हाइड्रोजन और ईश्वर का साम्य

June 1970

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1943 में जन्में स्विट्जरलैंड के वैज्ञानिक थियोफ्राट्स पैरासेल्मस एक दिन एक प्रयोग कर रहे थे। उन्होंने तेजाब में धातु का एक टुकड़ा डाला, तो एक गैस उठी। इस गैस की यह विशेषता थी कि आग के संपर्क में आते ही फफक कर जल उठती थी। पैरासेल्मस आध्यात्मिक व्यक्ति थे, वे पदार्थ की खोज में किसी प्राणवान सत्ता की खोज करना चाहते थे। इस प्रयोग का यद्यपि वे कोई अर्थ नहीं निकाल सके, उस गैस का नामकरण भी वे नहीं कर पाये, पर बाद में कैवंडिश ने उसे ‘सुलगने वाली हवा’ तथा फ्रांस के प्रसिद्ध-रसायन-विज्ञानी आनत्वान लैवेजियर ने उसका नाम जलोत्पादक (हाइड्रोजन) रख कर लोगों को बताया कि यह संसार की सबसे हल्की गैस है। इस प्रयोग के कारण पैरासेल्मस को ही रसायनशास्त्र का जन्मदाता मानते हैं। उधर इस तत्त्व के सम्मुख आते ही आध्यात्मवादी ईश्वरीय मान्यता को एक नई राह मिली।

ईश्वर के लिये वेद कहता है–

विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतोबाहुरुत विश्वतस्यात्। सं बाहुभ्यां धमति संपतत्रैर्द्यावा भूमि जनयन् देव एकः।

ऋग्वेद 10।81।3

वह एक ही अपनी आँख से सर्वत्र देखता है, वही सुनता, उसी के पाप-पुण्य रूप बाहु, सर्वत्र काम करते और जीवों को चेतना देते हैं। वह दिव्य गुणों वाला परमेश्वर ही पृथ्वी और द्यौलोक को उत्पन्न करता है।

एक वाक्य में परिभाषा करनी हो तो– "ईश्वर एक ऐसी आदिसत्ता है, जिसका कभी अन्त नहीं होता, वह एक ऐसा सर्वव्यापी तत्त्व है, जहाँ संसार की सभी प्रतिकूल परिस्थितियाँ एकाकार होती हैं।” अर्थात् वह गर्म और सर्द, मधुर और कड़वे, पाप और पुण्य, प्रकाश और अन्धकार, कोप और करुणा, आदि परस्पर विपरीत शक्तियों का सम्मिलन केन्द्र है। इड़ा और पिंगला नाड़ियों के योग से जिस प्रकार सुषुम्ना का आविर्भाव होता है, ‘पॉजिटिव चार्ज’ (धन धारा) और निगेटिव चार्ज (ऋण-धारा) के सम्मिलन हैं। जिस तरह विद्युत नाम की शक्ति का प्रादुर्भाव होता है, उसी प्रकार परमात्मा एक ऐसा तत्त्व है, जहाँ संसार की प्रत्येक विपरीत परिस्थितियाँ आकर मिल जाती हैं।

उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर जब हाइड्रोजन का अध्ययन करते हैं, तो एक विलक्षण साम्य दिखाई देता है। हाइड्रोजन सृष्टि का आदितत्व है, लेकिन अपनी सरल रचना के कारण वह कहीं भी अपने स्वतन्त्र अस्तित्व में उपलब्ध नहीं। इसमें गर्म और शीत दो धाराओं का विलक्षण संयोग भी है। हाइड्रोजन के एक अणु में केवल दो ही परमाणु होते हैं। उसके नाभिक के किनारे एक ही इलेक्ट्रान चक्कर काटता है, उसमें प्रोटान भी एक ही होता है। इस सरल रचना के कारण वह ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, मिट्टी, घी, तेल, वृक्ष, वनस्पति, जिस किसी के संपर्क में आता है, उसी से मिलकर अपने अस्तित्व को वैसे खो-सा देता है, जैसे कोई लोकसेवक अथवा महान आत्माऐ संसार की सेवा में अपने आप को इस तरह घुला देती हैं कि उनकी अपनी निजी इच्छाओं, स्वार्थों और महत्वकांक्षाओं का कोई अस्तित्व ही नहीं रह जाता।

हाइड्रोजन सर्वव्यापी तत्त्व है। पृथ्वी के कण-कण में तो वह विद्यमान है, ही मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, यूरेनस, नेपच्यून और गैलेक्सी का कोई भी ऐसा तारा नहीं है, जिसमें न्यूनाधिक मात्रा में हाइड्रोजन उपलब्ध न हो। ताप का स्वभाव स्फुरण का होता है; अर्थात् आग के संपर्क में आने वाला कोई भी तत्त्व तेजी से फैलता है, इसलिये यह तो है कि जो ग्रह-नक्षत्र अधिक गर्म हैं, उनका हाइड्रोजन स्फुरति होकर आकाश में फैल जाता है; जबकि कम गुरुत्वाकर्षण और कम ताप वाले लोकों में वह बहुत-से अपने स्वतन्त्र अस्तित्व में भी बना रहता है। सूर्य में भी हाइड्रोजन ही जलता है और हीलियम के रूप में सारे संसार को प्रकाश देता है।

