के सर्कस देखते हैं, तब भी अपने माता-पिता की उँगली पकड़े रहते हैं। जीवन-रक्षा के लिये वह बालक अपने माता-पिता के संरक्षण को प्रमुख मानते हैं, सर्कस को गौण। यद्यपि कुछ देर को वह सर्कस में इतना निमग्न हो जाता है कि उसे अपने पिता की उँगली का भी ध्यान नहीं रहता। लेकिन सच पूछा जाये, तो वह इस तल्लीनता के बाद भी इस बात में आश्वस्त रहता है कि पिता की उँगली मेरे हाथ में है, पिता की गोद मेरा आश्रय ही है। इसमें वह सुरक्षित भी रहता है और सर्कस का आनन्द भी उसे मिल जाता है। भौतिक प्रगति बुरी नहीं, किन्तु उसका उपयोग धर्म की आधारशिलायें नष्ट करने में न हो, जैसा कि पश्चिम में हुआ। विज्ञान का उपयोग धर्म को मजबूत बनाने में हुआ होता, तो मनुष्य अपने आप को ज्यादा सुरक्षित और निर्भय अनुभव करता।

धर्म गुणों के विकास द्वारा आत्मा या परमात्मा को प्राप्त करने का विज्ञान है और उससे हम सब तरफ से जुड़े हुए हैं। गुणों की आवश्यकता तो हमें पल-पल पर, पग-पग पर होती है। कई बार तो ओछे और अपराधी व्यक्ति गुणों का नाटक करके भी लोगों से अपना स्वार्थ सिद्ध कर लेते हैं। सिनेमा हम केवल इसलिये पसन्द करते हैं कि उसमें प्रेम, प्यार, साहस, सद्भावनाओं के दृश्यों को रंग देकर उभारा जाता है। यह गुण हमारी आत्मिक आवश्यकतायें हैं, इसलिये सिनेमा बार-बार देखने जाते हैं; जबकि यह अच्छी तरह जानते हैं कि परदे के पीछे काम करने वाले कलाकारों का आचरण शुद्ध नहीं। वे केवल पैसे के लिये यह सब कुछ करते हैं।

कुछ दिन पूर्व कानपुर में एक भिखारी एक अपंग लड़के से भीख मंगवाता पकड़ा गया। भिखारी को पता था कि अपाहिज को देखकर लोगों को दया आ जाती है, इसलिये उसने बच्चे को जबरन अपाहिज करके उससे भीख माँगने का काम लिया। इसी अपराध में वह पकड़ा भी गया, पर तब तक तो वह दया के प्रदर्शन का बहुत सा लाभ ले चुका था। इससे स्पष्ट है कि गुण या धर्म जीवन की नैतिक आवश्यकता है। उसके विपरीत हम जो कुछ भी करते है, अनैतिक ही कहा जायेगा। पाश्चात्य देशों में बुद्धि का विकास हुआ, गुणों का नहीं। इसीलिये आज वहाँ भयंकर अशांति है।

मानव को मानवीय गुणों से सम्पन्न करने के लिये भी कोई आधार होना आवश्यक है। हमारी आदर्श विचारणाएँ और नैतिक परम्पराएँ भी निराधार नहीं टिक सकतीं। सुख और भौतिक प्रगति की अधिकतम मात्रा स्वल्प से स्वल्प समय में कोई अर्जित करना चाहे, तो सिवाय इसके कि वह आदर्श विचार और नैतिकता का अतिक्रमण करे और दूसरा उपाय भी क्या हो सकता है। ईमानदारी से मनुष्य गुजारे योग्य कमा सकता है, धन की तृष्णा तो उसे मिलावट, कम तोल और अधिक दाम लेने की ही प्रेरणा दे सकती है, देती है।

