जीवन एक प्रिय-प्रवास

June 1970

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मैरीटेरियन सागर में गर्मी के प्रारम्भिक दिनों में मछलियों की बहुतायत देखने को मिलती है। मैकरल, पिलचर्ड और हैरिंग नाम की रंग-बिरंगी मछलियाँ इधर से उधर खेलती, कूदती, उछलती, फुदकती हुई बहुत अच्छी लगती हैं। इन्हें देखकर ऐसा लगता है, क्रीड़ा और मनोरंजनपूर्ण जीवन ही यथार्थ है। पैसा और प्रजनन की चिन्ता में पड़े घिसी-पिटी जिन्दगी जीना कोई बुद्धिमत्ता नहीं।

कुछ ही सप्ताह बाद वहाँ जायें तो फिर एक भी मछली दिखाई न देगी। चहल-पहल वाला वह क्षेत्र बिलकुल सूना-वीराना दिखाई देने लगता है। प्रलय के बाद पृथ्वी की-सी नीरवता और निर्जनता का साम्राज्य देखकर लगता है− जीवन पृथ्वी में बँधा हुआ नहीं, वह परमात्मा की एक कलात्मक सत्ता है, जो इन मछलियों की तरह आनन्द के लिये कभी पृथ्वी में आ जाती है, तो कभी अन्य लोकों में। उसे सांसारिक बन्धनों से बाँधना बेवकूफी है। मुक्ति के इच्छुक जीवन को तो प्रवासी होना चाहिए। आज यहाँ, कल वहाँ− उसके लिये तो सारा संसार ही अपना घर है।

स्काम्बर नाम की मछलियों का जीवन बनजारे की तरह होता है। शीत ऋतु में स्काम्बर उत्तरी समुद्र में बड़ी संख्या में देखने को मिलती हैं। ग्रीष्म ऋतु आई और जैसे ही किनारों का पानी गर्म होना प्रारम्भ हुआ, वे बड़े-बड़े समुदाय बनाकर उत्तरी अटलांटिक महासागर के दोनों तटों पर पहुँच जाती हैं। जीवशास्त्रियों का मत है कि मछलियाँ खाने और प्रजनन के लिये प्रवास (माइग्रेशन) करती हैं, पर स्काम्बर उन भारतीयों की तरह है, जो आत्मकल्याण के लिये ही अन्तःवास करते हैं। ब्रह्मचर्य और गृहस्थ दो आश्रम सामुदायिक संगठन में एक स्थान पर रहकर बिताने के बाद, वे सांसारिक प्रलोभनों को ठुकराकर विराट सीमा के सौंदर्य का रसपान करने निकल पड़ते हैं और वानप्रस्थ व संन्यासी जीवन जंगलों, पहाड़ों और सुदूर देशों में भ्रमण करते हुए व्यतीत करते हैं। एक स्थान पर रहकर सांसारिक गन्दगी बढ़ाने का पाप हम भारतीयों ने स्काम्बर के समान ही कभी नहीं बढ़ने दिया। इस तरह हम एक स्थान पर रहते हुए भी सारे संसार के बने रहे।

स्काम्बर भी ऐसा ही करती है। तरीके में थोड़ी ही भिन्नता है। मई, जून में वे उत्तरी समुद्र में ही अण्डे-बच्चे देती हैं और फिर वहाँ से अकेले नहीं, अपने सम्पूर्ण समुदाय को लेकर वहाँ से निकल पड़ती हैं। “अकेले नहीं, हम सब” का सिद्धान्त देखकर लगता है, ये मछलियाँ श्रेष्ठता में मनुष्य से आगे निकल गईं।

एक बार गुरु नानकदेव एक ऐसे गाँव में पहुँचे, जहाँ के लोग बड़े उद्दण्ड और गँवार थे। उन्होंने नानक की आवभगत अच्छी तरह नहीं की, फिर भी जब वे चलने लगे, तो ग्रामवासियों को आशीर्वाद दिया- "तुम लोग इसी तरह आबाद रहो।" नानक अगले दिन अगले गाँव में रुके। वहाँ के लोग बड़े नेक, शांतिप्रिय, अहिंसावादी और मिलनसार थे। उन्होंने नानक का यथेष्ट आदर-सत्कार किया। नानक विदा होने लगे, तो वे लोग उन्हें कुछ दूर पहुँचाने भी गये। प्रणामकर जब ग्रामवासी लौटने लगे, तो नानक ने आशीर्वाद दिया "तुम लोग उजड़ जाओ, तुम लोग उजड़ जाओ।"

नानक के एक शिष्य को यह बात नहीं भायी, उसने कहा− "महात्मन् ! बुरे लोगों को अच्छा आशीर्वाद और अच्छे लोगों को बुरी-बात, कुछ समझ में नहीं आई।" नानक हँसे और बोले− "बात यह है कि बुरे लोग संसार में फैलें, तो उससे बुराई उसी तरह फैलती है, जैसे अँग्रेजों की अँग्रेजियत सारी दुनिया में फैल गई, पर यदि अच्छे लोग एक ही स्थान पर जमे बैठे रहें− लोकसेवा के उद्देश्य से वे घर न छोड़ें, तो संसार में भलाई के विस्तार का अवसर ही कहाँ आयेगा?"