ईश्वर जड़ भी है, चेतन भी। हाइड्रोजन जड़ वस्तुओं में भी पाया जाता है, और मनुष्य जैसे प्राणधारियों के शरीर में भी। हमारे शरीर का वजन यदि सौ पौण्ड हो, तो इसका अर्थ यह हुआ कि हमारे शरीर में 60 पौण्ड पानी होगा। पानी कोई स्वतन्त्र तत्त्व नहीं-- 2 भाग हाइड्रोजन और 1 भाग ऑक्सीजन का संमिश्रण ही पानी है। तब यदि 60 पौण्ड शरीर में पानी है, तो इसका यह अर्थ हुआ कि 100 पौण्ड वाले शरीर में 40 पौण्ड हाइड्रोजन अनिवार्य रूप से पाया जायेगा। यह स्थिति सृष्टि के प्रत्येक प्राणी के लिये है। हाइड्रोजन इस तरह एक सर्वव्यापी तत्त्व है।

एक व्यक्ति एक ही स्थान पर हिंसक भी हो और अहिंसक भी; यह कुछ अटपटा-सा लगता है; पर ईश्वर और हाइड्रोजन दोनों में ही बात स्पष्ट प्रकट है। किसी भी तत्त्व से अतीत होने पर यह सम्भव है; उदाहरण के लिये किसी व्यक्ति को दो ऐसे व्यक्तियों के पालन-पोषण का भार सौंपा जाये, जिनमें एक अच्छा और एक बुरा हो, तो सन्तुलन बनाये रखने के लिए और न्याय-व्यवस्था स्थिर रखने के लिये उसे आवश्यक होगा कि वह नेक पुत्र को प्रशंसा, प्यार और प्रोत्साहन दे तथा बुरे व्यक्ति को दण्ड, प्रताड़ना और धिक्कार भी दे। भगवान इसी नियम से सभी के कर्मों का लेखा-जोखा रखते और तदनुसार फल देते हैं। हाइड्रोजन में भी दोनों प्रकार के तत्त्वों से मेल-जोल की पद्धति ऐसी ही है।

उसे लेकर जलाया जाय, तो आग के हलके सामीप्य से भी वह धधककर जल उठेगा। संसार की कोई भी वस्तु जलती है, तो राख बनती है, पर यह रही न विचित्र बात कि हाइड्रोजन जलता है, तो पानी बनता है। ईश्वरीय न्याय में कठोरता या हिंसा तो है, पर वह है उद्देश्यपूर्ण ही। सृष्टि को खराब होने से बचाने के लिये उन्हें हिंसा का भी आश्रय लेना पड़ता है; पर अन्ततः वे जल की तरह शीतल हैं। अब यह प्रत्येक मनुष्य की अपनी इच्छा है कि वह शीतलता प्राप्त करे या बुरे कर्म करे और ईश्वरीय कोप का भोजन बने। हाइड्रोजन में आग भी है, पानी भी; दया भी है, निर्दयता भी; पर यह सब लोक-नियन्त्रण के लिये है। यदि उन्होंने एक ही पक्ष पकड़ा होता, तो संसार तो होता, पर उसमें कोई हलचल नहीं होती।

ऐसा कहा भी जाता है कि जल केवल पृथ्वी पर है; इसलिये प्राणधारी केवल पृथ्वी पर ही हैं; किन्तु हाइड्रोजन का प्रत्येक तत्त्व के साथ संयुक्त होकर सृष्टि की रचना में भाग लेना यह बताता है कि यदि वह पृथ्वी में दृश्य रूप से ठोस रूप से सृष्टि करता है, तो लोकोत्तर प्राणियों के शरीर स्थूल न होकर तरल और गैसीय स्थिति में भी हो सकते हैं। हाइड्रोजन में यह गुण है कि वह गैस होते हुए भी तरल और ठोस दोनों ही स्थितियों में प्राप्त किया जा सकता है।

इन गुणों के साथ हाइड्रोजन की ईश्वर के इन गुणों से तुलना करें, तो हमें यही मानना पड़ेगा कि हाइड्रोजन नहीं, तो ऐसा कोई तत्त्व ही होगा, जो सम्पूर्ण सृष्टि में अच्छादित होकर निर्माण और नाश की प्रक्रिया को सम्पन्न कर रहा होगा। यह गुण अथर्व वेद 2।2।2 में इस प्रकार वर्णित है-

दिविस्पृष्टौ यजतः सूर्यत्वगवयाता हरसो दैव्यस्य।

मृडाद गन्धर्वो भुवनस्य यस्पतिरेक एव नमस्यः सुशोवाः ॥

अर्थात् सूर्य और अग्न्यादि देवताओं को अपने अन्दर धारण किये, तुम्हीं सब का पालन करते हो और सबको सुख देते हो।

हाइड्रोजन सचमुच ऐसा ही तत्त्व है, जो जल बनाकर जीवन की रक्षा भी करता है, पर उसके प्रत्येक परमाणु में सूर्य जैसी ज्वलनशील अग्नेय शक्ति का आधार भी है। हाइड्रोजन बम में इसी शक्ति का विस्फोट किया जाता है, तो वह शक्ति लाखों व्यक्तियों को भून डालने में समर्थ होती है। लोकों की बुरे तत्त्वों से सुरक्षा के लिये इस तरह की प्रचण्ड शक्ति नियामक सत्ता के हाथों होनी आवश्यक थी, वह हाइड्रोजन तत्त्व में भी सुरक्षित है।

यह समानतायें सम्भव हैं कि किसी दिन एक ऐसे तत्त्व को भी सामने ला दे, जो हाइड्रोजन से बढ़कर भी समर्थ और ईश्वरीय क्षमताओं की तरह हो। यदि ईश्वर व्यक्ति या शरीर न होकर सचमुच कोई सर्वव्यापी तत्त्व है, तो इस कथन को कोई भी अप्रासंगिक न कहेगा।


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