प्राणियों के पोषण और रक्षण में रत– मरुत देवता

June 1970

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33 देवताओं और पंचतत्त्वों में वायु की बड़ी प्रतिष्ठा की गई है। प्राणवायु, मरुद्गण, पवमान, सोम के रूप में जिस जीवन-तत्त्व की प्रार्थना वेद-उपनिषदों में की गई है, वह हवा के ही विभिन्न रूप हैं। 49 गैसें, 49 मरुद्गण ही हैं, जो भिन्न-भिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न प्रकृति के पदार्थों से संयुक्त होकर विविधतापूर्ण संसार बनाते हैं। यदि मरुद्गण न होते, तो अनेक तत्त्वों का सामंजस्य न हो पाता और पृथ्वी पर तब जीवन का आविर्भाव, पोषण और रक्षण भी नहीं हो सकता था।

वायु को यदि गैसों का ही पुँजीभूत स्वरूप कहें, तो भी वह स्थूल पदार्थ (धातुएँ, खनिज, लवण) और सूक्ष्म शक्तियों (विद्युत, ताप और प्रकाशकणों) का ही मिश्रित रूप होना चाहिए। इस रूप में भी उनसे संसार की जितनी सेवा हो रही है, उसे आज वैज्ञानिक भी मानने लगे हैं जबकि उनकी जानकारियाँ सीमित प्रयोगों पर ही आधारित हैं।

जिस प्रकार आजकल मौसम-विशेषज्ञ गुब्बारे और सर्वे-प्रक्षेपण-यन्त्र छोड़कर वायुमण्डल और मौसम का अध्ययन करते हैं उसी प्रकार महर्षि स्यूमर रश्मि भार्गव ने बहुत काल तक मरुतः देवता का अध्ययन किया। उस अध्ययन से उन्होंने जो सूक्ष्म जानकारियाँ उपलब्ध कीं, उनका वर्णन उन्होंने ऋग्वेद म. 10 म. 6 के 77-78 सूक्तों में किया है। लिखा है-

अभ्रपुषो न वाचा प्रुषा वसु-

हविष्मन्तो न यज्ञा विजानुवः।

स्तुतियों द्वारा प्रसन्न हुए मरुद्गण मेघ से जल-बिन्दु रूप वैभव की वृष्टि करते हैं। वही हवि सम्पन्न यज्ञ के समान विश्व के रचयिता हैं-

प्रये दिवः पृथिव्या न बर्हणात्मना रिरिच्रे अभ्रान्न सूर्या।

पाजवस्वन्तो न वीराः पनस्यवो- रिशादसो मर्या भद्यवः अभिधवः॥

युष्माकं बुध्ने अपां न यामनि विथुर्यति न महीश्रथर्यति।

विश्वप्सुर्यज्ञो अर्वागयं सु वः प्रयस्वन्तो न सन्नाच आगत॥

-ऋग्वेद 10।6।77-3, 4

अर्थात्- पृथ्वी और स्वर्ग में यह मरुद्गण स्वयं प्रवृद्ध हुए हैं, सूर्य के मेघ से बाहर निकलने के समान ही मरुद्गण प्रकट हुए हैं। यह वीर पुरुषों के समान प्रशंसा की कामना करते हैं, शत्रुओं का संहार करने वाले मनुष्यों के समान तेजस्वी हैं। हे मरुद्गण ! जब तुम पृथ्वी पर वृष्टि करते हो, तब पृथ्वी न तो व्याकुल होती है और, न बलहीन होती है।

विलक्षण-सी लगने वाली इन ऋषाओं को जब विज्ञान की कसौटी पर कसते हैं, तो पता चलता है कि वायु के सम्बन्ध में ऋषियों की जानकारी कितनी आधुनिक थी। अपने दृष्टिकोण को थोड़ा व्यापक बनायें, तो पता चलेगा कि हमारे आस-पास जो हवा पूर्व से पश्चिम, पश्चिम से पूर्व, उत्तर से दक्षिण, दक्षिण से उत्तर भागती दिखाई देती है– वह केवल भ्रम है। हम रेलगाड़ी पर बैठे होते हैं, तो लगता है कि गाड़ी स्थिर है और रेलवे-लाइन के किनारे खड़े हुए पेड़ पौधे और जमीन चल रही है। उसी प्रकार हवा की कोई दिशा नहीं है, वह तो एक गोलाकार लिफाफा या समुद्र जैसा है, जिसने पृथ्वी के चारों ओर घेरा डाल रखा है।

उसकी उत्पत्ति के सूक्ष्म रहस्यों की खोज विज्ञान अभी तक नहीं कर सका। विज्ञान की आधुनिक जानकारी पृथ्वी से 120 मील ऊँचाई तक की है। इससे ऊपर के क्षेत्र को यद्यपि ‘एक्सोस्फियर’ नाम दे दिया गया है, पर वैज्ञानिक उसके बारे में इतना ही जानते हैं कि वहाँ उसके अणु-परमाणुओं की संख्या बहुत ही कम है। यह क्षेत्र बाद में अनन्त आकाश तक चला जाता है। यहाँ वायु के स्वयं प्रवृद्ध होने की बात यों सत्य होती है कि आकाश में स्थित अनेक प्रकार के ऊर्जा-कण यहाँ एकत्रित होते हैं। ज्ञात नहीं, उनकी किस क्रिया से वायु का प्राकट्य होता है। पर हमारी मान्यता को समर्थन अवश्य मिल जाता है कि आकाश से ही वायु की उत्पत्ति है। यह आकाश कोई स्वतन्त्र वस्तु नहीं, केवल मात्र आकाशीय पिंडों का सूक्ष्म विकिरण मात्र है।