आदर्श और नैतिक जीवन का आधार है– आध्यात्म। जब तक हम अपने जीवन के गहरे तत्त्व दर्शन में प्रवेश नहीं करते, तब तक जीवन के यथार्थ उद्देश्य सामने नहीं आते और इसीलिये हमारी नैतिक आस्थायें कमजोर पड़ जाती है। यदि केवल भौतिक प्रगति को ही महत्त्व न दिया होता और तत्त्व दर्शन के लिये भी मनुष्य अपने साधन और अवकाश निकालता रहा होता, तो आज की अशान्ति का प्रादुर्भाव भी न हुआ होता।

जब हम प्राचीन महापुरुषों के जीवनवृत्त पढ़ते हैं, तो यह देखते हैं कि उन्हें उनके साधना-गुरुओं द्वारा सताया ही गया है। आरुणि ब्रह्मविद्या सीखने धौम्यपाद के आश्रम में गये थे, तब उन्हें गाय रखने का कष्टकर कार्य दिया गया। दिलीप राजा थे, चाहते तो वह महर्षि वशिष्ठ की गाय चराने के लिये कई भृत्य रख सकते थे, पर वह समझते थे कि आत्मिक आवश्यकताएँ अपना सबसे बड़ा स्वार्थ हैं और उसकी पूर्ति सांसारिक ढर्रे से उल्टा चलकर ही हो सकती है; इसीलिये उन्होंने पद-प्रतिष्ठा का मोह छोड़कर महारानी सुलक्षणा के साथ वशिष्ठ की गाय चराना स्वीकार किया। इससे उन्हें जीवन के वह आध्यात्मिक और भावनात्मक सूत्र पकड़ में आएँ जो मनुष्य को जन्म-जन्मान्तरों से बाँधे हुए हैं। दिलीप को अपनी इस तपश्चर्या से असन्तोष नहीं हुआ। इससे प्रकट होता है कि आत्मिक आवश्यकताओं की पूर्ति कष्टकर परिस्थितियों में हो, तो भी वह बुरी नहीं।

धर्म या आध्यात्म कोई बाहर से थोपी गई वस्तु नहीं है। यह तो मनुष्य जीवन की आन्तरिक प्रक्रिया है। किसी परम सत्ता की इच्छा से यह संसार बना है। उसमें कोई शाश्वत सिद्धान्त गणितीय आधार (मैथेमेटिकल वे) में काम करता है, उसे जानने से ही हम यथार्थ स्थिति की अनुभूति कर सकते हैं। ब्रह्माण्ड में मनुष्य की स्थिति का अध्ययन करना ही पड़ेगा। उसके लिये जैविक विकास (बायोलॉजिकल प्रोग्रेस) के आधार को ढूँढना ही पड़ेगा, तभी तो हम तर्कशील दर्शन (लॉजीकल फिलॉसफी) को जन्म दे सकते हैं और उसके आधार पर अपने जीवन की उड़ान को नियन्त्रित कर सकते हैं।

(1) संसार का एक प्रबन्धकर्ता परमात्मा है। (2) आत्मा, ईश्वर का अंश और अविनाशी तत्त्व है। (3) अच्छे-बुरे कर्मों के आधार पर मरणोत्तर जीवन निश्चित होता है। (4) सुख-दुःख का आधार भाग्य नहीं कर्म है। (5) प्राणिमात्र एक ही परमात्मा की समान प्रिय सन्तान है और हमें इसी आधार पर ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का जीवन जीना चाहिए।– यह परिकल्पना (हाइपोथेसिस) स्वयं सिद्ध प्रमाणों पर आधारित हैं। वैज्ञानिक आधार पर भी ये उपयोगी है। सामाजिक शान्ति और व्यवस्था के लिये इस विश्वास से बढ़कर और कोई सुदृढ़ आधार नहीं। इनसे अनेकों क्लिष्ट समस्याओं के हल और गुणों के विकास में बड़ा योगदान मिलता है।

