मोह-भंग (kavita)

June 1970

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

मेघनाथ आकर पहले ही जब टकराया,

जाना रीछ-वानरों ने, जो ज्ञान नहीं था।

सेना में भरती हो जाना काम सरल था,

पर रावण से भिड़ना कुछ आसान नहीं था॥

महाबली थे असुर, छनी थे, मायावी थे,

उस पर भी संगठित शक्ति के आराधक थे।

यम, कुबेर, दिकपाल जहाँ थे भरते पानी,

कुम्भकर्ण, अहिरावण-में जिनमें साधक थे॥

उसकी प्रबल चोट वानरों ने जब खाई,

त्राहि-त्राहि मच गई, मोह उन सबमें छाया।

कोई करता याद देश की, मातु-पिता की,

कितनों में ही प्रेम भार्या का जग आया॥

अंगद को चिन्ता हो आई राज्य भोग की,

जामवंत भयभीत पड़े थे मरण-भाव से।

नील और नल जिनने था समुद्र को बाँधा,

उसका भी मन भरमाया था चाम-भाव से॥

हनुमान, सुग्रीव सहित सब मोह रहे थे,

देख लक्ष्मण का विजयी मानस चकराया।

और राम के दुःख का पारावार नहीं था,

उनके कमल-लोचनों में था जल भर आया॥

रीछ और वानर को जो अब तक यह कहते थे-

राम! तुम्हारे लिये जिन्दगी हम सब हारे।

देख युद्ध की घड़ी असुरता में सब-के-सब,

मोह रहे थे प्रबल ऐषणाओं से सारे॥

रामचन्द्र ने तब प्रकाश है आत्म-ज्ञान का,

“जीव अमर है” की उन सबमें ज्योति जगाई।

और लक्ष्मण न तब शक्ति चला हाथों से,

असुरों की माया को काटा भीति भगाई॥

धर्म-मंच ने आज युद्ध नूतन ठाना है,

उसका रीछ-वानरों जैसा ही बाना है।

है कौतुक की बात आज भी ठीक उसी विधि

चढ़ा हुआ वह मोह सभी में मनमाना है॥

नहीं रही है जान असुरता से लड़ जायें,

राम दे रहे ज्ञान पिलाते लक्ष्मण बूटी।

उस दिन तो था भंग हो गया मोह सभी का

किन्तु आज की यह समाधि है अभी न टूटी॥

-बलराम सिंह परिहार

*समाप्त*


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles