मरुतदेव क्रुद्ध होकर बोले– "ओस कणों ! तुम्हें हमारा प्रतिरोध करते भय नहीं लगा? नष्ट करके रख देंगे तुम्हें, नहीं तो रास्ता छोड़कर अलग हो जाओ।"
ओसकण हाथ जोड़कर बोले– "महापुरुष ! जब तक आप हैं, तब तक हम नष्ट कैसे हो सकते हैं? हमारा तो जन्म ही आपसे हुआ है। इतना कहने पर भी मरुत का क्रोध न गया।"
बात कुछ भी नहीं थी, अहंकार मात्र था, सो ऐसे शान्त कहाँ होता। मरुतदेव चले, वेग से आक्रमण किया। ओसकण झरकर भूमि में जा गिरे, पर वायुदेव की अन्तःशीलता को छूकर दूर्वा दलों में अन्य ओसकण झलकने लगे। वायु ने पीछे मुड़कर देखा, तो उसे अपनी पराजय पर बड़ी लज्जा आई। उमड़-घुमड़कर सब तरफ से प्रयत्न किया उसने, पर ओसकण कम न हुए।
आकाश ने यह देखकर कहा– "व्यर्थ क्यों खीझते हो, पवमान ! बलिदान की शक्ति ही कुछ ऐसी है, कि एक नष्ट होता है, तो पीछे एक हजार तैयार हो जाते हैं। ऐसा न होता तो संसार में नेकी, धर्म और भलाई जिन्दा कैसे रह पाते?"
मरुत ने हार मान ली और तब से ओसकणों को नीचा दिखाना उसने बन्द कर दिया।