ध्यान- भारतीय दर्शन का गम्भीरतम विज्ञान

June 1970

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शिकागो के जोहान्स और टेड सीरियस– कोई भारतीय योगी नहीं है। ध्यान विज्ञान पर उनका कोई अध्ययन, कोई शोध भी नहीं है; किन्तु कितना आश्चर्य है कि टेड सीरियस अपने सामने कैमरा रखते हैं, मन में किसी वस्तु का सम्पूर्ण एकाग्रता से ध्यान करते हैं और जोहान्स ने कैमरे का शटर दबाया कि लेन्स के सामने टेड के बैठे होने पर भी चित्र टेड का न आकर उसकी मानसिक कल्पना का आ जाता है। उदाहरण के लिये टेड यदि किसी घोड़े का ध्यान कर रहा होगा, तो कैमरे में फोटो घोड़े का ही होगा; जबकि ताल (लेन्स) के सामने बैठा होगा टेड सीरियस।

इसे न तो हिप्नोटिज्म कहा जा सकता है, न ट्रिक। यह भारतीय दर्शन और उपासना पद्धति में प्रयुक्त एक गम्भीरतम ध्यान विज्ञान है, जिसके आधार पर कभी भारतीय न केवल दूरदर्शन, दूरश्रवण, दूसरों के मन की बात जान लेना, ईशत्व, वशित्व आदि सिद्धियाँ प्राप्त किया करते थे, बल्कि अपनी लघुतम चेतना को सृष्टि की किसी भी प्रचण्ड प्रक्रिया के साथ संयोग करके कुछ भी विलक्षण परिणाम उपस्थित कर सकने में समर्थ होते थे। विराट ईश्वरीय चेतना में घुलाकर अपने को मोक्ष, परमानन्द और भगवान बना देने का महानतम लाभ भी इस विज्ञान द्वारा ही प्राप्त किया करते थे।

भारतीय ध्यानपद्धति के प्रति जो उपेक्षा आज शिक्षित भारतीयों में देखने को आती है, वैसी ही उपेक्षा प्रारम्भ में इस टेड सीरियस के साथ भी की गई। उसे भ्रामक और हिप्नोटिज्म करने वाला कहा जाता रहा, पर जब सन् 1963 में टेड सीरियस ने अनेक वैज्ञानिकों, फोटोग्राफरों, बुद्धिजीवियों तथा ‘इलिनाइस सोसायटी फॉर साइकिक रिसर्च’ (यह संस्थान अमेरिका में मनोविज्ञान तथा अतिमानवीय चेतना सम्बन्धी शोध कार्य करती है) की उपाध्यक्ष श्रीमती पालिन ओहलर की उपस्थिति में कई प्रतिबन्धों, फिल्मों पर नियन्त्रण दूसरे-दूसरे के कैमरों के प्रयोग द्वारा भी टेड सीरियस तथा जोहान्स ने कल्पना के चित्र उतारकर दे दिये तब एक साथ सारे योरोप में तहलका मच गया और वैज्ञानिकों को आश्चर्य हुआ कि दूरवर्ती वस्तुओं के फोटो लेना केवल माइक्रोफिल्म द्वारा ही सम्भव है; और वह भी तब जबकि उस तरह का दृश्य किसी निश्चित फ्रीक्वेन्सी पर निश्चित माइक्रो-ट्रांसमीटर द्वारा शक्तिशाली विद्युत-तरंगों द्वारा प्रेक्षित किया गया हो। बिना किसी यन्त्र और माइक्रो-तरंगों (शब्द की तरह आकार को भी शक्ति तरंगों में बदलकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजते हैं, टेलीविजन उन्हें ही पकड़ते हैं, इन्हें माइक्रो-तरंगें कहते हैं) के केवल मस्तिष्क द्वारा किसी भी स्थान का कैमरे में चित्र उतार देना एक बड़ा भारी आश्चर्य था, जिसने सारे दर्शकों को कौतूहल में डाल दिया, उसका कोई सिद्धान्त वे लोग निश्चित नहीं कर पाये।

1962 में ही टेड सीरियस को भारतवर्ष का नक्शा देखने को मिला था। नक्शे से भौगोलिक सीमाओं का अनुमान किया जा सकता है। किस स्थान पर क्या हो रहा है, कैसे लोग रहते हैं, कौन सी इमारत खड़ी है, कितने वृक्ष, बगीचे, तालाब आदि हैं− इन सबकी कोई स्पष्ट जानकारी नहीं हो सकती। उस समय अन्य देशों के समान टेड सीरियस से भारत के भी कुछ प्रसिद्ध स्थानों के कल्पना-चित्र उतारने को कहा गया। टेड सीरियस ने फतेहपुर सीकरी की मस्जिद के मुख्य द्वार और दिल्ली के लाल किले के दीवाने आम के दो चित्र खींचे। बाद में अध्ययन करके यह पाया गया कि वे कल्पना-चित्र फतेहपुर सीकरी की मस्जिद के मुख्य द्वार और लाल किले के दीवाने आम की बिलकुल हमशक्ल थे। नवम्बर 1968 की मासिक “कादम्बिनी” में टेड सीरियस के उन चित्रों का सही चित्रों से तुलनात्मक सामुख्य कराया गया है। उसे देखकर कोई भी आश्चर्य किये बिना न रहेगा कि अमेरिका में बैठे किसी व्यक्ति ने हिन्दुस्तान के ऐसे स्थान के हू-ब-हू फोटो कैसे खींच दिए, जबकि इस तरह के किन्हीं स्थानों का उसे कोई पूर्वपरिचय भी नहीं था।