शिष्य की समझ में सारी बात स्पष्ट हो गई, पर हम अभी तक यह बात नहीं समझ पाये। आजीविका और अपने बच्चों के विकास की दृष्टि से भी हमें संसार में फैलना पड़े, तो एन्ग्रालिश मछली की तरह फैलना चाहिए। विश्व की विशदता का और अपने आप को अच्छी तरह अध्ययन करने का अवसर तो तभी मिलता है, जब हम औरों के पास जाकर अपनी तुलना करें। हिन्दू, मुसलमान आदि जातियाँ कोई ईश्वरीय विधान नहीं। जाति एक सापेक्ष वस्तु है, उसकी अच्छाई-बुराई का आधार गुणों की श्रेष्ठता ही हो सकती है, वंश नहीं। यह पता हमें और सारे संसार को तभी चल सकता है, जब हमारे संपर्क का दायरा विस्तीर्ण हो।

एन्ग्रालिश मछली बसन्त ऋतु में अपनी ही चैनल में पाई जाती है, किन्तु अण्डे देने के लिये वह ‘ज्वाइडर जा’ के बाहरी हिस्से में पहुँच जाती है। सारडिना मछली जुलाई से दिसम्बर तक कार्नवेल में रहती है, पर जाड़ा प्रारम्भ होते ही वह गरम स्थानों की ओर चल देती है। सामों मछली समुद्र में पाई जाती है, पर उसे गंगा और यमुना नदी के जल से अपार प्रेम है। अपने इस अपार प्रेम को प्रदर्शित करने और अच्छे वातावरण में अपने बच्चो के पालन-पोषण के लिये वह हजारों मील की यात्रा करके गंगा, यमुना पहुँचती है। अण्डे-बच्चे सेने के बाद भोजन के लिये वह फिर अपने मूल निवास को लौट आती है। इस स्वभाव के कारण ही सामों दीर्घजीवी और बड़ी और चतुर मछली होती है। हमारी तरह उनके बच्चे भी सामाजिक संकीर्णता में पले होते, तो इस अतिरिक्त विकास का अवसर उन्हें कहाँ मिल पाता।

हमारी कमजोरी यह है कि विपरीत परिस्थितियों और संघर्षों से टकराना हमें अच्छा नहीं लगता। शांतिपूर्ण दिखाई देने वाली यह स्थिति वस्तुतः एक भ्रम है और हमारे विकास का मुख्य अवरोध भी। यों तो संसार की अधिकांश सभी जातियों की मछलियाँ उल्टी दिशा में चलती हैं, पर योरोप में पाई जाने वाली एन्ग्युला बहाव की उल्टी दिशा में चलकर लम्बी यात्रा करने वाली उल्लेखनीय मछली है। ज्ञान और सत्य की शोध में हिमालय की चोटियों तक पहुँचने वाले भारतीय योगियों के समान यह एन्ग्युला मछली अटलांटिक महासागर पार करके गहरे पानी की खोज में बरमूडा के दक्षिण में जा पहुँचती है। बरमूडा अमेरिका के उत्तरी कैरोलाइना राज्य से 600 मील पूर्व में स्थित 350 छोटे-छोटे द्वीपों का एक समूह है।

वहाँ अण्डे-बच्चे देकर यह अपने घर लौट आती है। उनके प्रवासी बच्चों में अपने माता, पिता, पूर्वजों और संस्कृति के प्रति इतनी प्रगाढ़ निष्ठा होती है कि ढाई-तीन साल के होते ही वे वहाँ से चल पड़ते हैं और 5-6 महीने की यात्रा करते हुए अपने जाति भाइयों से जा मिलते हैं; और इस तरह बहुत दूर-दूर होकर भी उनका अपनी जाति से सांस्कृतिक सम्बन्ध उसी प्रकार बना रहता है, जिस तरह सैकड़ों मॉरीशस, ट्रिनिडाड, केन्या, यूगाण्डा, मलेशिया, थाई, इण्डोनेशिया, नेपाल, डर्वन, सुवाफिजी, लंका, बर्मा, इंग्लैण्ड और अमेरिका में रहने वाले भारतीय आज भी अपने धर्म और अपनी संस्कृति की आदि भूमि भारत वर्ष से सम्बन्ध बनाये हुए हैं।



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