चरित्र-साधना से भी अधिक पवित्र

June 1970

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जम्बूदीप का नृत्य संगीत विश्वविद्यालय और आचार्य कुमारदेव को उन दिनों आर्यावर्त ही क्यों, सारा विश्व जानता था। वे संगीत-सिद्ध थे। संगीत की ऐसी कोई विद्या न शेष थी, जिसका मर्म कुमारदेव न जानते हों।

मगध, कौशल, कौशाम्बी, सिन्धु, पाँचाल, उरु, कुरु, मिश्र, ईरान आदि अनेक राज्यों की राजकुमारियाँ और श्रीसामंतों की पुत्रियाँ उनके गुरुकुल में नृत्य-संगीत सीखती थीं पर आचार्य देव को आज तक कोई ऐसा योग्य शिष्य नहीं मिल सका था, जिससे वह आशा करने कि वह नादयोग संगीत की परम्परा को उन्हीं के समान जीवित रख सकेगा।

उस दिन पहली बार आशा की पहली किरण आचार्य देव के हृदय में उतरी जिस दिन मगध की राजनर्तकी सुनन्दा की ज्येष्ठा कन्या कोसा ने आश्रम में प्रवेश लिया। आचार्य देव जानते थे- संगीत और नृत्य कलायें योग साधनायें हैं। उन्हें वही प्राप्त कर सकता है, जिसमें असीम श्रद्धा, निष्ठा और चारित्रिक पवित्रता भी हो। यह संस्कार आत्मा से सम्बन्ध रखते हैं-समृद्धि सवर्णना और कुल श्रेष्ठता से नहीं। जब उनने कोसा को उस रूप में पाया तो उनकी वर्षों की निराशा दूर हो गई। कोसा को पाकर उनका आचार्यत्व और वात्सल्य दोनों एक साथ उमड़ पड़े। उन्होंने जितने परिश्रम से कोसा को आरती, अमिसारिका, परकीय, प्रमोद, मधुमिलन, संगोपन, सूचिका, ताँडव आदि गूढ़ और सूक्ष्म भावनाओं से ओत-प्रोत नृत्य सिखाये। कोसा ने उन्हें सीखा, कला पारंगत हुई और एक दिन मगध की राजनर्तकी का यश-शील पद भी प्राप्त कर लिया।

योग साधनायें कठिन बताई जाती हैं पर सिद्धि का संरक्षण उससे भी कठिन बात है। कोसा जिस दिन मगध राजनर्तकी घोषित हुई, उस दिन उसे प्राप्त करने के लिये श्रीसामन्तों, राजकुमारों तक में होड़ लग गई। स्वयं मगध नरेश की दृष्टि भी निष्कलुष न रह सकी, पर कोसा के मस्तिष्क में आचार्य देव के वह शब्द अभी भी सुप्त नहीं पड़े थे- भद्र! राजनर्तकी का गौरव प्राप्त हुआ तो तुम भारतीय नारी हो, भारतीय नारी सदैव एक पुरुष का वरण करती है और उसके आदर्शों के लिये अपने को न्यौछावर करती रही है, उस परम्परा को भूलना मत।”

दीपक की लौ में जल जाने वाले पतंगों की तरह अनेकों कामुक व्यक्तियों की लालसायें बढ़ीं और कोसा की दृढ़ता की अग्नि में भस्मसात होती गई। कोसा महामन्त्री शकटार के पुत्र स्थूलिभद्र को प्रेम करती थी। उनके अतिरिक्त उसने स्वप्न में भी किसी पुरुष का स्मरण नहीं किया।

कोसा जितनी पवित्रता से स्थूलिभद्र के प्रति प्रेम रखती थी, उतना ही रथाध्यक्ष राजकुमार सुकेतु उस पर आसक्त था। जिस दिन उसे पता चला कि कोसा स्थूलिभद्र को वरण कर चुकी है, उसका प्रतिशोध उमड़ उठा, उसने शकटार की हत्या करा दी ताकि स्थूलिभद्र का कोई प्रभाव शेष न रहे। इस घटना से स्थूलिभद्र इतना दुःखी हुए कि उन्होंने वैराग्य धारण कर लिया और वन में जाकर तप करने लगे। यह कोसा के जीवन में वज्राघात की तरह था, किन्तु उसकी चारित्रिक दृढ़ता में रत्ती भर भी प्रभाव नहीं पड़ा।

तपस्वी स्थूलिभद्र चतुर्मास के लिये मगध आने वाले हैं, यही नहीं वे कोसा के ही अतिथि होंगे। एक क्षीण आशा अब भी बनी हुई थी, पर जब वह आये और चतुर्मास साधना पास रहकर कर चुके किन्तु उनके मन में एक क्षण के लिये भी काम-विकार और साँसारिक आकर्षण जागृत न हुआ तो कोसा की रही-सही आशायें भी टूट गई।

स्थूलिभद्र चतुर्मास समाप्त कर निर्विकार लौट गये। वह रात कोसा के जीवन की सबसे निराश और भयंकर रात थी। आशा जीवन को बाँध रखने वाली एक प्रबल आकर्षण शक्ति है, वह टूट जाये और फिर जीवन में प्रसन्नता दिखाई न दे तो विरक्ति स्वाभाविक ही है। रात का एक-एक पल कोसा के लिये भारी पड़ रहा था, एक परमात्मा के अतिरिक्त दूसरा कोई आश्रय समझ में नहीं आ रहा था, पर उस दिव्य सत्ता को समझ पाना एकाएक सबके बस की बात नहीं? वह तो योगियों को ही कठोर तप करने से मिलता है।

रात्रि का समय, कोसा उठी और द्वार से बाहर की ओर चल पड़ी। यह घर से एक ही क्षण में निकलकर कहीं प्राणान्त कर लेना चाहती थी पर वह जैसे ही द्वार पर आई, सम्मुख खड़े आचार्य कुमारदेव को देखते ही अवाक् रह गई। आगे बढ़कर उसने सजल नेत्र गुरु को प्रणिपात किया- “यह जीवन बड़ा कठिन है गुरुदेव।” बस वह इतना ही कह सकी। आँखों से आँसुओं की अविरल धारा फूट पड़ी।

आचार्य देव ने उसे उठाकर हृदय से लगाते हुए कहा, ‘पुत्री। उठो तुम्हारा चरित्र स्थूलिभद्र की साधना से भी अधिक पवित्र है। अब तुम आश्रम में रहकर शिक्षण कार्य करो, तुम्हारी गाथा चिरकाल तक भारतीय नारी को चरित्र का उपदेश करती रहेगी।


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