योग तत्त्ववेत्ता भारतीयों की दृष्टि में यह कोई बड़ा चमत्कार नहीं। ध्यान के परिपाक की प्रारंभिक अवस्था मात्र है। महर्षि पातंजलि कृत योगदर्शन में लिखा है-

“तम प्रत्ययैकतानता ध्यानम्”

– पाद 3। सूत्र 2

अर्थात् जिस प्रकार कोई नदी जब समुद्र में मिलती है, तो कुछ दूर उसका प्रवाह अलग-सा प्रतीत होता है, किन्तु थोड़ी ही देर में नदी का अस्तित्व समुद्र में इस तरह विलीन हो जाता है कि उसके स्वतन्त्र अस्तित्व का कुछ भान ही नहीं होता। उसी प्रकार जब कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति, वस्तु या देश का ध्यान करता है, तो ध्येय के अवलम्ब के ज्ञान में ध्यान करले वाले के चित्त का लय हो जाता है; अर्थात् दोनों की अनुभूतियाँ एक हो जाती हैं।

ऐसी स्थिति में प्रथक होते हुए भी एकत्व का ज्ञान ही उन सब सिद्धियों का कारण है, जो ध्यानयोग से प्राप्त होती हैं। एक की मानसिक चेतना प्रवाहित होकर दूसरे का मानसिक चेतना में विलय कर देने का नाम ध्यान है, और सिद्धियाँ उसकी अनेक विधायें हैं। यह विलय की पद्धति, जितनी अधिक एकाग्र होगी, तन्मयता जितनी बढ़ेगी, सादृश्यता का ज्ञान उतना ही स्पष्ट होता चला जायेगा।

ध्यान दो वस्तुओं की एकता का प्रतीक है। इस स्थिति में कोई भी बुद्धिवादी व्यक्ति प्रश्न कर सकता है कि मेल सदैव एक-सी वस्तुओं में ही हो सकता है- जल का जल से मेल हो सकता है, जल और दूध एक रूप नहीं हो सकते। ऑक्सीजन गैस ऑक्सीजन गैस से मिला देने पर ही ऑक्सीजन बना रह सकती है। कार्बन से संयोग हो जायेगा तो अविलम्ब एक नये तत्व की रचना हो जायेगी। फिर न ऑक्सीजन रहेगी न कार्बन, वरन् कार्बन डाई-ऑक्साइड की रचना हो जायेगी।

भारतीय योगी इस बात को अच्छी तरह जानते थे। भगवान राम को महर्षि वशिष्ठ सावित्री का ध्यान सिखा रहे थे, तब यह प्रश्न उन्होंने भी वशिष्ठ से किया था-

न सम्भवति सम्बन्धो विषमाणां निरन्तरः।

न परस्पर सम्बन्धाद्विनानुभवनं मिथिः॥

– योग वशिष्ठ 3।121।37

अर्थात् असमान वस्तुओं में कभी सम्बन्ध नहीं हो सकता, इसी प्रकार जब तक उस वस्तु का ज्ञान नहीं होता, तब तक उस वस्तु से सम्बन्ध नहीं हो सकता?

इस पर वस्तुस्थिति का निराकरण करते हुए महर्षि वशिष्ठ ने जो कुछ कहा, वह आज के विज्ञान के विद्यार्थी की जानकारी से शत-प्रतिशत मेल खा जाता है, उन्होंने कहा− राम यह ठीक है कि-

‘सज्जातीयः सज्जातीये नैकतामनुगच्छति’

अर्थात् सजातीय पदार्थ ही एकता को प्राप्त हो सकते हैं। किन्तु राम−

यदा चिन्मात्रमेवेयं दृष्टिदर्शन दृश्यदृक्।

तदानुभवनं तत्र सर्वस्य फलितं स्थितम्॥

− योग वशिष्ठ 6।2।38।8

सर्व जगद्गते दृश्यं बोधमात्र मिदं ततम्।

स्पन्द मात्रं यथा वायुर्जलमात्रं यथार्णव॥

− योग वशिष्ठ 6।2।25।17

अर्थात्− दृष्टा को वस्तुएँ इसलिये दिखाई देती हैं कि दृष्टा, दर्शन और दृष्टि सभी चेतन हैं। विश्व के सभी पदार्थों में यह चेतना ही बोध वा अनुभव रूप में विद्यमान है। बोध ही सब ओर फैला हुआ है जैसे कि हवा के झोंके भी हवा और समुद्र जल भी जल है, उसी तरह सृष्टि के कण-कण में चेतना ही खेल रही है।



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