इस 120 मील से नीचे 60 मील तक- 60 मील की पट्टी मनुष्य जीवन की सुरक्षा का सबसे बड़ा कवच और रहस्य है। इसे वैज्ञानिक भाषा में ‘आइनोस्फियर’ कहते हैं। ‘आइन’ कहते हैं विद्युतीकणों को और ‘आइनोस्फियर’ को विद्युतीकरण कहते हैं। यह पट्टी मनुष्यजीवन की सुरक्षा पट्टी है। यदि यह न होती, तो आकाश से होने वाली तत्त्व-वर्षा, विकिरण और उल्कापात का प्रभाव सीधे पृथ्वी पर पड़ता और उस मार को झेलना किसी भी प्राणी के लिये सम्भव न होता।

यह वह क्षेत्र है, जहाँ रासायनिक प्रक्रियाएं बड़ी तेजी से चलती रहती हैं, तो ऑक्सीजन और नाइट्रोजन गैस के परमाणु तेजी से नाचने लगते हैं। इस उछल-कूद में वे एक-दूसरे से टकराते हैं और इसी कारण उनमें विद्युतआवेश आ जाता है। इसे एक प्रकार से सीधे वायु और प्राणशक्ति का सांघातिक सम्मिश्रण कहना चाहिए। वायु यहाँ से प्राणवायु में परिवर्तित होकर एक ओर मनुष्य की सुरक्षा करती है और दूसरी ओर प्राणियों के विकास की संभावनाएँ पैदा करती हैं। इसी बात को महर्षि स्यूमरश्मि भार्गव ने यों कहा है-

प्रयद्वहध्व मरुतः पराक्राद्यूयं महः संवरणस्य व स्वः।

विदानासो वसवो राध्यस्याराच्चिद् द्वेषः सनुतर्यु योत॥

-10।6।79-6

हे मरुद्गण! बहुत दूर से तुम अभीष्ट धन लाते हो। द्वेष करने वाले शत्रुओं को दूर भगाते हुए तुम उनके सब धनों को प्राप्त कर लेते हो।

यह विद्युत या प्राणशक्ति ही प्रकीर्ण होकर सारे संसार के प्राणियों के भीतर प्राणवायु रूप से गमन करती है। इसकी तेजस्विता भी असंदिग्ध है। वायुमण्डल में यह क्रिया सम्पन्न होने के कारण ही संचार-व्यवस्था का इतना आधुनिक रूप सामने आया। आज रेडियो में हम अमेरिका और इंग्लैंड के प्रसारण सुन लेते हैं, वह इस वायु पट्टी (आइनोस्फियर) के फलस्वरूप ही है। रेडियो स्टेशनों से होने वाले प्रसारण यहीं आकर टकराते हैं और फिर सारी पृथ्वी में फैल जाते हैं। तब मरुद्गणों को प्राप्त कर लेने से भारतीय ऋषि बिना किसी यन्त्र के संसार के किसी भी कोने में होने वाली हलचल को इसी कारण देख-सुन सकते थे। आज की अपेक्षा उन्हें मौसम का ज्ञान बहुत पहले हो जाता था, क्योंकि यह सब मानसिक प्रक्रिया से सम्पन्न होता था।

जल देवता का वर्णन करते हुए हमने एक स्थान पर लिखा था कि उनमें सचेतन क्रियाशीलता होने का प्रमाण यह है कि जल प्रकृति के परिवर्तनों के साथ स्थूल के परिवर्तन के लिये उतने बाध्य नहीं, जितने दूसरे स्थूल पदार्थ।

इस रहस्य को समझना हो, तो हमें आइनोस्फियर की नीचे वाली वायु-पट्टी का अध्ययन करना होगा। इसका प्रारम्भ ओजोन गैस से होता है, इस पट्टी में आइनोस्फियर की विद्युत और अल्ट्रा-वायलेट-किरणों के प्रभाव के कारण तापशक्ति इतनी बढ़ जाती है कि यदि वह पृथ्वी तक सीधी चली आने दी जाती, तो सारी पृथ्वी आग के एक गोले के रूप में धधक रही होती। जिस प्रकार बिल्ली और बन्दर चलते हुए, ऊपर-नीचे चढ़ते-उतरते अपने बच्चों को पेट से लगाये रहते हैं। हृदय से लगे रहने से बच्चे की सुरक्षा ही नहीं होती, वरन् माता का स्नेह का आदान-प्रदान भी होता है। हमारे यहाँ मित्रों से हृदय-से-हृदय मिलाकर मिलने की परम्परा है। उसमें इस तरह के स्नेह के आदान-प्रदान का सिद्धान्त ही काम करता है। ठीक ऐसे ही इस स्थान पर वायुदेव का उदार हृदय मनुष्य के लिये काम करता है। वह यहाँ ऐसी प्रक्रिया उत्पन्न करते हैं, जिससे मनुष्य की रक्षा होती है और पोषण के तत्त्व भी वायु में घुलकर हम तक पहुँचते हैं।