यह विश्वास वस्तुतः वैज्ञानिक सत्य है, पर हमारे मस्तिष्क की और भावनाओं की चौड़ाई आकाश की तरह विराट नहीं होती। इसी से पदार्थ की बात समझ में नहीं आती, पर यह रेखागणित (ज्योमेट्री) की तरह स्वयंसिद्ध प्रमाण है। बिन्दु की परिभाषा के अनुसार कोई बिन्दु है ही नहीं, पर विश्वास के आधार पर कितनी गणितीय समस्यायें हल कर लेते हैं और सचमुच ही बिन्दु के लिये कोई न कोई स्थान निकल आता है। जब सारा संसार योजनाबद्ध तरीके से गणित के सिद्धान्तों पर काम कर रहा है तो निश्चय ही एक अतिमस्तिष्क (सुपर मेन्टल पावर) प्रकृति पर नियन्त्रण किये होना ही चाहिए। जीवन के बिना सृष्टि का अस्तित्व ही सम्भव नहीं है, तो उसकी एक केन्द्रीय-सत्ता, जहाँ से वह प्रादुर्भूत होता है, होना ही चाहिए। बिना कारण के कोई क्रिया नहीं होती। बिना आधार जीवन नहीं हो सकता।

आत्मा और ईश्वर के तत्त्व दर्शन के अतिरिक्त धर्म के और कोई भी सिद्धान्त विवादास्पद नहीं है। इसलिये उनके आधार पर भी विश्व शांति का उद्देश्य तो हल किया ही जा सकता है। उसके लिये व्यक्ति का परमार्थवादी होना आवश्यक है।

आध्यात्मिक प्रयत्न स्वतंत्र रूप से हमारे अपने कर्म पर निर्भर हैं। यदि हमारा चरित्र, मनोबल और आत्मभाव अत्यन्त शुद्ध और सुदृढ़ हो जाता है, तो यही उपलब्धि हमें ऊँचे उठा देती है। यदि आदर्श और नैतिकता को हम अपने आप में विकसित कर सकें, अपने अन्तःकरण को पवित्र बना सकें, तो धर्मतत्व और उसके सभी दार्शनिक आधार स्वयं सिद्ध प्रमाणों की तरह अपने ही भीतर मिल सकते हैं।

प्रारम्भ में, सम्भव है, गुणों का अभ्यास करते समय हम अपने आपको कुछ पीछे पायें और लोगों की तुलना में भौतिक दृष्टि से कुछ घाटा अनुभव करें; किन्तु यदि सर्वोच्च सत्य के प्रति हमारी निष्ठा और समाज के लिये श्रद्धा कमजोर न पड़े, तो यही घाटा एक दिन सौ गुने लाभ में परिणत होता देखा जा सकता है। राम, कृष्ण, गौतम, गांधी, सुकरात, अरस्तु, टॉलस्टाय, महावीर, रामकृष्ण, परमहंस, रमण, दयानन्द, स्वामी विवेकानन्द, रामतीर्थ, प्रभृति-सन्त-महात्माओं के जीवनवृत्त इस बात के प्रत्यक्ष उदाहरण है। भौतिक दृष्टि से उनके पास कुछ था नहीं, पर उनकी बड़ी से बड़ी आवश्यकतायें समाज ने पूरी कीं। उन्होंने जितना त्याग किया, समाज ने उनसे भी बढ़कर प्यार उन पर उड़ेल दिया।

 फ्रांस के प्रसिद्ध नोबुल पुरस्कार विजेता वैज्ञानिक डॉ. रिकाम्प्टे ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘मनुष्य का लक्ष्य’ (ह्यूमन डेस्टिनी) में लिखा है-”आध्यात्मिकता सदैव लोक-समूह में ही सफल रही है। यह मूर्खों द्वारा नहीं, और न ही व्यक्तिगत एकाकी में फलती है। आध्यात्मिकता के विकास के लिये, जो आधार बने हैं, वह यह हैं कि व्यक्ति को भौतिकता, नैतिकता और भावुकता की परीक्षा देने के लिये सदैव तैयार रहना चाहिए। आराम, ऐश्वर्य एवं विलास के जीवन में आध्यात्मिकता का विकास नहीं हो सकता। भावनाओं पर कठोर नियन्त्रण और कठिनाइयों से लड़कर ही अध्यात्मवादी बना जा सकता है।


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