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June 1970

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यस्मिन् जीवति जीवन्ति बहवः सतु जीवति।

ककोऽपि किन्न कुरुते चंच्वास्व दरपूरणम्॥

जिसके जीने के कारण अन्य बहुत से प्राणी जीवन पाते हैं वही मनुष्य जीवित माना जाता है। अन्यथा कौवा भी अपनी चोंच से ही अपना पेट भर लेता है। जो अपने लिये जीता है वह तो निष्फल ही है।

साहस के देवता की पूजा का अन्तिम एवं उत्कृष्ट चरण है अपने संकीर्ण स्वार्थों की परिधि से बाहर निकलकर परमार्थ के पुण्य प्रयोजनों में अपनी विचारणा एवं उपलब्धियों को नियोजित कर सकना, अपनी तुच्छता एवं संकीर्णता को रौंदता हुआ विश्व मानव की सेवा साधना की ओर जो जितने कदम बढ़ा सका, समझना चाहिए कि उसने उतने ही बड़े शौर्य का परिचय दे दिया। शारीरिक और मानसिक वीरतायें कई लोग बड़ी आसानी से दिखा सकते हैं पर आध्यात्मिक वीरता जिसका अर्थ है- स्वार्थपरता की संकीर्ण परिधि से बाहर निकल कर परमार्थ के लिए, लोक मंगल के लिए आवश्यक त्याग बलिदान का परिचय देना- निस्सन्देह बहुत ही कठिन है। उसे केवल उदात्त और वसुदेव कुटुम्बकम् की प्रवृत्ति वाले लोग ही कार्यान्वित कर सकते हैं। आदर्शवाद की लम्बी चौड़ी बातें बखानना किसी के लिए भी सरल है पर जो उसे अपने जीवन क्रम में उतार सके सच्चाई और हिम्मत का धनी उसी को कहा जायगा। ऐसे व्यक्ति कम ही होते हैं। पर जो होते हैं वे अपने समय की प्रकाशवान विभूति माने जाते हैं।

व्यक्ति वस्तुतः तुच्छ एवं महान है उसकी परीक्षा एक ही कसौटी पर होती है कि उसने अपनी प्रतिभा का लाभ अपने या अपने स्त्री बच्चों के लिए सुरक्षित रखा अथवा ईश्वर प्रदत्त इन विभूतियों को ईश्वरीय प्रयोजन के लिए लोक मंगल के लिए-लगाने का दुस्साहस कर डाला। दुस्साहस शब्द का प्रयोग इसलिए किया जा रहा है कि इन दिनों लोगों की मनोदृष्टि बेतरह स्वार्थपरता में जकड़ी हुई है। हर कोई केवल अपनी संकीर्ण स्वार्थपरता की पूर्ति में ही संलग्न है। धन, रूप, यश, भोग और पद से अधिक और किसी को कुछ नहीं चाहिए। पूजा पाठ की आड़ में भी इन भौतिक प्रयोजनों की पूर्ति ही छिपी रहती है। राम, रहीम का पल्ला भी इसीलिये पकड़ा जाता है कि साँसारिक सुख साधनों का वह लाभ मिल जाय जो अपने पुरुषार्थ से प्राप्त नहीं किया जा सका। ऐसे जमाने में जिसमें तृष्णा और वासना की पूर्ति से आगे की बात किसी को सुहाती ही नहीं इस प्रकार का साहस दिखा सकना जिसमें अपने लिए असुविधा और दूसरों के लिए सुविधा उत्पन्न होती हो निस्संदेह बहुत बड़ी हिम्मत का काम है। ऐसे साहस का उच्चारण नहीं प्रयोग जो कर सके उन्हें धारा का प्रवाह चीरते हुए उल्टी दिशा को चल सकने वाले राजा की तरह ही प्रबल पुरुषार्थी माना जायगा। प्राचीन काल में ऐसे नर-रत्न घर घर में पाये जाते थे जो तुच्छ स्वार्थों को कुचलकर आदर्शवादिता के लिए अपना जीवनक्रम सजायें। पर आज तो वह इतिहास पुराणों की चर्चा रह गई है। एक दूसरे को बहकाने के लिए इस तरह की लम्बी-चौड़ी कथा चर्चा परस्पर करते तो देखे-सुने जाते हैं पर जो व्यवहार में भी उन सिद्धान्तों को ला सके दीख नहीं पड़ते। स्वार्थपरता और संकीर्णता की कीचड़ में जहाँ कीड़े ही कीड़े कुलबुला रहे हैं वहाँ कमल पुष्पों का खिलना एक अचरज ही कहा जावेगा। ऐसा अचरज केवल साहसी और दुस्साहसी ही प्रस्तुत कर सकते हैं।

आज ऐसे ही शूरवीरों की जरूरत है जो पीड़ित मानवता का परित्राण करने के लिए अपनी सुख-सुविधाओं का उत्सर्ग कर सकें। पेट भरने के लिए रोटी और तन ढकने के लिए कपड़ा पाकर जो सन्तुष्ट हो सकें और जिन्हें संचय संग्रह की बड़प्पन और अमीरी की लालसा न हो। जो शरीर को नहीं आत्मा को अपना स्वरूप माने और आत्मा की शान्ति के लिए विश्व मानव की सेवा साधना में अपने को समर्पित कर दें। उन्हें सच्चे अर्थों में सन्त तपस्वी और साहसी कहा जायगा।

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हृदय परिवर्तन इस तरह-

गाँधी जी का सत्याग्रह आन्दोलन चल रहा था। ब्रिटिश सरकार भी गाँधी जी के नये-नये आन्दोलनों से तंग आ गई थी। एक अंग्रेज अधिकारी ने तो क्रोध में यहाँ तक कह दिया ‘यदि मुझे गाँधी अभी कहीं मिल जाय तो मैं उसे गोली से उड़ा दूँ।’

बात छिपने वाली न थी, गाँधी जी को भी सुनने को मिल गई। वह दूसरे दिन सुबह ही उस अंग्रेज के बँगले पर अकेले ही पहुँच गये। उस समय वह अँग्रेज सो रहा था, जगने पर गाँधीजी की भेंट हुई उन्होंने कहा- ‘मैं गाँधी हूँ। आपने मुझे मारने की प्रतिज्ञा की है। आपकी प्रतिज्ञा आसानी से पूर्ण हो सके अतः मैं यहाँ तक अकेला ही चला आया हूँ अब आपको अपना काम करने में सुविधा होगी।’ इतना सुनकर अँग्रेज पानी-पानी हो गया। मारने की कौन कहे उसके मुख से कोई अपशब्द तक न निकला। उसका हृदय उसी समय बदल गया था और बाद को तो वह गाँधी जी का परम भक्त बन गया।

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