"और दूसरा वह वृक्ष है महात्मन्! देखिये न। आस-पास की सारी भूमि पर उसने अधिकार कर लिया है, छोटे-छोटे पौधों को पनपने नहीं दिया इसने। दूसरे के अधिकार को भी अपना हित मानकर शोषण कर लिया और आज सभी वृक्षों से विशाल दिखाई देने लगा, पर आप हैं कि नैतिकता की प्रशंसा के पुल बाँधे जा रहे हैं। महाराज! संसार में शोषक, शक्तिशाली और हिंसक पनपते हैं। नीति और ईमानदारी को पकड़े रहने वाले बेचारे दूसरे वृक्षों को देखो, कितने कोमल और कमजोर दिखाई देते हैं। उगते, फलते, फूलते तो ये भी हैं,पर इनकी करोड़ों की शान और इस मदमस्ती में झूमते एक विशाल वृक्ष की शान– क्या तुलना हो सकती है ?"
साधु मुस्कराये और बोले– "वत्स! कुछ प्रश्न ऐसे होते हैं, जिनके उत्तर तत्काल नहीं दिये जाते। प्रतीक्षा करो और प्रतिफल देखो। शीघ्र ही समझ में आ जायेगा कि नीति, नीति ही है और अनीति, अनीति ही है। अनीति का अन्त सदैव दुःखद ही होता है।"
ग्रीष्म के अन्तिम दिन, वर्षा के पूर्वारम्भ के दिन बड़े बवण्डरी और तूफानी होते हैं। ऐसे ही किसी एक दिन भयंकर तूफान आया। छोटे-छोटे कोमल पौधे झुक-झुक गये, पृथ्वी माता की गोद में लोट-लोट गये। तूफान उन्हें पार करके निकल गया, तो जैसे पहले खड़े थे, वैसे ही फिर खड़े होकर अपनी विकासयात्रा में जुट गये।
किन्तु उस महावृक्ष के अभिमान और अहंकार का अब तक भी कोई ठिकाना नहीं था। उसी अकड़ में खड़ा रहा। तूफान अपनी सारी शक्ति समेटकर उस पर टूट पड़ा और लंका में जो स्थिति रावण के दस शीश और बीस भुजाओं की हुई थी, वही स्थिति उस भीमकाय वृक्ष की कर डाली। दनुजाकार डालें, तने सब क्षत-विक्षत लोटने लगे, जड़ें भी संभाल न पाईं। पेड़ पल भर में ढेर हो गया।
प्रातःकाल जो भी ग्रामीण उधर से निकलता, हाहाकारी वृक्ष की यह विनाशलीला देखकर उधर ही खिंचा चला आता। देखते-देखते ग्रामवासियों की भीड़ एकत्रित हो गई। इतना बड़ा पेड़ ढहकर भूमि पर बिखरा पड़ा है और छोटे-छोटे पौधे आनन्द की हिलोरें ले रहे हैं। यह देखकर सभी को आश्चर्य हो रहा था, तभी साधु भी उधर आ पहुँचे।
वृक्ष की ओर देखकर हँसे और बोले– "यही है उस दिन के प्रश्न का उत्तर। अनीति और अधर्म से प्रारम्भ में लोग तेजी से बढ़ते हैं, पर अन्त उनका ऐसा ही अनिष्टकारी होता है, जैसे इस वृक्ष का।"