मृत्यु घाटी में परिवर्तित हो रहा संसार

June 1970

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अमरीका के कैलीफोर्निया राज्य में एक ऐसा भी स्थान है जो एक ओर तो अत्यन्त गर्म और बालू से भरा है दूसरी ओर समुद्र तल से इतना नीचा होने के कारण इस क्षेत्र का सारा धुआँ यहाँ वर्ष भर छाया रहता है।

धुयें में कार्बन डाइऑक्साइड जैसी गैसें होती हैं। हाइड्रोजन सबसे हलकी गैस है इसलिये वह वायुमण्डल के सबसे ऊपरी सतह पर अच्छादित रहती है उसी प्रकार कार्बन डाइऑक्साइड भारी होने के कारण सबसे निचला स्थान ढूंढ़ती है यह स्थान संसार भर में सबसे नीचा होने के कारण यहाँ से कार्बन डाई ऑक्साइड कभी कम नहीं होता। शीत ऋतु जैसा कोहरा वर्ष भर भरा रहता है। कोई भी पक्षी, कोई भी मनुष्य वाहन या जीव-जन्तु वहाँ जाकर आज तक वापस नहीं लौटा। उसकी विषैली धुन्ध से लोग घुट-घुट कर तड़प-तड़प कर मर जाते हैं। यह घाटी करोड़ों मन हड्डियों और नर-कंकालों से पटी हुई है इसीलिये उसे “मृत्यु घाटी” कहते हैं। यहाँ जानकर आज तक कोई सही सलामत नहीं लौटा।

समुद्र तल से इतना निचला होने के कारण यहाँ कार्बन डाइऑक्साइड जमा है उसका अर्थ यह नहीं कि यह विषैली गैस केवल वहीं है। आज कल धरती में धुआँ इतना अधिक बढ़ रहा है कि उसके विषैली प्रभाव से हिमालय जैसे कुछ ही ऊँचे स्थान बच रहे होंगे शेष संसार में तो यह धुआँ मौत-घाटी की तरह ही बढ़ता जा रहा है। उसके कारण हजारों तरह की बीमारियाँ मानसिक रोग और मृत्यु दर बढ़ती जा रही है। विश्व की आबादी 6 अरब हो जाने की तो चिन्ता हुई। उसके लिये तो दुनिया भर के देश अपने यहाँ पृथक परिवार-नियोजन मन्त्रालय खोलकर इस समस्या के समाधान में रत हैं जबकि उससे भी भयंकर है धुयें की यह समस्या उस पर आज तक किसी का भी ध्यान नहीं जा रहा।

जेट विमानों से जो धुआँ निकलता है उसमें ईंधन (फ्यूल) के रूप में पेट्रोल जलता है और कार्बन मोनो ऑक्साइड तथा कार्बन डाइऑक्साइड बनाता है। इसमें कार्बन मोनो ऑक्साइड तो एक प्रकार का विष ही है जबकि कार्बन डाइऑक्साइड भी तो कम विषैली नहीं होती। यह जेट तो धुआँ छोड़ने वाले यन्त्रों का एक छोटा घटक मात्र है। अपने आप चलने वाले ऑटोमोबाइल, मोटरें, कारें, साइकिलें, डीजल इंजन, पम्प, रेलवे इंजन, फैक्ट्रियों के कम्बस्तन इंजन, फैक्ट्रियों की चिमनियाँ सब की सब कार्बन डाइऑक्साइड निकालती हैं। कार्बन डाइऑक्साइड भारी गैस है, हाइड्रोजन का परमाणु-भार एक है। तो उसका 44, उसे पौधे ही पचा सकते हैं, मनुष्य तो उससे मरता ही है सो अब जो स्थिति उत्पन्न हो रही है उससे सब ओर आज नहीं तो कल वही मृत्यु-घाटी के लक्षण उत्पन्न होने वाले हैं।

“ड्राइव मैगज़ीन” के फरवरी 67 के अंक में दिये आँकड़ों के अनुसार एक कार सात साल में इतना धुआँ उगल डालती है कि उसके कार्बन डाइऑक्साइड में ईसाइयों का प्रसिद्ध गिरजाघर सेंटपॉल का गुम्बद दो बार, मोनो ऑक्साइड से तीन कमरों वाले बँगले को नौ बार, नाइट्रोजन से एक डबल टैंकर बस दो बार भरी जा सकती है। इस गैस को छानकर यदि उसका सीसा (लेड) काडा (एक्स्ट्रेक्ट) कर लिया जाये तो वह एक गोताखोर के सीने को ढंकने के लिये पर्याप्त होगा।