शून्य डिग्री से 170 डिग्री फारेनहाइट की इस गर्मी को यह पट्टी सोख लेते हैं और अधिक से अधिक 37 डिग्री फारेनहाइट गर्मी ही नीचे आने देती है। यह वह स्थान होता है, जब वायु देवता सबसे तीव्र गति से प्रकम्पित करते हैं। इसी मण्डल के 78 सूक्त के 1, 2 और 3 मन्त्रों में इस रहस्य का बड़ा सूक्ष्म विवेचन हुआ है। यहाँ वायु का वेग 200 मील प्रति घण्टा तक रहता है। वैज्ञानिकों को यह भी आश्चर्य है कि जहाँ 50 मील नीचे के क्षेत्र में वायु पूर्व से पश्चिम की ओर चलती है, वहाँ इससे ऊपर के इस क्षेत्र में वह उलटा अर्थात् पश्चिम से पूर्व की ओर चलती है और इसका कोई रहस्य ज्ञात नहीं कि ऐसा क्यों होता है? यह क्षेत्र 12 मील से 21 मील की ऊँचाई का माना गया है और उसे ‘स्ट्रेटोस्फियर’ नाम दिया गया है। यहाँ मरुत देव को वस्तुतः मनुष्य जाति की सेवा के लिये प्राकृतिक नियमों का उल्लंघन और तप करना पड़ता है; इसलिये उनकी महानता की जितनी स्तुति की जाय, कम मानी जानी चाहिए।

देबोर्त नामक फ़्रांसीसी वैज्ञानिक ने मौसम सम्बन्धी अध्ययन के समय वायु के अनेक विलक्षण गुणों का पता लगाया। उन्होंने देखा कि 8 मील की ऊँचाई के क्षेत्र में वायुमण्डल में कभी मौसम सम्बन्धी स्थिरता नहीं रहती; इसलिये इस क्षेत्र का नाम ट्रापोस्फीयर रखा गया है। यहाँ से ताप और शीत के घटने-बढ़ने के परिणाम स्वरूप मौसम का आविर्भाव होता है, जिससे हम लोग प्रभावित होते रहते हैं।

सबसे मुख्य शोध भारतीय योग की वह क्रिया है, जिसके द्वारा वायु में पाई जाने वाली उन समस्त अदृश्य शक्तियों का हमें लाभ मिलता है, उसे प्राणायाम कहते हैं। प्राणायाम से शरीर के दूषित मलों का शोधन होकर चित्तवृत्तियों का विकास होता है जिससे हमें मौसम का पूर्वाभास, शरीर में तेज की वृद्धि, प्राणविद्युत की प्राप्ति, दूसरों के मन की बातें जानना, अपने साथ होने वाली घटनाओं का पूर्वाभास आदि चमत्कार प्राप्त होते हैं। प्राणायाम से भीतर भरी हुई हवा, शरीर में आकाश तत्त्व को शुद्ध करती है। उसी से सूक्ष्म ग्रहणशीलता बढ़ती है और एक समय वह आ सकता है, जब हम बिना किसी यन्त्र के पृथ्वी के किसी भी भाग में होने वाली हलचल को समीप हो रही घटना की भाँति देख-सुन सकते हैं। यह सब वायु द्वारा प्राणशक्ति के संवर्द्धन और शारीरिक यन्त्रों के शुद्धीकरण का परिणाम होता है। उसके लिये भारतीय योगियों ने अनेक तरह की प्राणायाम-विधियाँ ढूँढ निकाली हैं। उसका अपना एक स्वतन्त्र इतिहास ही बन गया है। यह विद्या प्राणविद्या के नाम से विख्यात है। भारतवर्ष के अतिरिक्त तिब्बत और जापान के लोग भी इसे जानते और लाभ उठाते हैं।

वायु हमारे प्राण को धारणकर हम तक पहुँचाने वाला तत्त्व है– देव है। हम उन्हें यज्ञों व आहुतियों के द्वारा शुद्ध और परिपुष्ट रखा करते थे, साथ ही प्राणायाम के अभ्यास से स्वास्थ्य ही नहीं, अनेक सूक्ष्म चमत्कार– मेधा और ऋतंभरा, प्रज्ञा आदि प्राप्त किया करते थे। जब से हम यह बातें भूल गए, हमारी उन्नति के द्वार बंद हो गए। हमें मरुत देवता की कृपा प्राप्त करने के लिए यज्ञों का प्रसार, प्राणायाम की शोध और उसका अभ्यास तो करना होगा ही; धुम्रपान, यंत्रीकरण आदि को भी रोकना होगा, जिससे मरुत देवता की कृपा का अधिक से अधिक लाभ ले सकें।



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