निदान रोग का या मोह का

June 1970

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महाराज प्रद्युम्न का रोग बढ़ता ही गया। कोई भी औषधि लाभदायक न हुई। वैद्य निराश हो-होकर अपने घर लौट गये। सारे राज-प्रासाद में उदासी छा गई।

अब क्या हो? मंत्रिपरिषद् की बैठक में विचार-विमर्श किया गया। प्रधान सचिव ने महारानी को सुझाव देते हुए बताया-आचार्य पुरन्ध्र वेद वेदान्त के ही पंडित नहीं है, आयुर्वेद का भी उन्हें ज्ञान है, क्यों न उन्हें ही बुलाकर महाराज को दिखाया जाय?

यह सम्मति सबने पसन्द की। आचार्य पुरन्ध्र आये और उन्होंने रोगग्रस्त प्रद्युम्न का पूर्ण परीक्षण भी किया, पर उनके शरीर में जीवन के कोई लक्षण शेष रहे नहीं थे सो उन्होंने भी वही बात कही जो शेष वैद्यों ने कही थी। लेकिन राज-परिवार हठ करने लगा- भगवन्! आप तो सिद्ध महापुरुष हैं, आप सब कुछ कर सकते हैं। कैसे भी महाराज को बचाइये।

पुरन्ध्र ने किंचित हँसकर कहा- सिद्धि का लौकिक लाभ से कोई सम्बन्ध नहीं है यदि हो भी तो उससे आत्म कल्याण में बाधा ही पड़ती है। आप सब यह मोह छोड़िये, महाराज आज बच गये तो इनका जरा जर्जर शरीर कितने दिन चलेगा? मृत्यु भी तो परमात्मा का उपचार ही है। इधर यह सड़ा-गला शरीर छूटा, उधर बढ़िया नया शरीर तैयार- ऐसी मृत्यु पर प्रसन्न होना चाहिए या दुःखी? आचार्य ने सब तरह समझाया पर आसक्ति भी क्या बला है कि उस समय व्यक्ति तात्कालिक लाभ के लोभ में सनातन स्वार्थ को भी कुचलने को तैयार हो जाता है अन्यथा विद्यान यही है कि कर्मानुसार जैसा कुछ फल मिलता है-वह यदि दुःख है, रोग है, जरा और मृत्यु है तो उसे भी सुख की ही भाँति सहन किया जाय।

जब लोग न माने तो उन्होंने कहा- “हाँ, एक उपाय अभी है। प्रधानमन्त्री। आप प्रयत्न करें तो महाराज के प्राण अभी भी बच सकते हैं।”

“आज्ञा दें महात्मन्। हम महाराज के लिये प्रत्येक सेवा के लिये तैयार हैं”-सचिव ने उत्सुकतापूर्वक निवेदन किया।

महर्षि पुरन्ध्र ने सधे और सीमित शब्दों में कहा-महाराज को अभी मर जाने दो। थोड़ी दूरी पर ही राजोद्यान में आम का एक वृक्ष है। ये उसमें काष्ठ-कीट के रूप में जन्म ले लेंगे। आप उसे जाकर पकड़ लाना। उसको मार देने से महाराज फिर से जीवित हो उठेंगे।

सब लोग बहुत प्रसन्न हुए और आचार्य पुरन्ध्र की सिद्धि के गुण गाने लगे। इसी बीच सम्राट का प्राणान्त हो गया।

शव को ढककर महामन्त्री राजोद्यान पहुँचे। थोड़ी ही देर में आचार्य ने जैसा बताया था जैसा ही एक काष्ठ-कीड़ा मिल गया। उसे पकड़ने के लिये मन्त्री वृक्ष पर चढ़े, पर वह जिस डाल में था उस तक पहुँचते-पहुँचते वह दूसरी डाल में पहुँच गया।

शव को ढककर महामन्त्री राजोद्यान पहुँचे। थोड़ी ही देर में आचार्य ने जैसा बताया था जैसा ही एक काष्ठ-कीड़ा मिल गया। उसे पकड़ने के लिये मन्त्री वृक्ष पर चढ़े, पर वह जिस डाल में था उस तक पहुँचते-पहुँचते वह दूसरी डाल में पहुँच गया।

जिसका चित्त निर्मल है, वही मोक्ष पाता है।

-दशाश्रुत स्कन्ध 5/1

महामंत्री उस पर भी चढ़े पर वह कीड़ा अस्थिर ही नहीं, चालाक भी था। अपने प्राण बचाने के लिये वह दूसरे वृक्ष पर छलाँग लगा गया। महामन्त्री ने बहुतेरा पीछा किया पर शाम तक भी वह हाथ नहीं आया। महामन्त्री निराश और खाली हाथ लौट आये।

आचार्य हँसे और बोले- जाओ, अब इनका अन्तिम संस्कार करो- यह मोह ही तो नाशवान है। कीड़े को अपने शरीर से इतना मोह है कि वह राजा बनना पसन्द नहीं करता। वैसे ही हम सब भी एक अच्छे और नये जीवन के लिये भी डरते रहते हैं, यह मोह नहीं तो क्या है?

आचार्य के यह वचन सुनकर सबका मोह टूटा और सब लोग दाह-संस्कार के प्रबन्ध में जुट गये।


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