यह नाप-तौल तो एक कार से उत्पन्न विषय वर्द्धक धुयें की है जबकि अकेले इंग्लैंड में डेढ़ करोड़ मोटर गाड़ियाँ हैं। 1980 तक इनकी संख्या साढ़े चार करोड़ तक हो जाने का अनुमान है। अमरीका के पास कारों की संख्या इंग्लैंड से बहुत अधिक है कहते हैं 12 सेकेण्ड में अमरीका में एक 1 बच्चा पैदा हो जाता है जबकि यहाँ कारों का उत्पादन इतना अधिक है कि एक कार इस पाँच सेकेंड बाद तैयार हो जाती है। अपने संगठन परिवार के एक सदस्य श्री आनन्द प्रकाश इन दिनों अमरीका के टैक्सास राज्य में ह्यस्टन नगर (यहीं नासा स्पेस रिसर्च सेन्टर है जहाँ से अन्तरिक्ष के लिये केप कैनेडी से अंतरिक्ष यान उड़ते हैं) के एक मस्तिष्क एवं तन्तु ज्ञान प्रयोगशाला में शोध-कार्य कर रहे हैं अमेरिका सम्बन्धी तथ्यों की उनसे सदैव जानकारी मिलती रहती है। 26/12/69 के पत्र में उन्होंने लिखा है यहाँ कारों की संख्या बहुत अधिक है और उनकी संख्या इस गति से बढ़ रही है कि प्रत्येक 20 कारों में एक नई कार अवश्य होगी। यातायात की इस वृद्धि पर चिन्ता करते हुए 26 जनवरी 69 के “संडे स्टैंडर्ड ने लिखा है कि पिछले वर्ष केवल अमरीका के न्यूयार्क शहर में गैर जहाजों के धुयें में 36000000 टन की वृद्धि हुई है।

27 जुलाई 1967 के एक प्रसारण बी.बी.सी. लन्दन में बताया कि लन्दन में यातायात की वृद्धि यहाँ तक हो गई है कि कई बार ट्रैफिक रुक जाने से 17-17 मील की सड़कें जाम हो जाती हैं। यहाँ के सिपाहियों को जो ट्रैफिक पर नियन्त्रण करते हैं अन्य वस्त्रों के साथ मुँह पर एक विशेष प्रकार का नकाब (मास्क) भी पहनना पड़ता है यदि वे ऐसा न करें तो उन सड़कों पर उड़ रहे मोटरों के धुयें 5 घण्टे खड़ा रहना कठिन हो जाये। इन क्षेत्रों में स्थायी निवास करने वालों के स्वास्थ्य, मनोदशा और स्नायविक दुर्बलता के बारे में तो कहा ही क्या जा सकता है? आज सारे इंग्लैण्ड में इतना अधिक धुआँ छा गया है कि वहाँ की प्रतिवर्ग भूमि पर प्रति वर्ष एक किलोग्राम राख जमा हो जाती है।

परीक्षणों से पता चला है कि मोटरों के धुयें का प्रभाव शराब से भी अधिक घातक होता है। इस दुष्प्रभाव को इंग्लैंड के स्वास्थ्य सम्बन्धी आँकड़े देखकर सहज ही समझा जा सकता है। 24 नवम्बर सन् 67 को लन्दन से प्रसारित मानसिक स्वास्थ्य अनुसन्धान निधि की वार्षिक रिपोर्ट में बताया गया है कि इंग्लैंड में मानसिक रोग से पीड़ित व्यक्तियों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। इस समय “मति विभ्रम” नामक मानसिक रोग से पीड़ित व्यक्तियों की संख्या 60 हजार के लगभग है। इनमें से अधिकाँश ड्राइवर और घने धुयें वाले क्षेत्र के ही लोग हैं।

इसी प्रकार 1906 में धुयें से फेफड़े के कैंसर के कुल 100 रोगी लन्दन में थे इसके 60 वर्ष बाद 1966 में उस अनुपात से 12000 हजार ही संख्या होनी चाहिये थी जबकि पाई गई 27 हजार। अब यह वृद्धि और भी अधिक है।

मोटरें, इंजिन मिल और फैक्ट्रियाँ अकेले इंग्लैण्ड और अमरीका में ही नहीं सारी दुनिया में है और बढ़ रही हैं। सन् 1900 की जाँच के अनुसार सारे संसार में पहले ही 260000000000 टन कार्बन गैस छा गई थी अब उसकी मात्रा बीस गुने से भी अधिक है। रेडियो विकिरण का दुष्प्रभाव उससे अतिरिक्त है। धुयें का यह उमड़ता हुआ बादल एक दिन ऐसा भी आ सकता है जब सारी पृथ्वी को ही मृत्यु-घाटी की तरह गर्म और ऐसा बना दे कि यहाँ किसी के भी रहने योग्य वातावरण न रह जाये। बहुत होगा तो पेड़-पौधे खड़े उस धुयें को पी रहे होंगे मनुष्य तो लुप्त जीवों की श्रेणी में पहुँच चुका होगा।

4 दिसम्बर 1952 का वह काला दिन जबकि लन्दन में दक्षिणी हवा बह निकली शीत और आर्द्रता बढ़ने के साथ ही सारे शहर की भट्टियाँ कल-कारखानों गैस चूल्हों का धुआँ वातावरण में घुटन पैदा करने लगा। धुआँ सघन होता गया और 6 दिसम्बर को उसका घनापन इतना बढ़ गया कि लोगों की आँखों से अपने आप आँसू निकलने लगे, दिखाई देना बन्द हो गया। हवाई जहाज और यातायात ठप्प पड़ गये। तापमान पानी के जमाव बिन्दु से नीचे उतर गया। पुलिस वालों को गैस मास्क लगाने पड़े। सूर्य धुँधली लालटेन सा दिखाई देने लगा। अस्पताल भरने लगे और साँस लेना इस तरह कठिन हो गया कि 10 दिसम्बर तक 4 हजार आदमी घुट-घुट कर मर गये। अन्य 8 हजार व्यक्ति भी दो महीनों के भीतर रोगग्रस्त होकर इस धुयें वाली सभ्यता को गाली देते हुये मौत के घाट उतर गये फिर भी जो बच गए उन्होंने इस यान्त्रिक सभ्यता को रोकने की हिम्मत नहीं की।


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